चंद्रभूषण
एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्वतंत्र संख्या के रूप में शून्य की खोज भारत में ही हुई है, इस बात को लेकर पूरी दुनिया में आम सहमति है। लेकिन यह ठीक-ठीक कब हुई, इसका खोजी कौन था, इसे लेकर आज भी बहस खत्म नहीं हुई है। इस सिलसिले में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की एक लाइब्रेरी में रखी पेशावर के पास के एक गांव बख्शाली में मिली एक बौद्ध पांडुलिपि की हाल में हुई कार्बन डेटिंग से एक अद्भुत जानकारी प्राप्त हुई है।बख्शाली पांडुलिपि दरअसल बौद्ध भिक्षुओं के प्रशिक्षण में काम आने वाली भोजपत्र पर लिखी लगभग सत्तर पन्नों की एक किताब है। इसे अब तक नवीं सदी की रचना माना जाता रहा है। इसकी खास बात यह है कि इसमें सैकड़ों जगह बिंदु के रूप में गणितीय शून्य के निशान बने हुए हैं। नवीं सदी में ही ग्वालियर के एक मंदिर में भी एक गोलाकार शून्य का निशान बनाया गया था, जिसकी तस्वीरें गणित के इतिहास से जुड़ी हर लाइब्रेरी में लगी रहती हैं। लिहाजा अभी तक आम धारणा यही थी कि इस निशान का प्रचलन नवीं सदी के आसपास ही हुआ होगा।गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त के यहां शून्य की अवधारणा 628 ईस्वी में आती है, हालांकि इसके लिए उन्होंने कोई चिह्न नहीं निर्धारित किया। इसलिए माना जाता रहा है कि इसके सौ-दो सौ साल बाद बिंदु या गोले की शक्ल में शून्य बनाया जाने लगा होगा। लेकिन इधर बख्शाली पांडुलिपि की कार्बन डेटिंग से दो बातें पता चलीं। एक तो यह कि इसके सारे भोजपत्र एक साथ नहीं लिखे गए हैं और इनकी लिखावट में कई सदियों का फासला है। और दूसरी यह कि इनमें सबसे पुराने भोजपत्र की लिखाई 224 ई. से 383 ई. के बीच की है।बीच वाली 160 साल की अवधि इस मामले में कार्बन डेटिंग का ‘एरर मार्जिन’ है। यानी दावे के साथ सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि यह लिखाई न तो 224 ई. से पहले की है, न ही 383 ई. के बाद की।
इसमें कोई शक नहीं कि दर्शन में शून्यवाद की अवधारणा तीसरी सदी ईसा पूर्व के बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन की दी हुई है। उनके ही ग्रंथ माध्यमक का प्रसिद्ध वाक्य है- ‘शून्य है तो सब कुछ संभव है, शून्य नहीं है तो कुछ भी संभव नहीं है।’ लेकिन इस अवधारणा का गणितीय शून्य से कोई जुड़ाव हो सकता है, इस पर विद्वानों में कभी सहमति नहीं बन सकी।
अभी गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त से कम से कम चार सौ साल पुरानी एक लिखाई में शून्य पा लिए जाने के बाद हम काफी पुख्तगी के साथ यह कह सकते हैं कि केवल दार्शनिक शून्य के ही नहीं, गणितीय शून्य के आविष्कारक भी नागार्जुन ही हैं। खासकर इस बात को ध्यान में रखते हुए कि पेशावर के इर्दगिर्द का इलाका पारंपरिक रूप से महायानियों का था, जो अपना आदिपुरुष नागार्जुन को ही मानते हैं।
No comments:
Post a Comment