साँसों में घुलता जहर
नवभारतटाइम्स (NBT) |
पिछले दिनों विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार देश की राजधानी दिल्ली का वातावरण बेहद जहरीला हो गया है । इसकी गिनती विश्व के सबसे अधिक प्रदूषित शहर के रूप में होने लगी है। यदि वायु प्रदूषण रोकने के लिए शीघ्र कदम नहीं उठाए गए तो इसके गंभीर परिणाम सामने आएंगे। डब्ल्यूएचओ ने वायु प्रदूषण को लेकर 91 देशों के 1600 शहरों पर डाटा आधारित अध्ययन रिपोर्ट जारी की है। इसमें दिल्ली की हवा में पीएम 25 (2.5 माइक्रोन छोटे पार्टिकुलेट मैटर) में सबसे ज्यादा पाया गया है। पीएम 25 की सघनता 153 माइक्रोग्राम तथा पीएम 10 की सघनता 286 माइक्रोग्राम तक पहुंच गया है। जो कि स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक है। वहीं बीजिंग में पीएम 25 की सघनता 56 तथा पीएम 10 की 121 माइक्रोग्राम है। जबकि कुछ वर्षो पहले तक बीजिंग की गिनती दुनिया के सबसे प्रदूषित शहर के रूप में होती थी, लेकिन चीन की सरकार ने इस समस्या को दूर करने के लिए कई प्रभावी कदम उठाए। जिसके सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं। डब्ल्यूएचओ के इस अध्ययन में 2008 से 2013 तक के आंकड़े लिए गए हैं। जिसमें वर्ष 2011 व 2012 के आंकड़ों पर विशेष ध्यान दिया गया है। एक अध्ययन के मुताबिक वायु प्रदूषण भारत में मौत का पांचवां बड़ा कारण है। हवा में मौजूद पीएम25 और पीएम10 जैसे छोटे कण मनुष्य के फेफड़े में पहुंच जाते हैं। जिससे सांस व हृदय संबंधित बीमारी होने का खतरा बढ़ जाता है। इससे फेफड़ा का कैंसर भी हो सकता है। दिल्ली में वायु प्रदूषण बढ़ने का मुख्य कारण वाहनों की बढ़ती संख्या है। इसके साथ ही थर्मल पावर स्टेशन, पड़ोसी राज्यों में स्थित ईंट भट्ठा आदि से भी दिल्ली में प्रदूषण बढ़ रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का नया अध्ययन यह बताता है कि हम वायु प्रदूषण की समस्या को दूर करने को लेकर कितने लापरवाह हैं और यह समस्या कितनी विकट होती जा रही है। खास बात यह है कि ये समस्या सिर्फ दिल्ली में ही नहीं है बल्कि देश के लगभग सभी शहरों की हो गई है .अगर हालात नहीं सुधरे तो वो दिन दूर नहीं जब शहर रहने के लायक नहीं रहेंगे । जो लोग विकास ,तरक्की और रोजगार की वजह से गाँव से शहरों की तरफ आ गयें है उन्हें फिर से गावों की तरफ रुख करना पड़ेगा ।
स्वच्छ वायु सभी मनुष्यों, जीवों एवं वनस्पतियों के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसके महत्त्व का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि मनुष्य भोजन के बिना हफ्तों तक जल के बिना कुछ दिनों तक ही जीवित रह सकता है, किन्तु वायु के बिना उसका जीवित रहना असम्भव है। मनुष्य दिन भर में जो कुछ लेता है उसका 80 प्रतिशत भाग वायु है। प्रतिदिन मनुष्य 22000 बार सांस लेता है। इस प्रकार प्रत्येक दिन में वह 16 किलोग्राम या 35 गैलन वायु ग्रहण करता है। वायु विभिन्नगैसों का मिश्रण है जिसमें नाइट्रोजन की मात्रा सर्वाधिक 78 प्रतिशत होती है जबकि 21 प्रतिशत ऑक्सीजन तथा 0.03 प्रतिशत कार्बन डाइ ऑक्साइड पाया जाता है तथा शेष 0.97 प्रतिशत में हाइड्रोजन, हीलियम, आर्गन, निऑन, क्रिप्टन, जेनान, ओजोन तथा जल वाष्प होती है। वायु में विभिन्न गैसों की उपरोक्त मात्रा उसे संतुलित बनाए रखती है। इसमें जरा-सा भी अन्तर आने पर वह असंतुलित हो जाती है और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित होती है। श्वसन के लिए ऑक्सीजन जरूरी है। जब कभी वायु में कार्बन डाई ऑक्साइड, नाइट्रोजन के ऑक्साइडों की वृद्धि हो जाती है, तो यह खतरनाक हो जाती है ।
भारत को विश्व में सातवें सबसे अधिक पर्यावरण की दृष्टि से खतरनाक देश के रूप में स्थान दिया गया है । वायु शुद्धता का स्तर ,भारत के मेट्रो शहरों में पिछले 20 वर्षों में बहुत ही खराब रहा है आर्थिक स्तिथि ढाई गुना और औद्योगिक प्रदूषण चार गुना और बढा है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार हर साल लाखों लोग खतरनाक प्रदूषण के कारण मर जाते हैं। वास्तविकता तो यह है कि पिछले 18 वर्ष में जैविक ईधन के जलने की वजह से कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन 40 प्रतिशत तक बढ़ चुका है और पृथ्वी का तापमान 0.7 डिग्री सैल्शियस तक बढ़ा है। अगर यही स्थिति रही तो सन् 2030 तक पृथ्वी के वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा 90 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी।
सच बात तो यह है कि पश्चिमी विज्ञान ने हमारे एक धड़े को प्रकृति का दोहन करने और उस पर वर्चस्व स्थापित करने का पाठ पढ़ाने में कामयाबी हासिल की। अंग्र्रेजों के पहले के भारत में प्रकृति के साथ सह अस्तित्व की मान्यता थी जहां कृषि, उत्पादन प्रणाली, यातायात और सामाजिक व धार्मिक कार्यक्रमों की योजना मौसम चक्र के अनुसार बनायी जाती थी। हमारा विज्ञान प्रकृति का सम्मान करता था लेकिन आधुनिक विज्ञान ने कोयले और कच्चे तेलों को उनकी खदानों से निकालने के साथ पुलों और बांधों को बनाने, भूजल के दोहन द्वारा बेमौसमी संकर फसलें उगाने, जीएम फसलों को पैदा करने की जानकारी दी। नए ज्ञान के इस रूप को अपनाने के दो सौ साल के भीतर ही आज हमने बड़े पैमाने पर पर्यावरण असंतुलन को जन्म दे दिया । जिससे अब हमें विकास के ऐसे माडल को अपनाना होगा जो पूरी तरह से सह अस्तित्व के सिध्दांत पर काम करता हो ।
पर्यावरण असंतुलन और विभिन्न प्रकार के प्रदूषण से बचने का का बस एक ही मूल मंत्र है कि विश्व में सह अस्तित्व की संस्कृति का निर्वहन हो । सह अस्तित्व का मतलब प्रकृति के अस्तित्व को सुरक्षित रखते हुए मानव विकास करे । प्रकृति और मानव दोनों का ही अस्तित्व एक दूसरें पर निर्भर है इसलिए प्राकृतिक संसाधनों का क्षय न हो ऐसा संकल्प और ऐसी ही व्यवस्था की जरुरत है । अभी तक इस सिद्धांत को पूरे विश्व ने खासतौर पर विकसित देशों ने विकासवाद की अंधी दौड़ की वजह से भुला रखा है ।
पर्यावरण असंतुलन दशकों से मानवजाति के लिए चिंता का सबब बना है। पृथ्वी का तापमान बढ़ा भी है और इससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है। वास्तव में देखा जाए तो पर्यावरण संरक्षण हमारे राजनीतिक एजेंडे में शामिल ही नहीं है। हाल में ही हुए लोकसभा चुनावों में अधिकांश राजनीतिक दलों ने अपने घोषणापत्र में पर्यावरण संबंधी किसी भी मुद्दे को जगह देना जरूरी नहीं समझा । देश में हर जगह ,हर तरफ हर पार्टी विकास की बातें करती है लेकिन ऐसे विकास का क्या फायदा जो लगातार विनाश को आमंत्रित करता है ।ऐसे विकास को क्या कहें जिसकी वजह से सम्पूर्ण मानवता का अस्तित्व ही खतरे में पढ़ गया हो । सिर्फ दिल्ली ही नहीं बल्कि देश के कई शहरों का वातावरण बेहद प्रदूषित हो गया है । इस प्रदूषण को रोकने के लिए कभी सरकार ने गंभीर प्रयास नहीं किये ,जो प्रयास किये गये वो नाकाफी साबित हुए और वायु प्रदूषण बढ़ता ही गया । इसे रोकने के लिए अब जवाबदेही के साथ एक निश्चित समयसीमा के भीतर ठोस प्रयासों की दरकार है ।
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