दैनिक जागरण |
शशांक द्विवेदी
हर साल हम सिर्फ रस्म अदायगी के लिए 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाते हैं और पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ राधा कृष्णन को याद करते हैं। आधुनिक दौर में शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य से हम दिनोदिन दूर होतें जा रहें है । आर्थिक उदारीकरण के दौर में आज हर एक को आगे बढने की होड लगी है। समय के साथ हम विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में नित नयी कामयाबियाँ हासिल कर रहें है , आदमी चाँद के बाद मंगल तक पहुँचने का सपना पूरा कर रहा है । समय की मांग के अनुसार साइंस, टेक्नोलॉजी, प्रॅफेशनल व जॉब-ओरिएंटेड कोर्स आदि की लोकप्रियता दिन-प्रतिदिन बढती जा रही है। मगर नैतिकता और मानवता के स्तर पर हम दिनोंदिन नीचे होते जा रहें है । इतनी सफलता के बाद भी हम शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य से दूर हो रहें है । लेकिन सवाल यह उठता है कि शिक्षा क्यों जरूरी है और इसका उद्देश्य क्या है? यहां यह समझना जरूरी है कि डिग्री हासिल करना व शिक्षा प्राप्त करने में अंतर है। शिक्षा अधिक व्यापक चीज है, समाज को आगे ले जाने में सबसे अहम भूमिका शिक्षा की ही होती है।
वास्तव में पूंजीवादी विश्व के बदलते स्वरुप और परिवेश में शिक्षा का पूरा तंत्र एक बड़ा व्यवसाय बन गया है ? हम शिक्षा के सही उद्देश्य को ही नहीं समझ पा रहे है । सही बात तो यह है की शिक्षा का सवाल जितना मानव की मुक्ति से संबद्ध है उतना किसी अन्य विषय या विचार से नहीं है । देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविधायालय मे भाषण देते हुए कहा था कि शिक्षा और मानव इतिहास का संपूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति है। पर आज जब मुक्ति का अर्थ ही बेमानी हो जाय, उसका लक्ष्य ‘सर्वजन हिताय’ की परिधि से हटकर घोर व्यैक्तिक दायरे में सिमट जाय तो क्या किया जा सकता है ।
इन दिनों जब शिक्षा की गुणात्मकता का तीव्रतर ह्रास होता जा रहा है, समाज में सहिष्णुता की भावना कमजोर पड़ने से गुरु-शिष्य संबंधों की पवित्रता को भी ग्रहण लगता जा रहा है। मानव-श्रम की अवहेलना ने शिक्षक और शिक्षार्थी, दोनों को पूँजी और बाजार का पिछलग्गू और उसका हिमायती बना दिया है। शिक्षा की दिशा में हमारा सोच अब इतना व्यावसायिक और संकीर्ण हो गया है कि हम सिर्फ उसी शिक्षा की मूल्यवत्ता पर भरोसा करते हैं और महत्व देते हैं जो हमारे सुख-सुविधा का साधन जुटाने में हमारी मदद कर सके, बाकी चिंतन को हम ताक पर रखकर चलने लगें है।
द सी एक्सप्रेस |
प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर सरकार ने शिक्षकों को रोबोट समझ लिया है । बच्चों को पढानें के साथ साथ उसे सभी तरह के चुनाव, जनगणना, पशुगणना, गरीबी रेखा का सर्वेक्षण, अन्य सर्वेक्षण, पल्स पोलियो, मध्यान्ह भोजन, निर्माण का्र्य , दफ्तरी काम आदि करने पड़ते है । सरकारी स्कूलों के शिक्षक सरकारी नौकर बनने को विवश है और निजी क्षेत्र में वहाँ के प्रबंधन के वेतनभोगी सेवक। आंकड़ों के अनुसार प्राथमिक स्तर पर ही आज भी देश में 9503 स्कूल बिना शिक्षक के हैं,122355 से अधिक विद्यालयों में पांच कक्षाओं पर एक शिक्षक है,,लगभग 42 हजार स्कूल भवन विहीन हैं और एक लाख से अधिक स्कूलों में भवन के नाम पर एक कमरा है। सरकार के शिक्षा अभियानों के बावजूद प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है ।आज कोई भी मध्यम वर्गीय व्यक्ति अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में नहीं पढाना चाहता । प्राथमिक शिक्षा के अभियानों में भ्रष्टाचार अपने चरम पर पहुच चुका है ।
देश में उच्च और तकनीकी शिक्षा एक बड़े व्यवसाय में तब्दील हो चुकी है । जहाँ छात्र उपभोक्ता की हैसियत में आ गया है ,उच्च शिक्षित होने के बाद वह बाजार में एक उत्पाद की तरह पेश हो जाता है ।यहाँ पर शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों के बीच गरिमामय सम्बन्ध कमजोर पड़ने लगते है । सोशल नेटवर्किंग साइटस की आभासी दुनियाँ में शिक्षक और छात्र दोनों एक धरातल पर मित्र बन जाते है ।जहाँ रिश्ता पूरी तरह प्रोफेशनल होता है । यहाँ नैतिक मूल्य बहुत पीछे छूट जाते है । दोनों के बीच इस दूरी के घटने और सिमटने का व्यावसायिक,आर्थिक फायदा तो है लेकिन अधिकांशतया मानवीय मूल्यों को चोट पहुँचती है ।
जनसंदेश टाइम्स |
देश की नई पीढ़ी की समझ और सूचना का संसार बहुत व्यापक है। उसके पास ज्ञान और सूचना के अनेक साधन हैं जिसने परंपरागत शिक्षकों और उनके शिक्षण के सामने चुनौती खड़ी कर दी है। नई पीढ़ी बहुत जल्दी और ज्यादा पाने की होड़ में है। उसके सामने एक अध्यापक की भूमिका बहुत सीमित हो गयी है। अर्थ के युग में इसे शिक्षा का बाजारीकरण कहे या आधुनिक होते चले जा रहे समाज की विसंगतियों का असर बढ़ती प्रतियोगिता, आगे बढ़ने का दबाव, सूचनाओं की बाढ़ से लैस रहने की कवायद और हर हाल में अपने लक्ष्यों को पाने का जुनून विद्यार्थियों में कुछ इस तरह की बेचैनी भर रहा है, जिसमें उन्हें शिक्षक एक वेतनभोगी कर्मचारी से अधिक नहीं लगता, जिसका काम उन्हें अपने लक्ष्यों की पूर्ति वैधानिक या नियम-विरूद्ध करने में मदद करना भर है। नए जमाने ने श्रद्धाभाव भी कम किया है। उसके अनेक नकारात्मक प्रसंग हमें दिखाई और सुनाई देते हैं। गुरू-शिष्य रिश्तों में मर्यादाएं टूट रही हैं, वर्जनाएं टूट रही हैं, अनुशासन भी भंग होता दिखता है। नए जमाने के शिक्षक भी विद्यार्थियों में अपनी लोकप्रियता के लिए कुछ ऐसे काम कर बैठते हैं जो उन्हें लांछित ही करते हैं। सीखने की प्रक्रिया का मर्यादित होना भी जरूरी है। परिसरों में संवाद, बहसें और विषयों पर विमर्श की धारा लगभग सूख रही है। परीक्षा को पास करना और एक नौकरी पाना इस दौर की सबसे बड़ी प्राथमिकता बन गयी है। ऐसे में शिक्षकों के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस पीढ़ी की आकांक्षाओं की पूर्ति करने की है। साथ ही उनमें विषयों की गंभीर समझ पैदा करना भी जरूरी है। शिक्षा के साथ कौशल और मूल्यबोध का समावेश न हो तो वह व्यर्थ हो जाती है। इसलिए स्किल के साथ मूल्यों की शिक्षा बहुत जरूरी है। कारपोरेट के लिए पुरजे और रोबोट तैयार करने के बजाए अगर हम उन्हें मनुष्यता,ईमानदारी और प्रामणिकता की शिक्षा दे पाएं और स्वयं भी खुद को एक रोलमाडल के प्रस्तुत कर पाएं तो यह बड़ी बात होगी।
वास्तव में सिर्फ जानकारियाँ देना ही शिक्षा नहीं है । आधुनिक युग में तकनीक की जानकारी महत्वपूर्ण महत्वपूर्ण होते हुए भी व्यक्ति के बौद्धिक झुकाव और उसकी लोकतांत्रिक भावना का भी बड़ा महत्व है । ये बातें व्यक्ति को एक उत्तरदायी नागरिक बनाती हैं । शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य सम्पूर्ण मानवता के प्रति समग्र द्रष्टिकोण रखने के साथ साथ ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना और निरंतर सीखते रहने की प्रवृत्ति है । शिक्षा बाजार नहीं अपितु मानव मन को तैयार करने का महत्वपूर्ण साधन है। जितनी जल्दी हम इस तथ्य को समझेंगे उतना ही शिक्षा का भला होगा। तभी हम शिक्षक दिवस को सच्चे अर्थो में सार्थक कर सकते है और डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के महान सपनो को पूरा कर सकते है।
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