Wednesday 23 January 2013

क्या रिसर्च का नया रास्ता खुल पाएगा

संजय वर्मा॥
अमेरिका से बराबरी का सपना देखते समय हम भूल जाते हैं कि हमारे पिछड़ेपन का एक बड़ा कारण साइंस के क्षेत्र में विकसित देशों से पीछे होना है। विकसित देशों में वैज्ञानिक प्रगति के मामले में अभूतपूर्व रूप से एक समानता दिखाई पड़ती है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, रूस आदि सभी देशों में उच्च कोटि के वैज्ञानिक शोध होते हैं। भावी अनुसंधानों और महत्वपूर्ण वैज्ञानिक पड़ावों की रूपरेखा वहां काफी स्पष्ट है। यही वजह है कि भारत जैसे विकासशील देश के प्रतिभावान वैज्ञानिक वहां जाकर पढ़ाई करने और करियर बनाने का सपना देखते हैं। इसकी पुष्टि अमेरिका के नेशनल ब्यूरो ऑफ इकनॉमिक रिसर्च द्वारा हाल में कराए गए एक सर्वे से भी होती है। सर्वे का आकलन है कि आप्रवासी साइंटिस्टों के मामले में स्विट्जरलैंड सबसे अव्वल मुल्क है। इसी तरह अमेरिका आज भी पढ़ाई करने के लिए विदेशों से आने वाले छात्रों का सबसे पसंदीदा देश है। जाहिर है कि इन देशों में स्टडी और रिसर्च का कितना बेहतरीन माहौल है।
बाहर जाते वैज्ञानिक
इसी सर्वे के मुताबिक भारत ऐसा मुल्क है जहां के 40 फीसदी रिसर्चर देसी जमीन पर कुछ नया खोजने के बजाय अपनी रिसर्च के लिए अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया आदि का रुख कर लेते हैं। एक बार यहां से रिसर्च के लिए बाहर गए, तो लौटने की जहमत कम ही उठाते हैं। क्या विडंबना है कि दुनिया की एक सबसे तेज बढ़ती इकॉनमी अपने ही रिसर्चरों को रोक नहीं पा रही है। नेशनल जवाहरलाल नेहरू साइंस फेलोशिप्स जैसी नई स्कीम के तहत 55 लाख का सालाना पैकेज देकर आप बुला लीजिए विदेश में बसे हिंदुस्तानी साइंटिस्टों को, पर सवाल यह है कि देसी रिसर्चरों की सुध भला कौन लेगा? क्या इसका यह मतलब निकाला जाए कि पहले काबिल रिसर्चरों को ब्रिटेन-अमेरिका हो आने दिया जाए, फिर उन्हें भारी-भरकम पैकेज का न्यौता देकर यहां गेस्ट लेक्चर देने के लिए बुलाया जाएगा। वैसे साइंस कांग्रेस के 100 वें सालाना जलसे में सरकार ने तय किया है कि वह विदेशों में रिसर्च कर रहे आला भारतीय वैज्ञानिकों को भारत में आकर काम करने के लिए प्रोत्साहित करेगी। इसके लिए विशेष योजना तैयार की जा रही है।
कायम है अंधेरा
रिसर्च के लेवल पर अपने देश में अभी भी कैसा अंधेरा छाया हुआ है, इसकी बानगी एक तथ्य से मिल सकती है। वर्ष 2011 में देश के कॉलेजों से एक करोड़ 46 लाख 17 हजार स्टूडेंट ग्रेजुएट होकर निकले। इनमें से महज 12 फीसदी ने पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री के लिए अपनी पढ़ाई जारी रखी जबकि एक फीसदी से कम ने शोध की दिशा में अपने कदम बढ़ाए। ऐसा नहीं है कि हमारे युवाओं में रिसर्च को लेकर दिलचस्पी बिल्कुल खत्म हो गई हो। वे रिसर्च करते हैं, बाकायदा करते हैं, पर देश में नहीं, विदेश जाकर। 2011 में भारत से हायर एजूकेशन के लिए सिर्फ अमेरिका पहुंचे भारतीय स्टूडेंट्स की संख्या 1,03,895 थी। यह आंकड़ा अमेरिका की हायर एजूकेशन पॉपुलेशन की 14 फीसदी है। बेशक, अमेरिकी इस आंकड़े पर खुश हो सकते हैं क्योंकि इससे उनकी इकॉनमी को जबर्दस्त फायदा मिल रहा है।

हमारी प्रयोगशालाओं में फंडिंग की कमी के चलते नाममात्र की सहूलियतें मिलती हैं। कॉलेजों और लैब्स में ऐसे खुले दिमागों की भी भारी कमी है जो उन्हें लीक से हटकर कुछ नया करने को प्रेरित कर सके। भारत के शोध संस्थानों और विश्वविद्यालयों को योग्य शिक्षकों, वैज्ञानिक संगठनों में अच्छे वैज्ञानिकों छात्रों की कमी बनी हुई है। एक बार सरकार लोकसभा में खुद स्वीकार कर चुकी है कि बेंगलुरू स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएस) में स्वीकृत पदों के मुकाबले आधे से कम वैज्ञानिक शिक्षक हैं। राष्ट्रीय प्रौद्योगिक संस्थानों (एनआईटी) और भारतीय प्रौद्योगिक संस्थान (आईआईटी) में भी कुछ ऐसी ही स्थिति बनी हुई है। इसरो और डीआरडीओ जैसे महत्वपूर्ण अनुसंधान संगठनों में भी वैज्ञानिकों की कमी बनी रहती है।

इन खामियों के नतीजे स्पष्ट हैं। रिसर्च प्रोडक्टिविटी के मामले में भारत में एक हजार की आबादी पर 7.8 साइंटिस्ट हैं, जबकि कनाडा में यह प्रतिशत 180.66, साउथ कोरिया में 53.13 और अमेरिका में 21.15 है। नई रिसर्चों का यह अकाल पेटेंटों के मामले में हमारी स्थिति कमजोर बना रहा है। वर्ष 2010 में भारत में पेटेंट के लिए जो 36,812 अर्जियां दाखिल की गईं, उनमें से सिर्फ 7044 आवेदन देसी संस्थाओं से आए थे। शेष सारे विदेशों से आए थे। देसी 7044 आवेदनों में महज 1725 को मंजूरी मिलना साबित करता है कि इनोवेशन के मामले में उनका स्तर कैसा था। यही वजह है कि हमारी प्रयोगशालाओं में जो कुछ हो रहा है, वह इंडस्ट्री तक नहीं पहुंच रहा है। उसमें ऐसा कोई नयापन नहीं है जो इंडस्ट्री उसे अपनाने को प्रेरित हो। बहरहाल, साइंस कांग्रेस के हवाले से अब नई साइंस, टेक्नोलॉजी एंड इनोवेशन (एसटीआई) पॉलिसी को लागू करके विज्ञान में निराशाजनक माहौल को बदलने का दावा किया जा रहा है।
ब्रेन-ड्रेन पर रोक
उम्मीद करें कि अगले एक दशक में खास तौर से 2020 तक उस पॉलिसी के नतीजे मिलने शुरू हो जाएंगे। उम्मीद करें कि साइंस की बदौलत हमारा मकसद सिर्फ चंद्रयान भेजना या मंगल यात्रा का सपना साकार करना नहीं होगा, बल्कि इंडस्ट्री को छोटे-छोटे आविष्कारों का फायदा दिलाना, इंटरनेट कैसे गांव-देहात तक पहुंचे और बेहद कम कीमत में उसकी सेवाएं लोगों को मिले- यह सब हमारे अजेंडे पर रहेगा। मुफ्त की जो तेज धूप देश के चारों कोनों में बिखरी हुई है, सौर पैनलों के जरिए उससे हर अंधेरे का मुकाबला करने लायक रोशनी पैदा करने वाले आविष्कारों को अमल में लाना इस नई साइंस पॉलिसी का मकसद होना चाहिए। सबसे अहम बात यह कि कक्षाओं में विज्ञान के फॉर्म्युले रटाकर परीक्षा में पास कराने की भेड़चाल प्रवृत्ति से जितना जल्दी हो सके, देश को छुटकारा दिलाया जाए। वैज्ञानिकों का ब्रेन-ड्रेन, ब्रेन-गेन में बदला जाए और नई खोजों को हर लेवल पर प्रोत्साहन मिले। देखना है कि नई साइंस पॉलिसी इन मुद्दों पर गौर कर पाती है या नहीं।(ref-nbt.in) 
  

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