दुनिया की सबसे बड़ी सौर दूरबीन परियोजना पर
भारत जम्मू-कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र में दुनिया की सबसे बड़ी सौर दूरबीन
स्थापित करेगा। नेशनल लार्ज सोलर टेलिस्कोप (एनएलएसटी) नामक इस दूरबीन का
निर्माण कार्य इस साल के अंत में शुरू होने की उम्मीद है। दो मीटर के छिद्र
(एपरचर) वाली इस दूरबीन की मदद से भारतीय खगोल-वैज्ञानिकों को सौर धब्बों
की उत्पत्ति और उनके क्षय से जुड़ी प्रक्रिया को समझने में मदद मिलेगी। सौर
दूरबीन से सूरज के अंदर चल रही मूलभूत प्रक्रियाओं पर भी गहन अनुसंधान
किया जा सकेगा। इस प्रोजेक्ट पर करीब 300 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। इस
समय अमेरिका में एराइजोना स्थित किट पीक नेशनल आब्जर्वेटरी में स्थापित
मेक्मैथ-पियर्स दूरबीन दुनिया की सबसे बड़ी सौर दूरबीन है। इसका एपरचर 1.6
मीटर है। भारतीय सौर दूरबीन 2017 तक बन कर तैयार हो जाएगी। अमेरिका हवाई
में चार मीटर एपरचर की दूरबीन का निर्माण कर रहा है, जिसका संचालन 2020 में
शुरू होगा। तब तक लद्दाख की दूरबीन दुनिया की सबसे बड़ी दूरबीन बनी रहेगी।
बेंगलूर स्थित इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स के पूर्व निदेशक एसएस
हसन इस प्रोजेक्ट के चीफ इनवेस्टीगेटर हैं। कोलकाता में भारतीय विज्ञान
कांग्रेस के शताब्दी अधिवेशन के दौरान डॉ. हसन ने इस प्रोजेक्ट के विभिन्न
पहलुओं की विस्तार से जानकारी दी। डॉ. हसन के मुताबिक यह दूरबीन लद्दाख की
पंगोंग झील के निकट हानले या मेराक गांव में स्थापित की जाएगी। पूरी तरह से
तैयार होने के बाद इस दूरबीन की गिनती दुनिया की उन गिनी-चुनी सौर
दूरबीनों में होने लगेगी, जहां रात-दिन खगोल-वैज्ञानिक अनुसंधान किया जाता
है। इससे यूरोप और जापान के बीच देशांतर के अंतर को पाटने में भी मदद
मिलेगी।
डॉ. हसन का यह भी कहना है कि दूरबीन के बेहतर स्वदेशी डिजाइन और उन्नत
उपकरणों की मदद से सौर गतिविधियों का ज्यादा सटीक पर्यवेक्षण संभव होगा।
इससे सूरज के वायुमंडल में चुंबकीय क्षेत्रों के स्वरूप के बारे में
महत्वपूर्ण जानकारी मिल सकती है। बढ़ी हुई सौर गतिविधि पृथ्वी की संचार
प्रणाली और बाहरी हरी अंतरिक्ष में परिक्रमा करने वाले उपग्रहों को
प्रभावित कर सकती है। अत: हमारे लिए यह जानना जरूरी है कि सूरज के धब्बे
किस तरह बनते हैं और किस तरह से उनका क्षय होता है। सौर धब्बों की गतिविधि
बढ़ने से सूरज से सौर पवन यानी सोलर विंड के रूप में पदार्थ बाहर निकलता
है। इस सौर पवन में मौजूद विद्युत आवेशित कण उपग्रहों के संचालन में विघ्न
उत्पन्न कर सकते हैं और पृथ्वी के ऊपरी वायुमंडल में अणुओं के साथ क्रिया
कर सकते हैं। इससे जमीनी संचार प्रणालियां छिन्न-भिन्न हो सकती हैं। पृथ्वी
की निम्न कक्षा में मौजूद उपग्रहों को ज्यादा खतरा है क्योंकि बढ़ी हुई
सौर गतिविधि के दौरान अतिरिक्त गर्मी के कारण पृथ्वी का ऊपरी वायुमंडल फूल
जाता है। इससे उपग्रहों के क्षय की रफ्तार बढ़ जाती है। सौर गतिविधियों के
अध्ययन के अलावा खगोल-वैज्ञानिक रात में इस सुविधा का इस्तेमाल सौरमंडल से
बाहर दूसरे ग्रह अथवा महा-पृथ्वियां खोजने के लिए भी कर सकते हैं। सौर मंडल
से बाहर पहला ग्रह 1995 में खोजा गया था। तब से अब तक 800 से अधिक ग्रह
खोजे जा चुके हैं। नासा की केप्लर दूरबीन ने 2400 से अधिक संभावित बाहरी
ग्रहों की पहचान की हैं, जिनमें कुछ ग्रह पृथ्वी जैसे भी हैं। इन संभावित
ग्रहों की पुष्टि के लिए दूसरी वेधशालाओं द्वारा अध्ययन करना पड़ेगा। इस
दिशा में लद्दाख की प्रस्तावित दूरबीन एक बड़ी भूमिका अदा कर सकती है।
सौर दूरबीन का निर्माण बेंगलूर स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स
द्वारा किया जाएगा। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन, आर्यभट रिसर्च
इंस्टीटयूट ऑफ आब्जर्वेशनल साइंसेज, टाटा इंस्टीटयूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च
सहित कई संस्थान दूरबीन के निर्माण में सहयोग करेंगे। यह दूरबीन उच्चस्तरीय
सौर अनुसंधान के लिए एक उपयोगी मंच साबित होगी। इस सुविधा का लाभ उठाने के
लिए दुनिया के कई सौर खगोल-वैज्ञानिक भारत आ सकते हैं।
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