Wednesday, 11 April 2018

उन्नति का मूल नहीं अंग्रेजी भाषा

संक्रान्त सानु

कोई भी समृद्ध देश अपनी भाषाओं को छोड़ कर किसी गैर भाषा के प्रयोग से विकसित नहीं हुआ। आज भी विकसित देश अपनी भाषा के आधार पर ही आगे बढ़ रहे हैं 
नयें शैक्षिक सत्र से कई राज्य स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई की तैयारी कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी अंग्रेजी माध्यम के पांच हजार सरकारी स्कूल चलाने का एलान किया है। तर्क है कि अभिभावक ही अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की मांग कर रहे हैं और इसी कारण वह हिंदी माध्यम स्कूलों को अंग्रेजी माध्यम में बदल रही है।इस पर यह प्रश्न उठेगा ही कि आखिर अभिभावक अंग्रेजी की क्यों मांग कर रहे हैं? और क्या ऐसी मांग को पूरा करना राज्य और देश के हित में है? आज अंग्रेजी व्यवसाय, नौकरी और विज्ञान एवं तकनीक से जुड़ गई है। इस सबके फलस्वरूप वह समाज में सम्मान का प्रतीक बन गई है। ऐसे में अंग्रेजी की ओर रुझान स्वाभाविक ही लगता है, लेकिन हम यह नहीं पहचान रहे हैं कि अंग्रेजी के महत्व का एक भ्रम जाल सा फैलाया गया है। इसकी जड़ में सरकार की गलत नीतियां हैं।भारत में अंग्रेजी का वर्चस्व वैश्विक अनिवार्यता के कारण नहीं है। विश्व के समृद्ध देश अपनीअपनी भाषाओं का प्रयोग कर रहे हैं और निज भाषा ही उनकी उन्नति का मूल है। मुझे विश्व के करीब 35 देशों में जाने का अवसर मिला और मैंने यह पाया कि हर एक विकसित देश अपनी भाषा के आधार पर आगे बढ़ रहा है। कोई भी विकसित देश जन भाषाओं को छोड़कर किसी गैर भाषा के प्रयोग से विकसित नहीं हुआ। हर विकसित देश तकनीक-विज्ञान और व्यवसाय में जन भाषा का प्रयोग कर रहा है। अपनी ही भाषा के आधार पर इन देशों में नौकरियां भी मिलती हैं और उच्च कोटि का शोध भी होता है। आखिर इस सबके बावजूद भारत में अंग्रेजी का बोलबाला क्यों है?अंग्रेजी-माध्यम के स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने की होड़ क्यों है? यह इसलिए है, क्योंकि सरकार की नीतियों ने अंग्रेजी को ऊंचे ओहदे पर कायम रखा है।
सरकार उच्च कोटि के सभी संस्थान आइआइटी, आइआइएम, एम्स इत्यादि केवल अंग्रेजी माध्यम में चलाती है। सरकार की नीति के कारण ही अधिकतर उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय केवल अंग्रेजी में कार्य करता है। भारत सरकार अधिकतर परीक्षाओं में अंग्रेजी को माध्यम ही नहीं बनाती, अपितु अनिवार्य भी करती है। एसएससी जैसी परीक्षा के लिए भी अंग्रेजी अनिवार्य है। इसका परिणाम यह निकलता है कि विद्यार्थियों का सबसे अधिक परिश्रम विषय समझने की जगह अंग्रेजी से जूझने में निकल जाता है। यह भावुक बात नहीं है, बल्कि वैज्ञानिक सत्य है। अनेक वैज्ञानिक शोध यह साबित कर चुके हैं कि मातृभाषा में पढ़ने से बच्चे की बुद्धि का सबसे अच्छा विकास होता है। दशकों से यूनेस्को का भी यही विमर्श है।भारत में भी हाल में आइबीसी के शोध ने साबित किया कि आंध्र प्रदेश में तेलुगु माध्यम में पढ़ रहे बच्चों की विज्ञान और गणित की समझ अंग्रेजी-माध्यम में पढ़ रहे बच्चों से कहीं अच्छी थी। जापान, रूस, चीन आदि देश अपनी भाषा में उच्च शिक्षा देने के कारण ही बहुत तेजी से विज्ञान और तकनीक में प्रगति इसीलिए कर रहे हैं, क्योंकि वहां छात्रों को अपनी भाषा में विषय को समझने में आसानी होती है। इसके विपरीत देश में अंग्रेजी का वर्चस्व विकास का सबसे बड़ा अवरोधक बन गया है। हम देश की बुद्धि का हरण कर रहे हैं और अंग्रेजी लाद कर बच्चों को मानसिक विकलांग बना रहे हैं। इन गलत नीतियों के कारण ही अभिभावक अंग्रेजी के पीछे दौड़ रहे हैं।
समस्या अभिभावकों की नहीं है, समस्या गलत व्यवस्था की है। आखिर इसका समाधान क्या है? हर स्तर पर भारतीय भाषाओं का विकल्प होना चाहिए,चाहे वह प्रबंधन की पढ़ाई हो या चिकित्सा की अथवा तकनीक की। सरकार को भाषा को व्यवसाय से जोड़ना होगा। हर राज्य सरकार एलान कर सकती है कि सभी निजी उद्योग सरकार से संवाद केवल उस प्रदेश की भाषा में करें। इससे भाषा की मांग बढ़ेगी। निजी उद्योग भारतीय भाषाओं में समान अवसर प्रदान करें, इसे भी नीतिगत रूप से लागू किया जा सकता है। कुछ समय के लिए भारतीय भाषा के माध्यम में पढ़े लोगों को सरकारी नौकरी में कुछ प्रतिशत आरक्षण भी दिया जा सकता है। यह भी आवश्यक है कि भारतीय भाषाओं को तकनीक के साथ जोड़ा जाए। आज जब कोई बच्चा स्कूल में कंप्यूटर सीखता है तो केवल अंग्रेजी में। वह भारतीय भाषाओं में टाइप करना तक नहीं जानता। अपनी भाषा में तकनीक की जानकारी से सृजन शक्ति बढ़ेगी, नए-नए आविष्कार होंगे।
भाषा को केवल पुरातन संस्कृति या साहित्य ही नहीं, आधुनिकता का भी वाहक बनाना अनिवार्य है। अंग्रेजी सीखने में कोई आपत्ति नहीं है। सरकार अपने स्कूलों में भाषा के रूप में अंग्रेजी सिखाए। समस्या तब आती है जब अंग्रेजी को माध्यम बना दिया जाता है। जब बच्चे को भाषा ही नहीं आती तो वह उस भाषा में कोई अन्य विषय कैसे सीखेगा? क्या सरकार ने इस पर वैज्ञानिक रूप से कोई शोध किया है? सरकारें आठवीं कक्षा में अंग्रेजी माध्यम सरकारी स्कूलों को हिंदी माध्यम के सरकारी स्कूलों से माप लें। किन स्कूलों के बच्चे गणित को ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं?
मैंने अनेक वर्षों तक कई देशों में कंप्यूटर के क्षेत्र में सक्रियता से काम किया है। आज इजरायल कंप्यूटर में बहुत आगे है। वहां पर तकनीक की पढ़ाई हिब्रू भाषा में होती है। मैंने माइक्रोसॉफ्ट में रूस के कंप्यूटर इंजीनियरों को नौकरी दी। उन्हें न के बराबर अंग्रेजी आती थी, लेकिन कंप्यूटर विज्ञान में अंग्रेजी नहीं, बल्कि गणित और तर्क की समझ चाहिए। आज चीन चीनी भाषा में कंप्यूटर विज्ञान की शिक्षा देकर अमेरिका से भी आगे निकल रहा है। गणित और तर्क की इस दुनिया में अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में धकेलकर हम उन्हें पीछे ही रख रहे हैं।यदि भारत सरकार हर राजकीय भाषा में एक-एक आइआइटी और आइआइएम खोल दे तो भारतीय भाषाओं का दर्जा और समाज में उसके प्रति रुचि तत्काल बढ़ जाएगी। कल को अगर उत्तर प्रदेश सरकार एलान कर दे कि निजी उद्योगों के टेंडर केवल हिंदी में ही मान्य होंगे तो अगले दिन ही निजी उद्योगों में हिंदी की मांग बढ़ जाएगी और इसी के साथ सभी की रुचि हिंदी के प्रति बढ़ जाएगी। सबसे बड़ी जनसंख्या वाला प्रांत उत्तर प्रदेश यदि एक देश होता तो आबादी के लिहाज से विश्व का सातवां सबसे बड़ा देश होता। इससे कहीं छोटे-छोटे देश अपनी भाषाओं में सब काम कर रहे हैं। विश्व की वास्तविकता अंग्रेजी नहीं है। विश्व के तमाम बहुराष्ट्रीय उद्योग भी अंग्रेजी पर आधारित नहीं हैं। वैश्वीकरण अंग्रेजीकरण नहीं है। हमने भारतेंदु हरिश्चंद्र की इन पंक्तियों को केवल भावुक ही मान लियानिज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
यह केवल भाव नहीं, एक वैज्ञानिक तथ्य है। यह एक भ्रम समाज में व्याप्त हो गया है कि अंग्रेजी से ही हमारी उन्नति होगी। सरकार का काम इस भ्रम को दूर करना है न कि उसमें शामिल होना, लेकिन उस राष्ट्रवादी सोच की सरकार को क्या कहें जो अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार अपनी जड़ें काटने पर तुली है? सरकार को अंग्रेजी की भेड़- चाल छोड़ एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। (लेखक आइआइटी स्नातक , माइक्रोसॅाफ्ट के पूर्व अधिकारी और भारतीय भाषाओं में विज्ञान  की पुस्तकों के प्रकाशक हैं

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