Monday 9 February 2015

आइवीएफ पर विवाद

ब्रिटेन में विवादास्पद आइवीएफ तकनीक को मंजूरी
इस तकनीक का मकसद बचपन की आनुवंशिक बीमारियों से छुटकारा दिलाना है, लेकिन भविष्य में इसका दुरुपयोग भी हो सकता है .
ब्रिटेन में हाउस ऑफ कॉमंस ने भारी मतों से विवादास्पद आइवीएफ यानी परखनली तकनीक को मंजूरी दे दी है जिससे तीन लोगों के डीएनए से भ्रूण उत्पन्न पैदा किए जा सकेंगे। नई आइवीएफ तकनीक से पहला आइवीएफ शिशु अगले वर्ष जन्म ले सकता है। दुनिया में दूसरे देशों के विशेषज्ञों ने विवादास्पद तकनीक को मंजूरी दिए जाने पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। उनका कहना है कि ब्रिटेन मानव निषेचन और भ्रूण विज्ञान कानून में संशोधन करके बहुत बड़ी गलती करेगा। इस बारे में 44 ब्रिटिश सांसदों का मानना है कि इस तकनीक से यूरोपीय कानूनों का उल्लंघन होता है। कई लोगों ने इस तकनीक की नैतिकता पर सवाल उठाए हैं। इस तकनीक के कुछ अन्य आलोचकों का कहना है कि इससे बच्चों में अज्ञात स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का खतरा बढ़ जाएगा। ब्रिटिश हाउस ऑफ लॉर्डस में अगले महीने इस मुद्दे पर चर्चा होगी और वहां संशोधन के ठुकराए जाने की संभावना बहुत कम है। नया कानून इसी साल अक्टूबर में लागू हो जाएगा। इसके तुरंत बाद मानव परीक्षण शुरू हो जाएंगे। इस तकनीक के पक्षधरों का कहना है कि नए इलाज से ब्रिटेन में 2,500 महिलाओं को लाभ होगा।
इस तकनीक का असली मकसद बचपन की आनुवंशिक बीमारियों से छुटकारा दिलाना है, लेकिन भविष्य में मनचाहे गुणों वाली संतान अथवा डिजाइनर बेबी पैदा करने के लिए इस तकनीक का दुरुपयोग भी हो सकता है। यह तकनीक दरअसल जर्मलाइन जीन थिरैपी का एक रूप है जिसमें एक परिवार में होने वाली संतानों को वंशानुगत बीमारियों से निजात दिलाने के लिए उनके डीएनए को बदल दिया जाता है। हमारी कोशिकाओं में पाए जाने वाले माइटोकांडिया में आनुवंशिक गड़बड़ियों से करीब 6,500 लोगों में से एक व्यक्ति प्रभावित होता है। माइटोकांडिया के विकारों का इस समय कोई इलाज नहीं है। इन्हें मां से शिशुओं में फैलने से रोकने का भी कोई तरीका नहीं है। माइटोकांडिया दरअसल हमारी कोशिका का सूक्ष्म बिजलीघर है। माइटोकांडिया में 37 जीन होते है। ये जीन हमारी कोशिकाओं की ऊर्जा आपूर्ति के लिए जरूरी होते हैं। हमारे डीएनए का एक बहुत बड़ा हिस्सा कोशिका के नाभिक में होता है। हमारे शरीर को रूप और आकार देने वाले जीन इसी डीएनए में होते हैं। ब्रिटेन की न्यूकैसल यूनिवर्सिटी के रिसर्चरों द्वारा विकसित इस तकनीक को माइटोकांडियल ट्रांसफर भी कहा जाता है। इस विधि में एक स्वस्थ महिला डोनर के डीएनए का इस्तेमाल किया जाता है। इसका उद्देश्य माताओं द्वारा बच्चों में आनुवंशिक बीमारियों के प्रसार को रोकना है। इन बीमारियों में मस्कुलर डिस्ट्रोफी यानी मांसपेशियों का क्षय तथा हृदय और लीवर की बीमारियां शामिल हैं। ज्यादातर बच्चों में यह बीमारी हलके रूप में प्रकट होती है लेकिन साल में जन्म लेने वाले पांच से दस बच्चे माइटोकांडिया रोग के उग्र रूप से प्रभावित होते हैं। नई तकनीक से ऐसे बच्चों का जीवन सुधारा जा सकता है। इस विधि में आनुवंशिक विकारों वाली महिला की अंडाणु कोशिका की आनुवंशिक सामग्री को एक स्वस्थ महिला के अंडाणु में हस्तांतरित कर दिया जाता है ताकि उसके माइटोकांडिया का डीएनए आइवीएफ शिशु में पहुंच सके। इसका अर्थ यह हुआ कि शिशु को तीन अभिभावकों यानी माता-पिता और डोनर महिला से से डीएनए मिलेगा, लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि शिशु को डोनर से सिर्फ 0.1 फीसद डीएनए ही मिलेगा।
कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि अभी माइटोकांडिया को हम ठीक से समझ नहीं पाए हैं। उसके डीएनए से व्यक्ति के गुणों पर असर पड़ सकता है। इसलिए नई तकनीक को मंजूरी देने से पहले माइटोकांडिया को ठीक से समझना जरूरी है। इस तकनीक से जन्म लेने वाली लड़कियों की भावी संतानें आगे की पीढ़ियों में भी माइटोकांडिया के परिवर्तनों को जारी रखेंगी।


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