Monday 19 March 2018

इंटरनेट और पर्यावरण


विकास बनाम पर्यावरण की बहस ने इंटरनेट को भी अपनी चपेट में ले लिया है। पर्यावरण पर बुरा प्रभाव केवल औद्योगिक और यातायात प्रदूषण से ही नहीं पड़ रहा, बल्कि हालिया रपट में इंटरनेट में इस्तेमाल होने वाली अनावश्यक बिजली के कारण कुछ विपरीत असर देखने को मिल रहे हैं। दुनिया भर में बैठे नेट सर्फर्स एक कमांड पर मनचाही सूचना पाना चाहते हैं, लेकिन उस प्रक्रिया में सर्वरों को कितनी अतिरिक्त मशक्कत करनी पड़ती है, इसका खुलासा भी इस रपट में है।
हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध भौतिकीविद् डॉ़ एलेक्स विजनर-ग्रॉस ने कुछ अरसा पहले अपने अध्ययन से निष्कर्ष निकाला था कि गूगल पर दो बार खोज करने से लगभग उतनी ही कार्बन डाई ऑक्साइड पैदा होती है जितनी कि एक कप चाय उबालने में। एक कप चाय उबालने से लगभग 15 ग्राम कार्बन डाई ऑक्साइड पैदा होती है। खबर इतनी सनसनीखेज और चिंताजनक थी कि गूगल को बयान जारी कर इस बारे में स्थिति साफकरनी पड़ी।
अलबत्ता, गूगल को मानना पड़ा कि भले ही उसकी खोज से उतनी ज्यादा कार्बन डाई ऑक्साइड पैदा नहीं होती, मगर होती जरूर है और दुनिया का तापमान बढ़ाने में उसका कुछ न कुछ योगदान तो है ही। उसने डॉ़ विजनर-ग्रॉस के आकलन (7 ग्राम प्रति खोज) की तुलना में इसे 0.2 ग्राम बताया। लेकिन जो बात गूगल ने नहीं कही, वह यह थी कि इतना प्रदूषण सिर्फ उन खोजों से पैदा होता है, जिनके नतीजे बहुत आसानी से मिल जाते हैं। जटिल खोजों (जिनके लिए गूगल की तकनीकी प्रणाली को खासी मेहनत करनी पड़ती है) से पैदा होने वाली कार्बन डाई ऑक्साइड एक ग्राम से लेकर दस ग्राम के बीच कहीं भी हो सकती है।
और सुनिए। जर्मन इंटरनेट कंपनी स्ट्राटो ने 2007 में गूगल के डेटा सेंटरों, सर्वरों और खोज अनुरोधों की गणना कर बताया था कि एक गूगल सर्च पर खर्च होने वाली बिजली से 11 वाट का सीएफएल बल्ब एक घंटे तक जल सकता है! आज जबकि कोई दो अरब लोग इंटरनेट से किसी न किसी रूप में जुड़े हैं, इसके जरिए दुनिया भर में हो रही ऊर्जा की खपत का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। और ऊपर से यह हर साल दस फीसदी की रफ्तार से बढ़ भी रही है! इसका अर्थ यह हुआ कि आप और हम जब एकाध घंटे इंटरनेट का इस्तेमाल करके उठते हैं तब तक हम दुनिया की सबसे चिंताजनक समस्या में थोड़ा और योगदानदे चुके होते हैं। ग्लोबल वार्मिंग की चुनौती को जरा सा और गंभीर बना चुके होते हैं, हालांकि हमें इसका जरा भी अहसास नहीं होता। और इसके लिए किसी एक कंपनी को ही दोष क्यों दिया जाए? यू-ट्यूब के भारी-भरकम वीडियोज से लेकर सैकंड लाइफ के आभासी ऑनलाइन विश्व तक और टेलीजेन्स की तकनीकों से लेकर बड़े पैमाने पर डाउनलोड किए जा रहे संगीत तक, कोई भी तो पीछे नहीं है। जिन वेब आधारित ईमेल सेवाओं का प्रयोग हम करते हैं, जिन इंटरनेट आधारित वीओआईपी आधारित संचार सेवाओं के इस्तेमाल से उत्साहित होते हैं, वे सब हमारी पर्यावरणीय उलझन को बढ़ा रहे हैं- ऊर्जा की खपत, तापमान की गर्मी और हानिकारक गैसों की मात्रा बढ़ाकर। 
क्या आपको यकीन होगा कि विश्व भर के वायुयानों, हेलीकॉप्टरों और उड्डयन उद्योग से जुड़े तमाम अन्य माध्यमों से जितनी कार्बन डाई ऑक्साइड पैदा होती है, वह इंटरनेट के कारण पैदा होने वाली कार्बन डाई ऑक्साइड से कम है! अमेरिकी शोध फर्म गार्टनर के अनुसार 2007 में ही इंटरनेट ने वैश्विक प्रदूषण में दो फीसदी योगदान के साथ हवाई यात्रा उद्योग को पीछे छोड़ दिया था। ऐसा नहीं कि हमें तकनीक का प्रयोग घटा देना चाहिए या कंप्यूटर को बंद कर देना चाहिए। जरूरत है इस बारे में जागरूक होने की। 
हमारे कंप्यूटर और इंटरनेट का अनावश्यक योग या दुरुपयोग न हो, यह सुनिश्चित करना सिर्फ अपना बिजली और इंटरनेट बिल बचाने के लिए ही नहीं बल्कि वैश्विक पर्यावरण के लिहाज से भी जरूरी है।
गूगल क्यों है निशाने पर
दुनिया की सबसे बड़ी इंटरनेट कंपनियों में से एक गूगल पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के लिए खास तौर पर निशाने पर है तो इसकी बड़ी वजह उसके विशालकाय और असंख्य डेटा सेंटर हैं जिनमें बड़ी संख्या में सर्वर दिन-रात दुनिया भर के नेट-सर्फरों की फरमाइशें पूरी करने में मुस्तैदी से लगे हैं। इंटरनेट आधारित बड़ी परियोजनाएं चलाने वाली सभी कंपनियों, वेब होस्टिंग कंपनियों आदि के अपने डेटा सेंटर हैं जिनमें हजारों की संख्या में सर्वर लगे होते हैं। इनके माइक्रोप्रोसेसर बड़ी मात्रा में बिजली की खपत करते हैं और उनसे वातावरण में गर्मी पैदा होती है। इस गर्मी को दबाने के लिए बड़ी संख्या में एअर कंडीशनर इस्तेमाल किए जाते हैं। ये डेटा सेंटरों का भीतरी हिस्सा तो ठंडा रखते हैं, लेकिन बाहर बड़ी मात्रा में गर्म गैसें प्रवाहित करते हैं जो धरती के वातावरण में शामिल हो रही हैं। यूं भी एअर कंडीशनरों में इस्तेमाल की जाने वाली गैसें, जिन्हें ग्रीनहाउस गैसें कहा जाता है, धरती की सुरक्षा करने वाली ओजोन परत को नुकसान पहुंचाती हैं। इनमें लगने वाली बिजली का उत्पादन करने के लिए कोयला, गैस आदि ईंधनों का प्रयोग होता है जो पुन: ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाता है। 
क्या आप यकीन करेंगे कि अकेले अमेरिका के डेटा सेंटरों में सन 2006 में लगभग 61 अरब किलोवाट बिजली खर्च हुई थी। इतनी बिजली से पूरे इंग्लैंड को दो महीने तक रोशन रखा जा सकता है। यह आंकड़ा कैलीफॉर्निया की लारेंस बर्कले नेशनल लैब का है। आज तो हालात 2006 की तुलना में कहीं अधिक विकट हो चुके हैं। यह तो अकेले अमेरिका की बात हुई। पूरी दुनिया के डेटा सेंटर कितनी ऊर्जा पी रहे होंगे? उनके साथ-साथ इन कंपनियों के रिसर्च एंड डेवलपमेंट सेंटर और अब क्लाउड कंप्यूटिंग के सर्वरों को भी जोड़कर देखिए। कहते हैं कि गूगल के अपने मुख्यालय (गूगल कॉम्प्लैक्स) में ही कैलीफोर्निया के 3,333 घरों के बराबर बिजली खर्च होती है।
यूं ग्लोबल वार्मिंग में हमारी हिस्सेदारी उसी समय शुरू हो जाती है जब हम अपना कंप्यूटर ऑन करते हैं। सक्रिय स्थिति में हमारे अपने कंप्यूटर में लगभग 175 वाट बिजली की खपत होती है। उसके बाद हमारे निजी कंप्यूटर नेटवर्क, ब्रॉडबैंड नेटवर्क, विभिन्न देशों के इंटरनेट गेटवे और अंत में संबंधित वेबसाइट के सर्वर तक सब में बिजली की खपत हो रही है। 
मजेदार बात यह है कि हमारे द्वारा की जाने वाली इंटरनेट सर्च से हमारे अपने कंप्यूटर में तो बिजली की खपत में विशेष बढ़ोत्तरी नहीं होती, लेकिन जब वह कमांड हजारों किलोमीटर दूर किसी दूसरे महाद्वीप के डेटा सेंटर में रखे सर्वर पर जाती है तो उसके माइक्रोप्रोसेसर को जवाब देने के लिए मेहनत करनी पड़ती है और इस क्रिया में बिजली की खपत वहां होती है। उसे जितना अधिक श्रम (गणनाएं) करना होगा, बिजली की खपत और उसके परिणामस्वरूप आसपास के वातावरण की गर्मी उतनी ही बढ़ेगी।

डॉ़ विजनर ग्रॉस का आकलन है कि एक सामान्य वेबसाइट को देखने में हम विभिन्न स्तरों पर प्रति सैकंड लगभग बीस मिलीग्राम कार्बन डाई ऑक्साइड को जन्म 
देते हैं। अगर वेबसाइट में वीडियो, संगीत, एनीमेशन आदि हैं तो यही आंकड़ा 300 मिलीग्राम प्रति सैकंड तक हो सकता है। गूगल पर एक खोज पर यदि 11 वाट बिजली खर्च होती है तो कल्पना कीजिए कि रोजाना औसतन 20 करोड़ खोज परिणाम देने वाले गूगल की ऊर्जा संबंधी जरूरतें कितनी अधिक होंगी! गूगल इस बारे में अपने आंकड़े जाहिर नहीं करता, लेकिन उसकी तकनीक ही कुछ ऐसी है कि वह ऊर्जा की खपत बढ़ाती है। गूगल ने अमेरिका, चीन, जापान, यूरोप आदि स्थानों पर डेटा सेंटर बनाए हैं और जब हम किसी कीवर्ड को सर्च करने का प्रयास करते हैं तो उसकी कमांड किसी एक सर्वर को नहीं बल्कि अनेक सर्वरों को भेजी जाती है। तेजी से जवाब देने के लिए उनमें एक किस्म की होड़ चलती है और जिसका जवाब सबसे पहले आता है, गूगल उसी को हमें दिखाता है। जाहिर है, बाकी सभी सर्वरों पर खर्च हुई ऊर्जा की बर्बादी अनावश्यक थी! लेकिन चंद मिलि-सैकंड में सर्च परिणाम देने की क्षमता ही गूगल की सफलता का आधार है, जिसने उसे दुनिया की सफलतम इंटरनेट कंपनी बनाया है। क्या वह पर्यावरण के लिए उसका त्याग करने को तैयार होगा? विकास बनाम पर्यावरण और कारोबार बनाम पर्यावरण की बहस इंटरनेट की दुनिया में भी प्रासंगिक है। कैसी विडंबना है कि जिस गति से इंटरनेट की क्षमता और कनेक्टेडलोगों की संख्या बढ़ रही है, उसी अनुपात से पर्यावरण पर बोझ बढ़ता चला जाता है।

आएगा हरित इंटरनेट?
ऐसा नहीं कि सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों को इस समस्या का अहसास नहीं। गूगल ने कहा है कि वह कार्बन न्यूट्रलबनने के लिए प्रतिबद्ध है। कार्बन न्यूट्रल यानी न्यूनतम कार्बन डाई ऑक्साइड पैदा करने वाली कंपनियां जो इस उत्सर्जन से हुए नुकसान की भरपाई पर्यावरण-अनुकूल परियोजनाओं के माध्यम से करती हैं। उसने इंटेल के साथ मिलकर अपने हरितडेटा सेंटरों के विकास की परियोजना शुरू की है। आईबीएम ने सन 2007 में प्रोजेक्ट बिग ग्रीन के नाम से डेटा सेंटरों और सर्वरों में बिजली की खपत सीमित करने संबंधी परियोजना पर अमल शुरू किया था जिसमें मोड्यूर डेटा सेंटरों का योग किया जाता है। उसका दावा है कि इससे उनमें ऊर्जा का खर्च आधा हो जाएगा। केंब्रिज में माइक्रोसॉफ्ट की शोध प्रयोगशाला में अधिक बिजली फूंकने वाले कंप्यूटरों को पुराने जमाने के कंप्यूटरों से बदला जा रहा है जो अपेक्षाकृत कम बिजली खर्च करते थे। हैवलेट पैकर्ड (एचपी) के वैज्ञानिकों और तकनीशियनों ने एक दिलचस्प प्रस्ताव किया है कि वे डेटा सेंटरों को ऊर्जा सप्लाई करने के लिए गायों के गोबर से बनी हरितबिजली का प्रयोग करेंगे। उनके अनुसार दस हजार गायों के गोबर से उत्पन्न मीथेन गैस से इतनी बिजली बनाई जा सकती है जो एक मेगावाट के डेटा सेंटर को चला सके। नेटवर्किंग कंपनी सिस्को ने भी पर्यावरण अनुकूल डेटा सेंटरों के निर्माण की पहल की है। इंटरनेट को दीर्घायु बनाने के लिए प्रकृति के साथ उसका तालमेल जरूरी है। इस प्रयास में इंटरनेट कनेक्शन के इस सिरे से उस सिरे तक मौजूद हर व्यक्ति को हाथ बंटाना होगा।


ग्लोबल वार्मिंग में आपका हाथ?
सामान्य कंप्यूटर उपयोक्ताओं को भले ही इस बात का अहसास न हो, किंतु वे ग्लोबल वार्मिंग की समस्या में कुछ न कुछ योगदान दे रहे हैं। कैसे
- सामान्य वेबसाइट को सर्फ करने में प्रति सैकंड लगभग 20 मिलीग्राम कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। जटिल वेबसाइटों (वीडियो, एनीमेशन, एप्लीकेशंस आदि) में यह प्रति सैकंड 300 मिलीग्राम तक पहुंच जाता है।
- गूगल पर की जाने वाली जटिल सर्च (डॉ़ एलेक्स विजनर-ग्रॉस के अनुसार) लगभग सात ग्राम कार्बन डाई ऑक्साइड पैदा करती है। इस क्रिया में लगभग 11 वाट घंटे बिजली खर्च होती है।
- आपका सुस्त पड़ा कंप्यूटर (चालू स्थिति में) प्रति घंटे 40 से 80 ग्राम तक कार्बन डाई ऑक्साइड पैदा करता है। 
- ‘बिग स्विचके लेखक निकोलस कार के अनुसार सैकंड लाइफजैसी वर्चुअल रियलिटी गेम वेबसाइट में आपका अवतार (ग्राफिक प्रतिरूप) मौजूद है तो उससे सालाना लगभग 1752 किलोवाट घंटे बिजली खर्च हो रही है।
- ऑन स्थिति में आपका कंप्यूटर लगभग 175 वाट बिजली खर्च करता है। 
- ऑन किंतु निष्क्रिय स्थिति में आपके कंप्यूटर में 60 से 250 वाट बिजली तक जलती है, और वह भी तब जब मॉनीटर का स्विच बंद हो।



1 comment:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन विश्व गौरैया दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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