Monday 7 January 2013

इंटरनेट जरूरी भी और मजबूरी भी

चंद्रभूषण ॥
अगर आप सोचते हैं कि इंटरनेट आपकी जिंदगी में पूरी तरह रच-बस गया है तो यह आपकी भूल है। इसके आम जिंदगी का हिस्सा बनने की तो अभी बस शुरुआत हुई है। अभी हम इसके जरिये कुछ सूचनाएं, वीडियो वगैरह शेयर करते हैं, या थोड़ी-बहुत बातचीत कर लेते हैं। आने वाले दिनों में हमारी चीजें इंटरनेट के माध्यम से आपस में बात कर लिया करेंगी। मसलन, आप सोते रहेंगे और कमरे में चल रहे ब्लोअर को ऑफ हो जाने का हुक्म आपका तकिया देगा। या गर्मियों के मौसम में घर की तरफ बढ़ रही गाड़ी घर में पड़े फ्रिज को बोल देगी कि सबके लिए एक-एक गिलास ठंडे स्क्वाश का इंतजाम करे।

यह कोई फिक्शन नहीं है। घरेलू उपयोग के इलेक्ट्रॉनिक सामान बनाने वाली ज्यादातर कंपनियां अपने सामानों के लिए पर्टीकुलर आईपी एड्रेस वाले चिप तैयार करने में जुटी हैं। दो-तीन साल इंतजार कीजिए। फिर तो जैसे आप दिन भर ऑफिस में अपने कलीग्स से बातें करते नहीं थकते, वैसे ही आपके घर के सारे सामान आप की बॉसगिरी को दरकिनार कर आपसी गप-शप में लगे रहेंगे।
अभी दुनिया में सबसे ज्यादा इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले चार देशों- अमेरिका, चीन, जर्मनी और ब्राजील में एक सर्वे किया गया कि अगर उनके सामने शर्त रखी जाए कि एक साल तक इंटरनेट यूज करना छोड़ें, या इसकी जगह कोई और काम छोड़ें तो क्या छोड़ने के लिए वे खुशी-खुशी तैयार हो जाएंगे। जवाब में 85 फीसदी चीनियों ने कहा कि वे शराब से तौबा कर लेंगे। ठीक इतने ही प्रतिशत अमेरिकी जीपीएस छोड़ने को और 90 फीसदी जर्मन फास्ट फूड को हाथ न लगाने पर राजी हो गए। इस मामले में चीनियों की दीवानगी का आलम यह है कि सर्वे में शामिल लोगों में 40 फीसदी ने इटंरनेट यूज के बदले में एक साल तक नहाना छोड़ने की बात कबूल की, जबकि 35 प्रतिशत चीनियों ने ब्रह्मचर्य धारण करने, यानी साल भर सेक्स से दूर रहने का व्रत लेना स्वीकार किया। भारत में इसके आकर्षण का कोई ठोस आकलन मौजूद नहीं है, हालांकि यहां भी कनेक्शन टूटने या स्पीड डाउन हो जाने पर लोगबाग भुन-भुन करते, हाथ-पैर पटकते दिखाई देते हैं।

आश्चर्य होता है कि इंटरनेट को बने सिर्फ तीस साल और इसके पब्लिक डोमेन में आए महज बीस साल हुए हैं। भारत में तो इसका चलन बमुश्किल पंद्रह साल पुराना है, क्योंकि इसके पहले कुछ गिने-चुने अखबारों और कंपनियों के दफ्तरों में इसका इस्तेमाल चुनिंदा विशेषाधिकार प्राप्त लोग ही करते थे। आज हालत यह है कि संसार की कुल आबादी के एक तिहाई लोग इंटरनेट से जुड़े हैं और यह एक ग्लोबल दिमाग की तरह काम कर रहा है।
पिछले दो सालों में हम इंटरनेट के सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं से परिचित हुए हैं। अरब देशों की अजर-अमर समझी जाने वाली कई तानाशाहियों की ईंट से ईंट बजाकर रख देने वाला 'अरब स्प्रिंग' फेसबुक के रास्ते इंटरनेट से जुड़ा था और भारत में भ्रष्टाचार तथा यौन उत्पीड़न के विरुद्ध एक के बाद हुए विराट जनांदोलनों का उत्स भी एक हद तक इंटरनेट ही है। जूलियन असांज ने अपने विकीलीक्स के जरिये अमेरिका समेत कई हुकूमतों की नाक में दम कर दिया और महीनों तक कुछ भारतीय राजनेताओं की भी नींद हराम रखी। उनके काम का खौफ इतना ज्यादा है कि बेवजह उन्हें पिंजड़े में बंद करके रखा गया है। ऐसी जाने कितनी धमाकेदार चीजें अभी इंटरनेट के गर्भ में आराम फरमा रही हैं।

भारत में इंटरनेट के विस्तार की रफ्तार उतनी नहीं रही, जितनी होनी चाहिए। अभी हमारे यहां कुल 15 करोड़ लोग इससे जुड़े हैं, जो 55 करोड़ इंटरनेटी चीनियों के बरक्स छोटी तादाद कही जाएगी। लेकिन दुनिया में सबसे तेजी के साथ इंटरनेट से जुड़ रहे देश के रूप में हमारा एक अलग रुतबा है। भारत में इंटरनेट यूजर्स की ऐनुअल ग्रोथ रेट 41 फीसदी है। चीनी यह बूम फेज पहले ही पार कर चुके हैं, लिहाजा इस मामले में उनके आगे निकलने का कोई खतरा नहीं है। भारत में इंटरनेट का फैलाव धीमा होने की मुख्य वजह यहां लैंडलाइन बेस का छोटा होना था। निजी टेलीकॉम कंपनियों ने भी अपना लैंडलाइन नेटवर्क गांवों और छोटे कस्बों तक ले जाने में खास दिलचस्पी नहीं दिखाई। यह बाधा मोबाइल टेलीफोनी के विस्फोट के जरिये पार कर ली गई है। अभी सारा मामला वायरलेस इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स के विस्तार पर टिका है। उनके लिए अपना नेटवर्क फैलाना अपेक्षाकृत सस्ता सौदा है। अपनी सेवाएं अगर वे गांव-गांव तक पहुंचाते हैं तो अगले कुछ सालों में हम इंटरनेट चीन को टक्कर दे रहे होंगे।

भारत में मोबाइल इंटरनेट के विस्तार के आंकड़े अभी तक जबर्दस्त रहे हैं। मार्च 2009 में महज 41 लाख से बीसगुना बढ़कर इसके उपभोक्ता फिलहाल 8 करोड़ 71 लाख पर पहुंच गए हैं। दूरसंचार मंत्रालय का अनुमान है कि मार्च 2015 तक यह संख्या 16 करोड़ 48 लाख यानी अभी की दोगुनी हो जाएगी। शर्त सिर्फ एक है कि अच्छी डेटा स्पीड वाले फोन, टैबलेट और लैपटॉप भारत में अमीरों के खिलौने बने रहने की नियति से उबरें। सरकार और निजी क्षेत्र के सहयोग से इन्हें घर-घर पहुंचाने का प्रयास हो और इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर कंपनियों में भरोसा जगे कि इस देश में उनका धंधा बड़े शहरों से बाहर निकलने के बाद ही बढ़ेगा। इससे भी जरूरी यह है कि दूर-दराज के इलाकों में रह रहे लोगों को इंटरनेट पर खर्च किए गए अपने एक-एक पैसे की पूरी कीमत वसूल करने का मौका मिले। मसलन, लोहरदगा का कोई आदिवासी परिवार अगर अपने बुजुर्ग की हार्ट कंडीशन को लेकर घर बैठे अच्छा प्रेस्क्रिप्शन चाहता है तो उसे अपोलो या लीलावती के बेस्ट हार्ट स्पेशलिस्ट की सेवाएं इंटरनेट पर उपलब्ध हों।

आने वाला साल इंटरनेट के लिए बहुत महत्वपूर्ण होने जा रहा है। इसके प्रशासन के लिए अभी कोई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था नहीं है। सतह के नीचे झांकें तो यह अमेरिकी हुकूमत और दो-तीन ताकतवर अमेरिकी कंपनियों के रहमोकरम पर ही चल रहा है। इस व्यवस्था को वे 'मल्टि-स्टेक होल्डर सिस्टम' के इज्जतदार नाम से बुलाते हैं और पश्चिमी यूरोप के देश उनकी हां में हां मिलाते हैं। इसके कुछ बड़े नुकसान हैं, जिसका अंदाजा पिछले साल असम के दंगों का विस्तार यू-ट्यूब पर चले एक फर्जी वीडियो के असर में मुंबई, पुणे और बेंगलुरू तक हो जाने के रूप में हमें हो चुका है। आने वाले दिनों में फैसला करना होगा कि इंटरनेट को बधिया किए बगैर इसके कंटेंट पर नजर रखने में सरकारों की क्या भूमिका हो, और इसका लागू होना सुनिश्चित कैसे किया जाए।  (ref-nbt.in)

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