Wednesday 4 February 2015

बढ़ता प्रदूषण और घटती पैदावार

शशांक द्विवेदी 
प्रकाशन विभाग भारत सरकार की प्रमुख पत्रिका "योजना" के जनवरी अंक में प्रकाशित शशांक द्विवेदी का लेख 
 अंग्रेजी भाषा में स्वच्छता को सैनिटेशन कहते है जबकि हिंदी भाषा में स्वच्छता का अर्थ बहुत व्यापक संदर्भो में है यहाँ स्वच्छता का मतलब भूमि ,वायु और जल तीनों से है । स्वच्छ वातावरण के लिए भूमि ,वायु और जल तीनों स्वच्छ होने चाहिए । लेकिन दुर्भाग्यवश भारत में ये तीनों ही प्रदूषण का शिकार हो रहें है जिसका सीधा असर हम सब पर पड़ रहा है । 
 हाल में ही पर्यावरण और वायु प्रदूषण का भारतीय कृषि पर प्रभाव शीर्षक से प्रोसिडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में प्रकाशित एक शोध पत्र के नतीजों ने  सरकार ,कृषि विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों की चिंता बढ़ा दी है । शोध के अनुसार भारत के अनाज उत्पादन में वायु प्रदूषण का सीधा और नकारात्मक असर देखने को मिल रहा है। देश  में धुएं में बढ़ोतरी की वजह से अनाज के लक्षित उत्पादन में कमी देखी जा रही है। करीब 30 सालों के आंकड़े का विश्लेषण करते हुए वैज्ञानिकों ने एक ऐसा सांख्यिकीय मॉडल विकसित किया जिससे यह अंदाजा मिलता है कि घनी आबादी वाले राज्यों में वर्ष 2010 के मुकाबले वायु प्रदूषण की वजह से गेहूं की पैदावार 50 फीसदी से कम रही। खाद्य उत्पादन में करीब 90 फीसदी की कमी धुएं की वजह से देखी गई जो कोयला और दूसरे प्रदूषक  तत्वों की वजह से हुआ।भूमंडलीय तापमान वृद्धि और वर्षा के स्तर की भी 10 फीसदी बदलाव में अहम भूमिका है। कैलिफॉर्निया विश्वविद्यालय में वैज्ञानिक और शोध की लेखिका जेनिफर बर्नी के अनुसार ये आंकड़े चैंकाने वाले हैं हालांकि इसमें बदलाव संभव है। वह कहती हैं, हमें उम्मीद है कि हमारे शोध से वायु प्रदूषण को कम करने के संभावित फायदों के लिए कोशिश की जाएगी। असल में जब भी सरकार वायु प्रदूषण या इसकी लागत पर कोई चर्चा करती है और इसे रोकने के लिए नए कानून बनाने की बात करती है तब कृषि क्षेत्र पर विचार नहीं किया जाता है। 
पिछले दिनों  संयुक्त राष्ट्र में जलवायु परिवर्तन के लिए बने अंतर सरकारी पैनल(आइपीसीसी)  रिपोर्ट में भी इसी तरह की चेतावनी दी गई थी । ‘जलवायु परिवर्तन 2014- प्रभाव, अनुकूलन और जोखिम’ शीर्षक से जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पहले से ही सभी महाद्वीपों और महासागरों में विस्तृत रूप ले चुका है। रिपोर्ट के अनुसार जलवायु गड़बड़ी के कारण एशिया को बाढ़, गर्मी के कारण मृत्यु, सूखा तथा पानी से संबंधित खाद्य की कमी का सामना करना पड़ सकता है। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले भारत जैसे देश जो केवल मानसून पर ही निर्भर हैं, के लिए यह काफी खतरनाक हो सकता है। जलवायु परिवर्तन की वजह से दक्षिण एशिया में गेहूं की पैदावार पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। वैश्विक खाद्य उत्पादन धीरे-धीरे घट रहा है। एशिया में तटीय और शहरी इलाकों में बाढ़ की वृद्धि से बुनियादी ढांचे, आजीविका और बस्तियों को काफी नुकसान हो सकता है। ऐसे में मुंबई, कोलकाता, ढाका जैसे शहरों पर खतरे की संभावना बढ़ सकती है।

इस रिपोर्ट के आने के बाद अब यह स्पष्ट है कि कोयला और उच्च कार्बन उत्सर्जन से भारत के विकास और अर्थव्यवस्था पर धीरे-धीरे खराब प्रभाव पड़ेगा और देश में जीवन स्तर सुधारने में प्राप्त उपलब्धियां नकार दी जाएंगी। वैश्विक उदारीकरण के बाद अगर किसी क्षेत्र को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है तो वह खेती ही है। दुनिया में सबसे तेज गति के साथ उभर रही अर्थव्यवस्थाओं में भारत का दूसरा स्थान है। इसके बावजूद कृषि क्षेत्र की विकास दर महज 2012 -2013 में 1.8 फीसद पर सिमट गई है (देखें बाक्स एक में ) । यहाँ तक की राष्ट्रीय आय में कृषि की हिस्सेदारी भी साल दर साल घटती चली जा रही है. (देखें चित्र बाक्स दो में ) 
  
हाल ही में महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में करीब 12 लाख हेक्टेयर में हुई ओला वृष्टि से गेहूं, कॉटन, ज्वार, प्याज जैसी फसल खराब हो गई थी। ये घटनाएं भी आइपीसीसी की अनियमित वर्षा पैटर्न को लेकर की गई भविष्यवाणी की तरफ ही इशारा कर रही हैं। जलवायु परिवर्तन आदमी की सुरक्षा के लिए खतरा है क्योंकि इससे खराब हुए भोजन-पानी का खतरा बढ़ जाता है जिससे अप्रत्यक्ष रूप से विस्थापन और हिंसक संघर्ष का जोखिम बढ़ता है। आइपीसीसी ने इससे पहले भी समग्र वर्षा में कमी तथा चरम मौसम की घटनाओं में वृद्धि की भविष्यवाणी की थी। इस रिपोर्ट में भी गेहूं के ऊपर खराब प्रभाव पड़ने की भविष्यवाणी की गई है।
इसलिए भारत सरकार को इस समस्या से उबरने के लिए सकारात्मक कदम उठाने होंगे। तेल रिसाव और कोयला आधारित पावर प्लांट, सामूहिक विनाश के हथियार हैं। इनसे खतरनाक कार्बन उत्सर्जन का खतरा होता है। हमारी शांति और सुरक्षा के लिए हमें इन्हें हटाकर अक्षय ऊर्जा की तरफ कदम बढ़ाना, अब हमारी जरूरत और मजबूरी दोनों बन गया है। सरकार को तुरंत ही इस पर कार्रवाई करते हुए स्वच्छ ऊर्जा संक्रमण से जुड़ी योजनाओं को लाना चाहिए। 
देश में हर जगह, हर तरफ, हर सरकार ,हर पार्टी विकास की बातें करती है लेकिन ऐसे विकास का क्या फायदा जो लगातार विनाश को आमंत्रित करता है। ऐसे विकास को क्या कहें जिसकी वजह से संपूर्ण मानवता का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया हो। पिछले दिनों पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने जलवायु परिवर्तन पर इंडियन नेटवर्क फॉर क्लाइमेट चेंज असेसमेंट की रिपोर्ट जारी करते हुए चेताया है कि यदि पृथ्वी के औसत तापमान का बढ़ना इसी प्रकार जारी रहा तो अगामी वर्षों में भारत को इसके दुष्परिणाम झेलने होंगे।इसका सीधा असर देश की कृषि व्यवस्था पर भी पड़ेगा ।
जिस तरह मौसम परिवर्तन दुनिया में भोजन पैदावार और आर्थिक समृद्धि को प्रभावित कर रहा है, आने वाले समय में जिंदा रहने के लिए जरूरी चीजें इतनी महंगी हो जाएंगी कि उससे देशों के बीच युद्ध जैसे हालात पैदा हो जाएंगे । यह खतरा उन देशों में ज्यादा होगा जहां कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है। पर्यावरण का सवाल जब तक तापमान में बढ़ोतरी से मानवता के भविष्य पर आने वाले खतरों तक सीमित रहा, तब तक विकासशील देशों का इसकी ओर उतना ध्यान नहीं गया। परन्तु अब जलवायु चक्र का खतरा खाद्यान्न उत्पादन को प्रभावित कर रहा है, किसान यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि कब बुवाई करें और कब फसल काटें । तापमान में बढ़ोतरी जारी रही तो खाद्य उत्पादन 40 प्रतिशत तक घट जाएगा, इससे पूरे विश्व में खाद्यान्नों की भारी कमी हो जाएगी। ऐसी स्थिति विश्व युद्ध से कम खतरनाक नहीं होगी। 
मौसम का बिगड़ा मिजाज 
दुनिया भर में मौसम का मिजाज बिगड़ा हुआ है।  औद्योगिक क्रांति के दुष्परिणामस्वरूप दुनिया भर के लोग प्रकति का कहर झेलने को मजबूर हैं। 22 साल पहले 1992 में यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन अन क्लाइमेट चेंज बना था। तभी से जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपायों पर चर्चा शुरू हुई, लेकिन अब तक हम इन खतरों से निपटने के लिए कोई ठोस रणनीति पर क्रियान्वयन शुरू नहीं हो पाया है। जो भी निर्णय हुए, केवल सैद्धांतिक स्तर पर ही टिके हैं। उनका जमीनी धरातल पर उतरना बाकी है। अनुसंधानकत्र्ताओं ने आगाह किया है कि वायु में बढ़ती कार्बन डाईअक्साइड तथा परमाणु विस्फोटों से होने वाले विकिरण के उच्चतम तापक्रम की रोकथाम की व्यवस्था शीघ्रातिशीघ्र होनी चाहिए अन्यथा विनाश तय है। 

नेचर क्लाइमेट चेंज एंड अर्थ सिस्टम साइंस डाटा जर्नल में प्रकाशित  एक रिपोर्ट के अनुसार इस साल के दौरान चीन, अमेरिका और यूरोपीय संघ के वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में क्रम से 28 ,16 और 11 फीसद की हिस्सेदारी है जबकि भारत का आंकड़ा सात फीसद है। इसमें बताया गया है कि प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के मामले में भारत की हिस्सेदारी 1.8 टन है जबकि अमेरिका, यूरोपीय संघ और चीन की प्रति व्यक्ति हिस्सेदारी क्रम से 17.2 टन, 7.3 और 6.6 टन है।यह रिपोर्ट ब्रिटेन के ईस्ट एंजलिया विश्वविद्यालय के ग्लोबल कार्बन परियोजना द्वारा किये गये एक अध्ययन पर आधारित है । पिछले कई सालों से क्योटो प्रोटोकॉल की धज्जियां उड़ाई गई हैं। कार्बन उत्सर्जन पर काबू पाने  के लिए विकसित और विकासशील देशों के बीच अभी तक सहमति नहीं बन पाई है । विकसित देश अपनी जिम्मेदारी विकासशील देशों पर थोपना चाहते हैं। जबकि कार्बन उत्सर्जन के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार वही है ।
ज्याफिजिकल रिसर्च लेटर्स नामक शोध- पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार धरती का तापमान लगातार बढ़ने के कारण ही अंटार्कटिका और ग्रीनलैंड के बाद विश्व में बर्फ के तीसरे सबसे बड़े भंडार माने जाने वाले कनाडा के ग्लेशियरों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। अगर यही हाल रहा तो इन ग्लेशियरों के पिघलने से दुनिया भर के समुद्रों का जलस्तर बढ़ जाएगा। हिमालय ग्लेशियर बहुत तेजी से पिघल रहे हैं और 2035 तक सभी ग्लेशियर पिघल जायेंगे । 1950 के बाद से हिमालय के करीब 2000 ग्लेशियर पिघल चुके हैं । परन्तु इस अत्यन्त गंभीर मुद्दे पर दुनिया बहुत कम चिंतित दिख रही है । 
पलायन की बडी वजह 
जलवायु परिवर्तन पलायन की बडी वजह भी बनने जा रहा है । इंटरनेशनल आॅंर्गनाइजेशन फाॅर माइग्रेशन ने अनुमान लगाया है कि 2050 तक तकरीबन 20 करोड लोगों का पलायन जलवायु परिवर्तन की वजह से होगा । वहीं कुछ और संगठनों का मानना है कि 2050 तक यह संख्या 70 करोड तक हो सकती हे क्योंकि 2050 तक दुनिया की आबादी बढकर 9 अरब तक पहुॅच जाने का अनुमान है । इसका मतलब यह है कि उस समय तक दुनिया की कुल आबादी में से आठ फीसदी लोग प्रदूषण की वजह से पलायन की मार झेल रहे होंगे । 
दुनिया पूंजीवाद के पीछे भाग रही है। उसे तथाकथित विकास के अलावा कुछ और दिख ही नहीं रहा है। वास्तव में जिसे विकास समझ जा रहा है वह विकास है ही नहीं। क्या सिर्फ औद्योगिक उत्पादन में बढ़ोतरी कर देने को विकास माना जा सकता है? जबकि एक बड़ी आबादी को अपनी जिंदगी बीमारी और पलायन में गुजारनी पड़े। वायु प्रदुषण और कृषि के इस शोध पत्र के नतीजों को सरकार और समाज के स्तर पर गंभीरता से लेना होगा नहीं तो इसके नतीजे आगे चलकर और भी ज्यादा खतरनाक होंगे ।  अभी भी समय है कि हम सब चेत जाएँ  और पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान दें नहीं तो विनाश निश्चित है ।
रहने के लायक नहीं है शहर 
पिछले दिनों विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार  देश की राजधानी दिल्ली का वातावरण बेहद जहरीला हो गया है । इसकी गिनती विश्व के सबसे अधिक प्रदूषित शहर के रूप में होने लगी है। यदि वायु प्रदूषण रोकने के लिए शीघ्र कदम नहीं उठाए गए तो इसके गंभीर परिणाम सामने आएंगे। डब्ल्यूएचओ ने वायु प्रदूषण को लेकर 91 देशों के 1600 शहरों पर डाटा आधारित अध्ययन रिपोर्ट जारी की है। इसमें दिल्ली की हवा में पीएम 25 (2.5 माइक्रोन छोटे पार्टिकुलेट मैटर) में सबसे ज्यादा पाया गया है। पीएम 25 की सघनता 153 माइक्रोग्राम तथा पीएम 10 की सघनता 286 माइक्रोग्राम तक पहुंच गया है। जो कि स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक है। वहीं बीजिंग में पीएम 25 की सघनता 56 तथा पीएम 10 की 121 माइक्रोग्राम है। जबकि कुछ वर्षो पहले तक बीजिंग की गिनती दुनिया के सबसे प्रदूषित शहर के रूप में होती थी, लेकिन चीन की सरकार ने इस समस्या को दूर करने के लिए कई प्रभावी कदम उठाए। जिसके सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं। डब्ल्यूएचओ के इस अध्ययन में 2008 से 2013 तक के आंकड़े लिए गए हैं। जिसमें वर्ष 2011 व 2012 के आंकड़ों पर विशेष ध्यान दिया गया है। एक अध्ययन के मुताबिक वायु प्रदूषण भारत में मौत का पांचवां बड़ा कारण है। हवा में मौजूद पीएम25 और पीएम10 जैसे छोटे कण मनुष्य के फेफड़े में पहुंच जाते हैं। जिससे सांस व हृदय संबंधित बीमारी होने का खतरा बढ़ जाता है। इससे फेफड़ा का कैंसर भी हो सकता है। दिल्ली में वायु प्रदूषण बढ़ने का मुख्य कारण वाहनों की बढ़ती संख्या है। इसके साथ ही थर्मल पावर स्टेशन, पड़ोसी राज्यों में स्थित ईंट भट्ठा आदि से भी दिल्ली में प्रदूषण बढ़ रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का नया अध्ययन यह बताता है कि हम वायु प्रदूषण की समस्या को दूर करने को लेकर कितने लापरवाह हैं और यह समस्या कितनी विकट होती जा रही है। खास बात यह है कि ये समस्या सिर्फ दिल्ली में ही नहीं है बल्कि देश के लगभग सभी शहरों की हो गई है ।अगर हालात नहीं सुधरे तो वो दिन दूर नहीं जब शहर रहने के लायक नहीं रहेंगे । जो लोग विकास ,तरक्की और रोजगार की वजह से गाँव से शहरों की तरफ आ गयें है उन्हें फिर से गावों की तरफ रुख करना पड़ेगा ।
स्वच्छ वायु सभी मनुष्यों, जीवों एवं वनस्पतियों के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसके महत्त्व का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि मनुष्य भोजन के बिना हफ्तों तक जल के बिना कुछ दिनों तक ही जीवित रह सकता है, किन्तु वायु के बिना उसका जीवित रहना असम्भव है। मनुष्य दिन भर में जो कुछ लेता है उसका 80 प्रतिशत भाग वायु है। प्रतिदिन मनुष्य 22000 बार सांस लेता है। इस प्रकार प्रत्येक दिन में वह 16 किलोग्राम या 35 गैलन वायु ग्रहण करता है। वायु विभिन्नगैसों का मिश्रण है जिसमें नाइट्रोजन की मात्रा सर्वाधिक 78 प्रतिशत होती है जबकि 21 प्रतिशत ऑक्सीजन तथा 0.03 प्रतिशत कार्बन डाइ ऑक्साइड पाया जाता है तथा शेष 0.97 प्रतिशत में हाइड्रोजन, हीलियम, आर्गन, निऑन, क्रिप्टन, जेनान, ओजोन तथा जल वाष्प होती है। वायु में विभिन्न गैसों की उपरोक्त मात्रा उसे संतुलित बनाए रखती है। इसमें जरा-सा भी अन्तर आने पर वह असंतुलित हो जाती है और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित होती है। श्वसन के लिए ऑक्सीजन जरूरी है। जब कभी वायु में कार्बन डाई ऑक्साइड, नाइट्रोजन के ऑक्साइडों की वृद्धि हो जाती है, तो यह खतरनाक हो जाती है ।
भारत को विश्व में सातवें सबसे अधिक पर्यावरण की दृष्टि से खतरनाक देश के रूप में स्थान दिया गया है । वायु शुद्धता का स्तर भारत के मेट्रो शहरों में पिछले 20 वर्षों में बहुत ही खराब रहा है आर्थिक स्तिथि ढाई गुना और औद्योगिक प्रदूषण चार गुना और बढा है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार हर साल लाखों लोग खतरनाक प्रदूषण के कारण मर जाते हैं। वास्तविकता तो यह है कि पिछले 18 वर्ष में जैविक ईधन के जलने की वजह से कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन 40 प्रतिशत तक बढ़ चुका है और पृथ्वी का तापमान 0.7 डिग्री सैल्शियस तक बढ़ा है। अगर यही स्थिति रही तो सन् 2030 तक पृथ्वी के वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा 90 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। 
कार्बन उत्सर्जन न रुका तो नहीं बचेगी दुनिया 
दुनिया को खतरनाक जलवायु परिवर्तनों से बचाना है तो जीवाश्म ईंधन के अंधाधुंध इस्तेमाल को जल्द ही रोकना होगा । पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र समर्थित इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने चेतावनी देते हुए कहा कि कार्बन उत्सर्जन न रुका तो नहीं बचेगी दुनिया । आईपीसीसी ने कहा है कि साल 2050 तक दुनिया की ज्यादातर बिजली का उत्पादन लो-कार्बन स्रोतों से करना जरूरी है और ऐसा किया जा सकता है । इसके बाद बगैर कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (सीसीएस) के जीवाश्म ईंधन का 2100 तक पूरी तरह इस्तेमाल बंद कर देना चाहिए । संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की-मून ने कहा, विज्ञान ने अपनी बात रख दी है. इसमें कोई संदेह नहीं है. अब नेताओं को कार्रवाई करनी चाहिए । हमारे पास बहुत समय नहीं है । मून ने कहा, जैसा कि आप अपने बच्चे को बुखार होने पर करते हैं, सबसे पहले हमें तापमान घटाने की जरूरत है. इसके लिए तुरंत और बड़े पैमाने पर कार्रवाई किए जाने की जरूरत है ।
आईपीसीसी रिपोर्ट की खास बातें
ग्लोबल वॉर्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने को जो फैसला 2009 में किया गया था उस पर अमल के लिए उत्सर्जन तुरंत कम करना होगा ।
बिजली उत्पादन को तेजी से कोयले के बजाय नए और अन्य कम कार्बन वाले स्रोतों में बदलना होगा, जिसमें परमाणु ऊर्जा भी शामिल है ।
ऊर्जा क्षेत्र में नवीकरणीय स्रोतों का हिस्सा वर्तमान के 30ः से बढ़ाकर 2050 तक 80ः तक हो जाना चाहिए ।
दीर्घकाल में बगैर सीसीएस के जीवाश्म ईंधन से ऊर्जा उत्पादन को 2100 तक पूरी तरह बंद करना होगा ।
सीसीएस यानी कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज तकनीक से उत्सर्जन सीमित किया जा सकता है पर इसका विकास धीमा है ।
पिछले 13 महीनों के दौरान प्रकाशित आईपीसीसी की तीन रिपोर्टों में जलवायु परिवर्तन की वजहें, प्रभाव और संभावित हल का खाका रखा गया है । इस संकलन में इन तीनों को एक साथ पेश किया गया है कि ताकि 2015 के अंत तक जलवायु परिवर्तन पर पर एक नई वैश्विक संधि करने की कोशिशों में लगे राजनेताओं को जानकारी दी जा सके । हर वर्ष विश्व में पर्यावरण सम्मेलन होते है पर आज तक इनका कोई ठोस निष्कर्ष नही निकला है । जबकि दिलचस्प है कि दुनिया की 15 फीसदी आबादी वाले देश दुनिया के 40 फीसदी प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग कर रहे है। 
पर्यावरण संरक्षण का संकल्प
वास्तव में पर्यावरण संरक्षण ऐसा ही है जैसे अपने जीवन की रक्षा करने का संकल्प। सरकार और समाज के स्तर पर लोगों को पर्यावरण के मुद्दे पर गंभीर होना होगा नहीं तो प्रकृति का कहर झेलने के लिए हमें तैयार रहना होगा।और ये कहर बाढ़ ,सूखा ,खाद्यान में कमी किसी भी रूप में हो सकता है । कृषि और वायु प्रदुषण के इस  शोध के आकलन में यह भी बताया गया है अगर प्रदूषण कम होगा  तो कृषि  उत्पादन भी बेहतर हो सकता है। वैज्ञानिकों ने फसल की पैदावार, उत्सर्जन, वर्षा के ऐतिहासिक आंकड़ों का परीक्षण करने से यह निष्कर्ष निकला है। इस ऐतिहासिक शोध में सामान्य तौर पर इसी बात की पुष्टि की गई है कि खाद्य उत्पादन पर वायु प्रदूषण का गहरा असर पड़ता है। 
भारत सरकार पहले ही कह चुकी है कि वह आगामी वर्षों  में कार्बन उत्सर्जन में 25 प्रतिशत तक की कमी लाने का प्रयास करेगी। देश में कार्बन उत्सर्जन को कम करने की दिशा में एक बड़ा कदम बढ़ाते हुए भारत सरकार ने सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता 20 हजार मेगावाट से बढ़ाकर एक लाख मेगावाट करने का लक्ष्य रखा है। हमें अपनी दिनचर्या में पर्यावरण संरक्षण को शामिल करना होगा। हम अपना योगदान देकर इस पृथ्वी को नष्ट होने से बचा सकते हैं। प्रकृति पर जितना अधिकार हमारा है उतना ही हमारी भावी पीढ़ीयों का भी , जब हम अपने पूर्वजों के लगाये वृक्षों के फल खाते हैं , उनकी संजोई धरोहर का उपभोग करते हैं तो हमारा नैतिक दायित्व है कि हम भविष्य के लिये भी नैसर्गिक संसाधनो को सुरक्षित छोड़ जायें ,कम से कम अपने निहित स्वार्थों हेतु उनका दुरुपयोग तो न करें । अन्यथा भावी पीढ़ी और प्रकृति हमें कभी माफ नहीं करेगी ।  इस लिए आज ही और इसी वक्त संकल्प लें कि पृथ्वी को संरक्षण देने के लिए जो हम कर सकेंगे करेंगे और जो नहीं जानते उन्हें इससे अवगत कराएँगे या फिर अपने परिवेश में इसके विषय में जागरूकता फैलाने के लिए प्रयास करेंगे ।  
वर्तमान परिवेश में आज जरुरत इस बात की है कि हम  भविष्य के लिए ऐसा नया रास्ता चुनें जो संपन्नता के आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय पहलुओं तथा मानव मात्र के कल्याण के बीच संतुलन रख सके। हमें यह हमेशा याद रखना होगा कि पृथ्वी हर आदमी की जरूरत को पूरा कर सकती है लेकिन किसी एक आदमी के लालच को नहीं।

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