Saturday 22 June 2013

पहाड़ों के पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान

उत्तराखंड आपदा पर शशांक द्विवेदी का विशेष लेख 
उत्तराखंड और  हिमाचल प्रदेश  में प्रकृति की विनाशलीला में अब तक 530  लोग मारे जा चुके है,हजारों लापता है  और लगभग 40 हजार लोग अलग-अलग जगहों पर फंसे हुए हैं। बारिश और भूस्खलन के कहर से नदियाँ उफान पर है और बादल फटने के बाद नदी की तेज धार में इमारतें और घर ताश के पत्तों की धराशाई हो गए । सबसे अधिक नुकसान केदारनाथ में हुआ है जहां मंदिर के आसपास का इलाका पूरी तरह तबाह हो गया । जाहिर है उत्तराखंड में इस जल प्रलय के लिए सिर्फ कुदरत जिम्मेदार नहीं है हम भी इसके लिए जिम्मेदार है । उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के अनुसार राज्य में 500 सड़कें और 175 पुल बह गए हैं। फिलहाल प्रशासन 530 के मरने और 5000 से अधिक के गायब होने की बात मान रहा है। लेकिन वास्तविक संख्या इससे भी कहीं अधिक हो सकती है ।
 भूस्खलन पहाड़ो की एक बड़ी समस्या हे..जहाँ भी भूमि कटाव और स्खलन हुवा । बाढ़ का पानी जलजले की तरह मिटटी पथ्थर बहा ले  गया । इसका  वेग इतना तेज था की इसने रास्ते  में जो भी पड़ा उसे बहा दिया । वहां ज्यादा मात्रा में पेड़ और वनस्पतियाँ नहीं थी  । अगर होती तो वेग कम हो सकता था । पहाड़ो पर आंधाधुंध पेड़ो की कटाई ,पर्वतीय स्थलों पर पर्यावरण के नियमो को ताक में रख कर हो रहे निर्माण और पर्यटकों की बढ़ती  भीड़ ने पहाड़ो की सेहत बिगाड़ दी है  । ये त्रासदी मानव निर्मित भी हे अगर इतने ज्यादा पेड़ नहीं कटे होते और अँधा धुंध निर्माण नहीं हुवे होते तो ये जन हानि कम होती ।
इस साल मानसून की रफ्तार काफी तेज रही और यह अपने निर्धारित समय से कम से कम पंद्रह दिन पहले पूरे भारत में छा गया । समय से पहले और औसत से ज्यादा बारिश ने उत्तराखंड में इस विनाशलीला को रचने में अपनी अहम भूमिका निभायी । उत्तराखंड में 16 जून को ही 24 घंटे के भीतर 220 मिलीलीटर से ज्यादा बारिश हुई, जो सामान्य से 300 फीसदी ज्यादा है. लेकिन मौजूदा तबाही की वजह सिर्फ ज्यादा बारिश नहीं है । विकास के मौजूदा पैटर्न ने पहाड. के पारिस्थितिक तंत्र को नुकसान पहुंचाया है और उसे एक हद तक खोखला किया है । पेडों को काटकर, ढलान पर मकान और होटलों के निर्माण ने पहाड. पर प्रकृति के संतुलन को नष्ट कर दिया है ।
बड़ी मात्रा में सड.क निर्माण के कारण पहाडियां अस्थिर हो रही है डाउन टू अर्थ में प्रकाशित एक लेख के मुताबिक सड.कों के विस्तार ने हिमालय में एक नयी किस्म की परिघटना को जन्म दिया है, जो पहाड. के विघटन का व्यापक कारक बनते जा रहे हैं । उत्तराखंड राज्य परिवहन विभाग के आंकड़ों से इस बात की पुष्टि होती है. वर्ष 2005-06 में राज्य में पंजीकृत वाहनों की संख्या 83000 थी, जो 2012-13 में बढ. कर एक लाख अस्सी हजार तक पहुंच चुकी है । इसमें वैसे कार, जीप एवं टैक्सी आदि शामिल नहीं है हैं जो बाहर से आनेवाले पर्यटकों के लिए यातायात के साधन का प्रमुख जरिया हैं । पर्यटकों के लिए वर्ष 2005-06 में ऐसे पंजीकृत वाहनों की संख्या तकरीबन चार हजार थी, जो 2012-13 में एकदम से 40 हजार के आंकडे. पर पहुंच गयी- यानी इसमें दस गुना बढोत्तरी  हो गयी । यह सर्वविदित तथ्य है कि पर्यटन में वृद्धि का भूस्खलनों की बढ.ती संख्या से सीधा संबंध है ।  उत्तराखंड में हर साल पर्यटकों की संख्या लगातार बढ. रही है । इनके लिए नये-नये होटलों का निर्माण किया जा रहा है. पहाड़ों  की भंगुर संरचना का ख्याल किये बगैर कई-कई मंजिलों की इमारतों का निर्माण किया जा रहा है, जबकि पहाड़ों पर अधिक से अधिक दो मंजिले घर ही बनाये जा सकते हैं.  उत्तराखंड में बड़ी  संख्या में हो रहे बांधों के निर्माण ने भी वहां की पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचाया है । आंकड़ों  के मुताबिक उत्तराखंड में इस समय भी 500 से ज्यादा बांध निर्माण परियोजनाएं कार्यरत हैं. इन परियोजनाओं के द्वारा नदी की धारा को कृत्रिम तरीके से बांधने का काम किया जा रहा है । इसने भी वहां की पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचाया है.
उत्तराखंड में बारिश और भूस्खलन के कहर ने देश में आपदा प्रबंधन की तैयारियों की पोल खोल दी है। हजारों लोग रास्ते में फंसे हैं लेकिन सरकार इन्हें निकालने में नाकाम साबित हुई है। ये हाल तब है जब पिछले साल भी उत्तराखंड में ऐसी ही बारिश हुई थी। लेकिन पुरानी घटनाओं से सबक लेना हमारे सिस्टम ने कभी सीखा ही नहीं। आपदा प्रबंधन की नाकाम तैयारियों पर इसी साल अप्रैल में आई कैग  की रिपोर्ट में भी निशान साधा गया है। रिपोर्ट में कहा गया कि आपदाओं से निपटने की हमारी तैयारी बेहद खराब है। 2005 में बनाई गई नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी नाकाम रही है। 8 साल में भी एनडीएमए कोई नेशनल प्लान तैयार नहीं कर पाई है। ये हाल तब रहा जब इसके चेयरमैन खुद पीएम होते हैं। कैग के मुताबिक 8 सालों में एनडीएमए ने एक भी प्रोजेक्ट पूरा नहीं किया है।
प्राकृतिक आपदाओं के वजह से उत्ताराखंड अत्यंत संवेदनशील राज्यों की श्रेणी में शामिल है। 13 साल पहले जब साल 2000 में उत्तराखंड नया राज्य बना था तभी आपदा प्रबंधन मंत्रालय भी गठित किया गया था । ऐसा करने वाला उत्तराखंड देश का पहला राज्य बना गया था लेकिन आपदा प्रबंधन मंत्रालय को बने 13 साल हो गयें है लेकिन इसने आज तक कोई भी उल्लेखनीय कार्य नहीं किये है ।ये विभाग भी पूरी तरह से सरकारी लालफीताशाही का शिकार बना रहा । आपदा प्रबंधन तंत्र की विफलता पिछले कई सालों   के दौरान मानसून सत्र  में दिख चुकी है।लेकिन कभी भी इन विफलताओं से सीख नहीं ली गयी । भूकंप, भूस्खलन, अतिवृष्टि व बाढ़ जैसी आपदाएं के बारे में कभी कोई सटीक भविष्यवाणी नहीं की गयी । इसके लिए वैज्ञानिक ढाँचा भी नहीं बनाया गया जिससे समय रहते कुछ किया जा सके ।
राज्य में आपदा प्रबंधन की तस्वीर इतनी खोखली है कि साल 2010 में राज्य में आपदा के लिहाज से अत्यंत संवेदनशील घोषित 233 गांवों में से एक का भी सरकार विस्थापन नहीं कर पाई। जबकि इस बार मानसून सत्र के पहले ही इस तरह के गावों की संख्या  साढे चार सौ के पार पहुंच गयी थी । मानसून खत्म होने के बाद इस आंकड़े में भी अप्रत्याशित बढोत्तरी होगी । कुल मिलाकर प्रदेश में आपदा प्रबंधन विभाग की पोल खुल चुकी है और सरकार ने समय रहते इस तरफ ध्यान नहीं दिया तो हमें और भी भीषण हादसों के लिए तैयार रहना चाहिए ।
देश के कई राज्यों में आपदा प्रबंधन की कोई नीति ही नहीं है और वहां आपदा आने पर ही चर्चा या कार्रवाई होती है। इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर केंद्र और राज्यों में कोई समन्वय ही नहीं दिखता है।  पिछली कुछ आपदाओं और उनके प्रबंधन पर नजर डालें  तो हमें  निराशा हाथ लगेगी। हमारे देश में आपदा के बाद रेड अलर्ट शुरू होता है। आपदा आने पर ही हलचल होती है । पूरे साल इस विभाग में क्या काम होता है ये लोग कौन सी प्रणाली विकसित करतें है ये तो वही जाने लेकिन आपदा के समय इनकी पोल खुल जाती है ,पूरा तंत्र नाकाम साबित होता है । जबकि हमारी आपदा नीति वर्तमान तंत्र के लिए बोझ नहीं होनी चाहिए। इसका स्वरूप ही ऐसा हो, जो कि हमारे रोजमर्रा के कार्य का हिस्सा हो। वास्तव में आपदा प्रबंधन हमारी प्राथमिक शिक्षा का एक हिस्सा होना चाहिए तभी हमें इस दिशा में बेहतर परिणाम हासिल होंगे ।
उत्तराखंड और  हिमाचल प्रदेश  में प्रकृति का जो कहर हम देख रहें है  ये आपदा प्रबंधन की नाकामियों के साथ साथ हमारे कथित  विकास और लालच का नतीजा  भी है । पिछले 100 सालों में भी केदार नाथ में इतनी बड़ी तबाही नहीं आयी थी ,लेकिन आज मुख्य मंदिर के अलावा सब कुछ तबाह हो गया है । हम में से अधिकांश लोग इस गलतफहमी में जी रहें है कि ये तबाही तो उत्तराखंड में आयी है और हम सुरक्षित है ..तो वो लोग अच्छी तरह से जान ले कि हम सभी बारूद के ढेर पर बैठे है कभी भी प्रकृति के विनाश का बम फट सकता है और हम तिनके की तरह उड़ जायेंगे । हमें तो बचाने वाला भी कोई नहीं होगा इसलिए अभी भी समय है हम अपनी बेहोशी से जाग जाएँ ,अपने आस पास पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान दे।
इस कथित विकास की बेहोशी से जगने का बस एक ही मूल मंत्र है कि विश्व में  सह अस्तित्व की संस्कृति का निर्वहन हो । सह अस्तित्व का मतलब प्रकृति के  अस्तित्व को सुरक्षित रखते हुए मानव विकास करे ।प्रकृति और मानव दोनों का ही अस्तित्व एक दूसरें पर निर्भर है इसलिए प्राकृतिक संसाधनों का क्षय  न हो ऐसा संकल्प और ऐसी ही व्यवस्था की जरुरत है । अभी तक इस सिद्धांत को पूरे विश्व ने खासतौर पर  विकसित देशों ने विकासवाद की अंधी दौड़ की वजह से भुला रखा है । पूरी दुनियाँ जिस तरह कथित विकास की दौड़ में अंधी हो चुकी है उसे देखकर तो यही लगता है कि आज नहीं तो कल मानव सभ्यता का विनाश निश्चित है । प्राकृतिक आपदाओं का  बार बार आना हमें चेतावनी दे रहा है कि अभी भी समय है और हम अपनी बेहोशी से जाग जाये नहीं तो कल कुछ भी नहीं बचने वाला । हिमालयी क्षेत्र को बिना संरक्षित किये तबाही को बचाना नामुमकिन है, ग्रैंड केन्यान और दूसरी प्राकृतिक साइट्स की तरह हिमालय में भी पर्यटन के नाम पर कंस्ट्रक्शन खत्म किया जाएँ, जिन्हें घूमना है, वो अपने तम्बू लेकर घूमे और अपना खाना खुद बनाए या ले जाए ।  पहाड़ नहीं बचेंगे तो मैदान भी देर सबेर डूब जायेंगे. पहाड़ ही नहीं रहेंगे तो पहाड़ की बिजली से चलने वाले  उद्योग  भी प्रभावित होंगें और विकास की ये हवस उन्हें भी डूबने से नहीं बचा सकेगी ।
कुलमिलाकर हिमालयी क्षेत्र में हमें पर्यावरण संरक्षण और  बेहतर आपदा प्रबंधन तंत्र दोनों पर ध्यान देने की जरुरत है । सरकार के साथ साथ  ये एक सामुदायिक जिम्मेदारी है जिसे हम सब को समझना होगा और मिल कर काम करना होगा तभी बेहतर नतीजें  आयेंगे नहीं तो हर बार की तरह एक बार फिर हमें किसी बड़ी प्राकृतिक आपदा का इंतजार करना पड़ेगा ।

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