सोशल मीडिया और स्मार्ट फोन के एडिक्शन पर रेशू
वर्मा का शानदार लेख
गौर से देखिए, आपके आसपास कोई
बेचैन युवक या युवती जरूर होगी जो अपने स्मार्टफोन पर हर दो मिनट पर फेसबुक चेक कर
रही होगी कि थोड़ी देर पहले की गई उसकी पोस्ट पर कोई नया लाइक या कॉमेंट आया कि
नहीं। फेसबुक से मुक्त हुए तो वॉट्सऐप भी देख लें और वॉट्सऐप के बाद ई-मेल देखना
तो बनता ही है। थोड़ी-थोड़ी देर पर नॉर्मल एसएमएस देख लेना तो खैर आम बात है। हर
पांच मिनट या इससे भी कम में मेसेज देखने की बेचैनी हमारी युवा-पीढ़ी का खास लक्षण
बन गया है। युवा ही नहीं, कई अधेड़ भी ऐसा करते नजर आ सकते हैं।
अपनी एकाग्रता भंग
करके मेसेज देखने का मतलब साफ है। स्मार्टफोन हमारी कुशलता को बेहतर नहीं बना रहे।
वे लोगों को मन लगा कर कोई भी काम करने से रोकने वाली एक बड़ी डिवाइस बन गए हैं।
इससे अटेंशन स्पैन यानी ध्यान देने की अवधि बहुत कम हो गई है। आधा घंटा लगातार एक
ही विषय पर टिककर सोचने, पढ़ने के रास्ते में न जाने कितने मेसेज कितना व्यवधान पैदा करते हैं, अब इस विषय पर
सोचना आवश्यक हो गया है।
लाइफ स्टाइल में
जगह
इंटरनेट का
आविष्कार हुए 50 साल से भी अधिक हो गए हैं, लेकिन हमारी
लाइफस्टाइल का जरूरी हिस्सा बने इसको कुछ ही साल हो रहे हैं। हर किसी के जीवन का
एक अभिन्न अंग यह तब से बना है, जब से मोबाइल इंटरनेट सस्ता हुआ
और फेसबुक, ट्विटर जैसे सोशल मीडिया का आगमन हुआ। अभी एक तरफ सोशल मीडिया के
सकारात्मक पहलू पर किताबें लिखी जा रही हैं, तो दूसरी तरफ इसके
नकारात्मक पहलू परेशान भी कर रहे हैं। साइबर सिकनेस, फेसबुक डिप्रेशन और
इंटरनेट अडिक्शन डिसऑर्डर जैसी मनोवैज्ञानिक बीमारियां सोशल मीडिया की ही देन हैं।
हर वक़्त अपडेट देखना, क्या नया अपलोड करना है, किसने क्या कॉमेंट
किया है, ये ऐसी चीजें हो गई हैं जो हर समय दिमाग में घूमती रहती हैं। इसके
चलते लोगों का काम में ध्यान लगना काफी कम हो गया है।
एक वक्त हम अपना
खाली समय किताब पढ़ने में बिताते थे। सफर में सोचते थे कि कितनी जल्दी कुछ पढ़ लिया
जाए। अभी वही समय अपने मोबाइल फोन पर सोशल मीडिया के मेसेज और स्टेटस अपडेट देखते
निकल जाता है। किसी भी मीडिया से सूचना और ज्ञान हासिल करने में कोई बुराई नहीं, लेकिन वह अगर हमारा
अटेंशन स्पैन कम कर रहा हो, एकाग्रता भंग करने का स्थायी स्त्रोत ही बनता जा रहा हो तो सोचना
बनता है।
आप किसी भी क्षेत्र
में हों, काम तो एक एकाग्रता की मांग करता ही है। इसके बिना आप अपने काम में
अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकते। घड़ी-घड़ी मोबाइल निकाल कर देखना, बेमतलब मेसेज बॉक्स
में झांकना एक बीमारी है। समस्या यह है कि अन्य मनोवैज्ञानिक बीमारियों की तरह
सोशल मीडिया से होने वाली बीमारियों से ग्रस्त लोग भी यह मानने को तैयार नहीं होते
कि वे बीमार हैं। हकीकत यह है कि अगर शुरुआती लक्षणों पर ध्यान न दिया गया तो ये
बीमारियां काफी गंभीर रूप ले सकती हैं।
भारत में ऐसी
बीमारियों के बारे में ज्यादा जागरूकता नहीं है, लेकिन अमेरिका जैसे
देशों में एक बड़ी आबादी मोटी फीस देकर इनका इलाज करवा रही है। वहां इसके लिए दवाएं
और चिकित्सीय सहायता मौजूद है। इस समस्या को जितनी जल्दी समझ लिया जाए, इलाज उतना ही आसान
हो जाता है। एकाग्रता में कमी कोई छोटी बात नहीं। आगे चलकर यही बड़ी मानसिक और अन्य
बीमारियों को जन्म देती है। आभासी दुनिया कितनी भी काम की हो, लेकिन जब वह खुद के
लिए नुकसानदेह साबित होने लगे तो उससे एक दूरी बना लेने में ही अक्लमंदी है। अभी
तो हम ऑफिस में अपने काम के बीच भी मोबाइल देखते रहते हैं। क्लास में टीचर की
नजरें बचाकर सोशल मीडिया के भी एक-दो चक्कर मार ही लेते हैं। जब हमारा दिमाग कई
जगह बंटा होता है, तो वह किसी भी जगह अपना सौ फीसदी नहीं दे सकता। जाहिर है, यह समस्या बेहतर
उत्पादकता की राह में रोड़े अटकाती है।
सोशल नेटवर्क उपवास
पहले तो सोशल
मीडिया तक पहुंच सिर्फ लैपटॉप और डेस्कटॉप कंप्यूटर द्वारा ही संभव थी। अभी
स्मार्टफोन ने सोशल मीडिया तक पहुंच को ऑल टाइम ईजी बना दिया है। इसके चलते
टेलिकॉम कंपनियों का कारोबार बहुत तेजी से बढ़ा है। देश की सबसे बड़ी टेलिकॉम
कंपनी भारती एयरटेल का शेयर पिछले एक साल में करीब 36 फीसदी ऊपर गया है।
इन कंपनियों के लगातार उछलते मुनाफे का एक बड़ा हिस्सा सोशल नेटवर्किंग साइटों पर
युवाओं की बेचैन और लगातार उपस्थिति से आता है। कंपनियां मुनाफा कमाएं, इसमें कोई हर्ज
नहीं है। हर्ज तब है, जब एकाग्रता में कमी युवाओं का परफॉर्मेंस खराब करने लगे। तो अब
सोचने की जरूरत है कि क्या हफ्ते में एक या दो दिन सोशल नेटवर्क उपवास की एक नई
परंपरा शुरू की जाए? यानी इन दिनों में फेसबुक, ट्विटर या वॉट्सऐप
पर न जाने का प्रण लिया जाए, और उस पर कायम भी रहा जाए!
( साभार –NBT)
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