Friday 8 March 2013

ऊर्जा जरूरतों के लिए शेल गैस विकल्प !!

असित के. बिस्वास
ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति के लिए शेल गैस के विकल्प को भारत के लिए सही नहीं
भारत ऊर्जा की कमी से जूझ रहा है। देश की एक चौथाई आबादी आज भी बिना बिजली के रहने को मजबूर है। 28 में से सिर्फ नौ राज्यों का ही पूरी तरह विद्युतीकरण हो पाया है। ये नौ राज्य आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, गोवा, दिल्ली, हरियाणा, केरल, पंजाब और तमिलनाडु हैं। बावजूद इसके इन राज्यों में भी बिजली कटौती आम है। पिछले साल जुलाई में ग्रिड फेल होने से देशभर में 62 करोड़ लोगों को अंधेरे में रहना पड़ा था। मांग की सिर्फ 15 फीसद बिजली की ही आपूर्ति हो पाती है। ऊर्जा अभाव की दीर्घकालीन समस्या विकास को भी प्रभावित करती है। अगले दो दशकों तक भारत में ऊर्जा की यह खाई बनी रहेगी। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आइईए) का अनुमान है कि 2030 तक भी बहुत से राज्यों में अबाधित बिजली आपूर्ति नहीं हो सकेगी। 2030 तक गैर-आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) देशों में ऊर्जा खपत 93 फीसद तक बढ़ेगी, खास तौर पर एशिया में। एशिया प्रशांत तब तक वैश्विक ऊर्जा उत्पादन में 35 फीसद का योगदान देगा, लेकिन बढ़ी हुई मांग की आपूर्ति नहीं कर सकेगा। लिहाजा, नीति-निर्धारकों को जल्द ही इसके समाधान खोजने होंगे। इसका एक समाधान शेल गैस (प्राकृतिक गैस जो पानी के भीतर क्ले मिनरलों और कीचड़ के मिश्रण से बनती है) हो सकती है। भारत सरकार आइईए के आकलन को झुठलाने के लिए शेल गैस संसाधनों के दोहन की योजना बना रही है। हालांकि इसकी नीति दिसंबर 2012 तक ही घोषित की जानी थी, लेकिन अज्ञात कारणों से इसमें देरी की जाती रही। माना जा रहा है कि अब यह नीति अंतिम चरण में है और निकट भविष्य में जारी कर दी जाएगी। एक अनुमान के मुताबिक भारत के पास 6 से 63 ट्रिलियन क्यूबिक फीट तक शेल गैस भंडार हैं। कैमबे, असम-अराकन, गोंडवाना और कावेरी में विशाल भंडारों की पुष्टि की गई है।
फिलहाल देश की ऊर्जा जरूरतें पूरी करने में 11 प्रतिशत हिस्सेदारी गैस की है। आधी ऊर्जा जरूरतें कोयले से ही पूरी होती हैं और 25 फीसद जल विद्युत से। शेल गैस की स्वीकार्यता दुनिया भर में बढ़ती जा रही है। आइईए ने तो घोषणा कर दी है कि विश्व गैस के स्वर्णिम काल में प्रवेश करने जा रहा है। अमेरिका का शेल गैस उद्योग 2005-10 के बीच 45 फीसद की दर से बढ़ा और गैस कीमतें तीस से तीन डॉलर प्रति मिलियन ब्रिटिश थर्मल यूनिट तक आ गईं। अमेरिका अब गैस आयातक से निर्यातक बन गया। शेल गैस के विशालतम भंडार वाला देश चीन भी अमेरिका की राह पर चल रहा है। 2020 तक उसने 3500 बिलियन क्यूबिक फीट सालाना शेल गैस उत्पादन का लक्ष्य रखा है। जहां तक भारत के शेल गैस पर निर्भरता का सवाल है तो इससे निकट भविष्य में हमारी ऊर्जा की खाई नहीं भरने वाली है। इसके दो कारण हैं। एक, देश में इसके भंडारों तक पहुंच बनाने के लिए तकनीकी क्षमता का अभाव है और दूसरा, भारत में शेल गैस के दोहन का मतलब होगा, देश के जल संसाधनों का विध्वंस। लिहाजा, इसके लिए पहले हमें अपनी तकनीकी दक्षता बढ़ानी है। शेल गैस दोहन की मुख्य तकनीक हाइड्रोलिक फ्रैकिंग है। उत्तरी अमेरिका की भौगोलिक परिस्थितियां इसके अनुकूल हैं और वही शेल गैस का सबसे बड़ा उत्पादक है। भारत को इसके लिए विदेशी सरकारों और निजी क्षेत्र की कंपनियों से साझेदारी करनी होगी। इसके बाद भौगोलिक परिस्थितियों को जानना होगा, जो उत्तरी अमेरिका की तुलना में कम अनुकूल हैं। हालांकि ऐसे संयुक्त प्रयास भारत करता रहा है। भारत ने शेवरोन, पायनियर नेचुरल रिसोर्सेज और कैरिजो आयल एंड गैस के साथ हाल के सालों में करार किया है। तमाम प्रयासों के बावजूद भारत अमेरिका की शेल गैस क्रांति की सफलता को समय पर नहीं दोहरा सकता। इसका मुख्य कारण भारत का दूषित जल प्रबंधन में असफल रहना है। शेल गैस दोहन में बड़ी मात्रा में पानी की जरूरत होती है, जो इस प्रक्रिया में बुरी तरह दूषित हो जाता है। विशेषज्ञों में मतभेद है कि हम इस पूरे दूषित पानी को कम खर्च पर रिसाइकल कर पाएंगे, क्योंकि अमेरिकी कंपनियों ने यह खुलासा नहीं किया कि दोहन प्रक्रिया में जमीन में कौन से रसायन डाले जाते हैं। यदि शेल गैस दोहन समुचित तरीके से नहीं किया गया तो जहरीले तत्वों के पीने योग्य जल संसाधनों में मिल जाने का खतरा बना रहेगा। ड्यूक यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन के मुताबिक शेल गैस भू-जल को गंभीर रूप से दूषित कर सकती है। पेंसिलवेनिया में शेल गैस कुएं के एक किलोमीटर के दायरे में पीने के पानी में मीथेन गैस की मात्रा 17 गुना अधिक पाई गई, जो प्राणघातक हो सकती है। विडंबना यह है कि भारत पहले ही जल प्रदूषण में विश्व का अग्रणी देश है। पवित्र गंगा में ही प्रति 100 मिलीलीटर पानी में 60,000 बैक्टीरिया हैं, जो नहाने के लिए सुरक्षित माने जाने वाले पानी से 120 गुना ज्यादा है।
 दिल्ली तक में बिना किसी शोधन के सीवेज नदियों में बहा दिया जाता है। भारत में ट्रीटमेंट प्लांट पहले ही कम हैं और जहां हैं भी वहां उनका समुचित संचालन और देखरेख नहीं हो रही है। जल शोधन के ऐसे कमजोर रिकार्ड वाले देश में शेल गैस दोहन प्रक्रिया में बनने वाले दूषित जल शोधन की उम्मीद करना बेमानी है। अमेरिका तक में पीने के पानी में जहरीले दूषित जल के मिलने की रिपोर्ट आती रही हैं। ऐसे में यदि भारत शेल गैस दोहन की तकनीकी हासिल कर भी लेता है तो दूषित जल शोधन में असफल हो जाएगा। भारत के लिए साफ पानी ऊर्जा से ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकता है। शेल गैस को लेकर वैश्विक मान्यता अभी विकसित हो रही है। इसलिए भारत इसके दुष्प्रभावों को ध्यान में रखे बिना शेल गैस दोहन की राह पर चलता है तो यह कदम गलत साबित होगा। भारत अपनी नीति संबंधी समस्याएं तुरंत हल नहीं कर सकता। नीति सामान्य तरीके से बनाई जानी चाहिए। जैसे एक इंजीनियर किसी इमारत की शुरुआत उसकी नींव से करता है वैसे ही नीति-निर्माण भी मूल से ही शुरू करना चाहिए। इस प्रकार भारत को सबसे पहले अपने शेल गैस भंडारों के वास्तविक आकार की पुष्टि करनी होगी। यदि ये पर्याप्त हैं तो ही इस दिशा में तकनीकी दक्षता हासिल करने के लिए कदम आगे बढ़ाने चाहिए। हमारी भौगोलिक परिस्थितियां भी अमेरिका और चीन से अलग हैं। इसलिए हमें अपने अनुकूल तकनीक विकसित करनी होगी। ऊर्जा आपूर्ति के बजाय ऊर्जा की पर्याप्त उपलब्धता पर ध्यान केंद्रित करना बेहतर होगा। (लेखक सिंगापुर के ली क्वान यी स्कूल ऑफ पब्लिक पालिसी में विजिटिंग प्रोफेसर हैं) 

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