Saturday 10 August 2019

प्रकृति का विफल प्रयोग नहीं हैं ऐडियाकारन

प्रकृति का विफल प्रयोग नहीं हैं एडियाकारन
चंद्रभूषण
स्थापित मान्यताओं की गुलामी विज्ञान में भी खूब देखी जाती है। केकड़ों के करीब दिखने वाली अति प्राचीन, लगभग 50 करोड़ साल पुरानी कैंब्रियन जीव जातियों को ही सृष्टि के सबसे प्रारंभिक जानवर मानने का रिवाज लंबे समय तक जीव विज्ञान में चलता रहा। उन्नीसवीं सदी में इसे जीवाश्म विज्ञान का चरम समझा जाता था। इस मान्यता से न हट पाने के चलते ही 1868 में कनाडा में जब इससे भी दस करोड़ साल पुराने, बहुत ही सुंदर, सुडौल जीवाश्म खोजे गए तो अगले अस्सी-नब्बे वर्षों में दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका और आस्ट्रेलिया तक दुनिया में बहुत दूर-दूर की जगहों पर इनके दोहराव के बावजूद कभी इन्हें गैस के सोतों के निशान तो कभी किसी किस्म का पौधा कहकर खारिज कर दिया जाता था।

1946 में दक्षिणी आस्ट्रेलिया की एडियाकारा पहाड़ियों में ऐसे विविध रूपों वाले जीवाश्मों की खोज एक साथ होने के बाद इन्हें 'एडियाकारन बायोटा' का नाम दिया गया। लेकिन हाल तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया था कि ये पौधे थे या जानवर, या कुछ और। किसी चित्रकार के बनाए हुए से लगने वाले, छह फुट तक चौड़े जीवाश्म अपने पीछे छोड़ गए इन जीवों का अभी धरती पर मौजूद किसी भी जीवधारी के साथ कोई मेल नहीं है। यही कारण है कि जीववैज्ञानिक परिवार निर्धारण में इनकी जगह कहां सुनिश्चित की जाए, यह भी तय नहीं हो पा रहा था। इनके अस्पष्ट कुल नाम में लगा ‘बायोटा’ इस दुविधा को ही दर्शाता है। एक राय इन्हें पृथ्वी पर प्रकृति का विफल प्रयोग मानने की है, क्योंकि एक जैविक प्रयोग के रूप में अगर ये सफल होते तो इनकी संततियों का कोई न कोई रूप धरती पर बाद में भी मौजूद होता।

हकीकत यह है कि कैंब्रियन युग की शुरुआत के साथ ही इनके जीवाश्मों की निरंतरता अचानक कुछ इस तरह टूट जाती है, जैसे गधे के सिर से सींग। इसकी दो-तीन वजहें हो सकती हैं। एक तो यह कि वातावरण में कोई ऐसा बदलाव हुआ हो कि इनका जीवित रह पाना संभव न रह गया हो। दूसरा यह कि ये कैंब्रियन जंतुओं की खुराक बन गए हों। और तीसरा यह कि एक जीवजाति के रूप में इनका जारी रहना अपने भीतर से ही असंभव हो गया हो और इनके गायब होने के क्रम में जीवन की निरंतरता कायम रखने के लिए सृष्टि को एककोशिकीय जीवों का ही इवॉल्यूशन नए सिरे से करके कैंब्रियन जीवों की रचना करनी पड़ी हो।

इस तीसरे तर्क के साथ समस्या यह है कि एडियाकारन जीवों का आधिपत्य धरती पर थोड़ा-बहुत नहीं, पूरे नौ करोड़ 30 लाख साल कायम रहा। पत्थरों पर उनकी शुरुआती छापें 63 करोड़ 50 लाख साल पहले से मिलनी शुरू होती हैं और 54 करोड़ 20 लाख साल पहले वाले समय के तुरंत बाद अचानक मिलनी बंद हो जाती हैं। इसकी तुलना अगर स्पीलबर्ग की बहुचर्चित फिल्म ‘जुरासिक पार्क’ से चर्चा में आए जुरासिक युग से करें तो वह पांच करोड़ साठ लाख साल लंबा ही चल पाया था। अब, अगर हम डाइनोसोरों को प्रकृति के सबसे सफल प्रयोगों में से एक मानते हैं, तो इसकी लगभग दोगुनी अवधि तक धरती पर राज करने वाली जीवजाति को प्रकृति का विफल प्रयोग बताने का कोई औचित्य नहीं बचता।

बहरहाल, असल सवाल एडियाकारन जीवों की जाति निर्धारित करने का है कि वे जानवर थे या पौधे या इन दोनों से अलग कोई अद्भुत, अनोखी चीज। अभी पिछले हफ्ते एक चीनी और एक ब्रिटिश जीव विज्ञानी ने अपनी साझा रिसर्च में दावा किया है कि एडियाकारन हकीकत में जानवर थे और उनमें सब के सब नहीं तो कुछेक चल-फिर भी सकते थे। यह निष्कर्ष उन्होंने अपेक्षाकृत बाद की एक जीवजाति स्ट्रोमैटोवेरिस साइग्मोग्लेना के जीवाश्म के अध्ययन के आधार पर निकाला है। यह जीवाश्म 51 करोड़ 80 लाख साल पुराना है, यानी एडियाकारन जीवों का दौर खत्म हो जाने के ढाई करोड़ साल बाद का। लेकिन इसके कुछ लक्षण एडियाकारन से मिलते-जुलते हैं।

ब्यौरे में जाएं तो हर जानवर में खाना पचाने की कोई सुनिश्चित व्यवस्था- आर-पार जाने वाला कोई छेद- जरूर होता है। इसका अपवाद स्पंज हैं, जिनमें यह नहीं होता। वे पूरे शरीर से पानी सोखते-निकालते रहते हैं और इसी क्रम में पोषक तत्वों को अपने भीतर जमा करने और उच्छिष्ट के उत्सर्जन का काम भी संपन्न कर लेते हैं। इस नजर से एडियाकारन स्पंज और उससे बाद के जानवरों के बीच की कोई चीज हो सकते हैं। इस तरह की कुछ संरचनाएं स्ट्रोमैटोवेरिस साइग्मोग्लेना के जीवाश्मों में नजर आ रही हैं। लेकिन इन्हें एडियाकारन की ही परंपरा वाली जीवजाति मानने की वजह सिर्फ एक है कि दोनों की बनावट थोड़ी-बहुत मिलती-जुलती है। यह और बात है कि इस मामूली मिलान के आधार पर ढाई करोड़ के फासले को नजरअंदाज कर देना ज्यादातर जीवविज्ञानियों को रास नहीं आ रहा।

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