निरंकार सिंह
कोलकाता में हुए भारतीय विज्ञान कांग्रेस के 100वें अधिवेशन में
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नई विज्ञान और प्रोद्यौगिकी नीति की घोषणा के
साथ ही वैज्ञानिकों से देश की सामाजिक समस्याओं के समाधान की अपील भी की
है। उन्होंने वैज्ञानिकों से कृषि, आवास, ऊर्जा, पर्यावरण और सस्ती
स्वास्थ्य सेवा, पानी, सुरक्षा आदि के क्षेत्रों से जुड़ी समस्याओं का
समाधान खोजने को कहा है। नीतियों को लेकर अभी तक का अनुभव तो यही रहा है कि
कोई भी नीति बना देना तो आसान है, उस पर अमल मुश्किल होता है। इस दृष्टि
से देखा जाए तो प्रधानमंत्री के पास कोई कार्य योजना नहीं है। पं. जवाहर
लाल नेहरू और होमी जहांगीर भाभा ने कहा था कि गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी
को हम विज्ञान और तकनीक की मदद से हटा सकते हैं। इस कल्पना को साकार करने
के लिए उन्होंने कई ठोस कदम उठाए। वैज्ञानिक और तकनीकी अनुसंधान के लिए
हमारे पास आज मजबूत आधारभूत ढांचा है, लेकिन दुनिया को बताने लायक हमारे
पास शायद ही कोई उपलब्धि हो?
सूई से लेकर पेन तक तमाम आविष्कार विदेशियों की ही देन हैं। शायद भारत के
राजनेता वह माहौल तैयार नहीं कर सके, जिसमें हमारे देश के युवाओं में नई-नई
खोजें करने का सामर्थ्य पैदा हो सके। देश के आर्थिक विकास से तकनीक और
विज्ञान का बहुत गहरा संबंध है, लेकिन तकनीकी विकास के लिए हम अभी तक ऐसी
कोई ठोस नीति तैयार नहीं कर सकें हैं, जिससे बुनियादी समस्याएं हल हो सकें।
वास्तव में आर्थिक विकास में विज्ञान और तकनीक की ताकत को अभी तक न तो
हमारे राजनेता समझ पाए हैं और न उद्योगपति एवं आम जनता। हम विदेशों से भी
सीख नहीं लेते हैं। उदाहरण के लिए जापान को ही लीजिए। परमाणु बमों के हमले
से पूरी तरह नष्ट देश आज विश्व के सात शक्तिशाली देशों में गिना जा रहा है।
पिछली शताब्दी के छठे दशक तक जापान विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्र में बहुत
पिछड़ा था और विदेशों पर निर्भर था। उसने फैसला किया कि वह खुद तकनीक
विकसित करेगा। बीस वर्ष की कड़ी मेहनत से वह विश्व में तकनीक का अगुआ बन
गया और आर्थिक शक्तियों में गिना जाने लगा। जापान ने यह समृद्धि अपनी तकनीक
के निर्यात से अर्जित की। सुनामी जैसी आपदाओं के बाद भी वह तेजी से दौड़ने
लगा।
इसी तरह दक्षिण कोरिया 1950 में गरीब देश माना जाता था। दूसरे विश्वयुद्ध
के दौरान उस पर जापान का अधिकार था। तभी उसका विभाजन हुआ। इन सब आपदाओं के
बावजूद कुछ ही वर्र्षो में दक्षिण कोरिया ने इतनी उन्नति की कि अब उसकी
गिनती दुनिया के अग्रणी देशों में होती है। स्टील, पोत, कार और
इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद निर्यात कर वह संपन्न हुआ। ऐसा ही एक छोटा-सा देश है
इजरायल। रेगिस्तान में पानी और भोजन की अपनी तत्कालिक जरूरतें पूरी करने के
बाद वह रुका नहीं। इजरायली वैज्ञानिकों ने न केवल अपने देश का विकास किया,
बल्कि अमेरिका में वे उच्च पदों पर है। देशहित में वे अमेरिकी नीति को
प्रभावित करते है।
लगभग आठ लाख की आबादी वाला छोटा-सा देश फिनलैंड भी अपनी तकनीकी सामर्थ्य
को किसी से कम नही आंकता है। वह कागज और दूरसंचार के क्षेत्र में अग्रणी
माना जाता है। मोबाइल फोन निर्माता नोकिया फिनलैंड की ही कंपनी है। नोकिया
का सालाना बजट भारत सरकार के कुल बजट के तीन चौथाई से भी ज्यादा है। इससे
तकनीकी विकास की ताकत का अंदाजा लगा जा सकता है।
जापान ने विज्ञान को सियासी जरूरतों के अनुसार ढालने में असाधारण सूझ-बूझ
दिखाई। जापान की ही तरह सोवियत संघ और अब रूस ने भी शासन और उद्योग की
एकात्मता को आधार बनाया। उसने भी जापान की तरह वैज्ञानिक शिक्षा के लिए
मातृ भाषा को आधार बनाया। पुराने दकियानूसी समाज के स्थान पर वैज्ञानिक
दृष्टिकोण वाले नए समाज की स्थापना पर जोर दिया गया। शिक्षा उत्पादन की
जरूरतों के हिसाब से दी जाने लगी। कॉलेजों में पढ़ाई, डिजाइन तथा निर्माण
तीनों तरह के काम होने लगे।
जापान और रूस के अनुभवों का फायदा चीन ने उठाया। चीनी इस बात में भी
विश्वास करते हैं कि आधुनिक तकनीक को जल्दी अपना लेना चाहिए। जब तक नई
तकनीक न अपना ली जाए पुरानी को प्रोत्साहन देते रहना चाहिए। आकार और आबादी
के साथ-साथ ऐतिहासिक दृष्टि से भी चीन और भारत में कई समानताएं हैं, लेकिन
पांच दशकों में चीन ने भारत ही नहीं अमेरिकी बाजार भी अपने सामानों से भर
दिए।
यह सब विज्ञान और तकनीक से ही संभव हुआ, लेकिन हम किसी भी क्षेत्र में किसी
मौलिक तकनीक का विकास नहीं कर पाए तो हमें इसके मूल कारणों का विश्लेषण
करना चाहिए और उसके अनुसार अपनी नीतियां बना उन पर अमल करना चाहिए। हमारे
तमाम विश्वविद्यालय, इंजीनियरिंग और तकनीकी संस्थान, राष्ट्रीय
प्रयोगशालाएं राजनीति का अखाड़ा बन गई हैं। इनमें इतना भाई-भतीजावाद और
भ्रष्टाचार है कि मुश्किल से किसी प्रतिभावान वैज्ञानिक या शिक्षक को
प्रवेश मिल पाता है। इसीलिए हमारे तमाम प्रतिभावान छात्र मौका मिलते ही
विदेश चले जाते हैं।
नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और मोरार जी देसाई के बाद देश को कोई ऐसा सक्षम
प्रधानमंत्री नहीं मिला जो विज्ञान और तकनीक के शोध के विकास का माहौल
बनाने के लिए प्रेरित करता। 2003 में राजग सरकार ने नई विज्ञान तथा
प्रौद्योगिकी नीति की घोषणा की थी, लेकिन पिछले 10 सालों में संप्रग सरकार
इस क्षेत्र के भावी कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार करने और नई पहलों को दिशा
देने में कोई भूमिका नहीं निभा सकी। इस नीति में वैज्ञानिक विकास से लेकर
प्राकृतिक आपदा प्रबंधन के लिए नई तकनीकों के विकास और बौद्धिक संपदा सृजन
तक की रूपरेखा बनाई गई थी, लेकिन इस नीति का कोई लक्ष्य हासिल न हो सका।
ऐसा नहीं है कि हमारे सभी वैज्ञानिक संस्थान निकम्मे और नाकारा हैं। जिस
किसी क्षेत्र में लक्ष्य निर्धारित किए गए और विज्ञानिकों को मौका मिला
वहां उन्होंने सफलताएं भी हासिल की। भूमिगत परमाणु विस्फोट, मिसाइल और
अंतरिक्ष के क्षेत्र में हमारी कुछ उपलब्धियां भी हैं, लेकिन हमारे समकालीन
आजाद हुए देशों के मुकाबले हमारी उपलब्धियां बहुत कम हैं। खासकर देश के
आर्थिक विकास में तकनीक और विज्ञान का वह योगदान नहीं है जो होना चाहिए था।
जापान, चीन, दक्षिण कोरिया आदि देश जिस प्रकार कार्य योजनाएं बनाकर
निर्माण का कार्य करते हैं, उसी प्रकार भारत भी विज्ञान और तकनीक के
क्षेत्र में स्पष्ट लक्ष्य निर्धारित कर सफलता प्राप्त कर सकता है। लगभग
सवा अरब की आबादी वाले इस राष्ट्र की प्रगति उसकी जनता के चिंतन पर निर्भर
होती है जो अपने राजनेताओं को सही दिशा में चलने के लिए बाध्य कर सकती है।
देश धीरे-धीरे जाग रहा है। देश की जनशक्ति को ही देश की ताकत बनना होगा।
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