Saturday 15 December 2012

उच्च शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान दे सरकार

 संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता खत्म करने पर नहीं उच्च शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान दे सरकार
डा. प्रमोद पाठक
व्यावसायिक शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, प्रबंधन शिक्षा या कोई और नाम, भारत में आज उच्च शिक्षा इन्हीं के इर्द-गिर्द घूम रही है। आज इस 'उच्च शिक्षा' की क्या स्थिति है, इस पर चर्चा करने से पहले कुछ तथ्य जान लेना आवश्यक है। हाल की कई खबरें यह साबित कर रही हैं कि हमारी उच्च शिक्षा की स्थिति गुणवत्ता के पायदान पर ऊपर की तरफ न बढ़कर नीचे की तरफ जा रही है। पहले हमारे तथाकथित उत्कृष्टता के केन्द्रों की बात करते हैं। स्वयं सरकार में मंत्री जयराम रमेश का कथन है कि हमारे देश के शीर्ष तकनीकी संस्थान, जिन्हें भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान समूह कह सकते हैं, उच्च स्तरीय तो नहीं हैं। वे औसत हैं या नहीं, यह देखने वाली बात है। वैसे उनकी बात इस नाते सही लगती है कि दुनिया के शीर्ष-शिक्षण केन्द्रों में हमारे शिक्षण संस्थानों का उस तरह कोई बहुत सम्मानित स्थान नहीं है। एक समय था जब हमारे नालन्दा और तक्षशिला विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय थे और दुनिया के कई देशों के विद्यार्थी वहां पठन-पाठन करने आते थे। अब इनफोसिस के संस्थापक, जो भारतीय सहयोग, विशेषकर आज के सूचना तकनीकी उद्योग के विकास में अग्रणी स्थान रखते हैं, की बात करें तो उन्होंने भी भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान को विश्वस्तरीय नहीं माना है। समय-समय पर ऐसे कई राष्ट्रीय व वैश्विक सर्वेक्षण हुए हैं जिनमें भारतीय उच्च शिक्षा को औसत माना गया है। यह तो हुई उत्कृष्ट शिक्षण केन्द्रों की बात। अब अन्य तकनीकी व व्यावसायिक संस्थानों की बात करें तो कुछ ही दिन पहले देश की प्रतिष्ठित 'रेटिंग' व सर्वेक्षण एजेन्सियों ने अपने सर्वेक्षणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला था कि इन संस्थानों से उत्तीर्ण होने वाले छात्र-छात्राओं में से अधिकांश रोजगार के लायक नहीं हैं। एक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि आखिर ऐसा क्यों?
बाजारवाद का समावेश गलत
सबसे पहले यह जान लेना जरूरी होगा कि हमारे देश में शिक्षा की गुणवत्ता के मूल्यांकन के लिए जो संस्थाएं हैं वे सीधी तरह से सरकार के नियंत्रण में हैं। तकनीकी शिक्षा, प्रबन्धन शिक्षा, आयुर्विज्ञान आदि हर व्यावसायिक शिक्षा की गुणवत्ता के अनुश्रवण की जिम्मेदारी सरकार ने अपने पास रखी है। यानी कहीं न कहीं इस स्थिति के लिए जवाबदेही सरकार की बनती है। यहां यह भी जान लेना चाहिए कि पिछले वर्षों में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निजी भागीदारी की पुरजोर वकालत हुई और इसके परिणामस्वरूप तकनीकी, प्रबंधन और चिकित्सा के क्षेत्र में निजी संस्थानों की बाढ़ सी आयी। एक के बाद एक संस्थान खुलते गये जो व्यावसायिक शिक्षा के नाम पर 'शिक्षा की दुकानों' की शक्ल में काम करने लगे और मूल उद्देश्य शिक्षण न होकर व्यापार हो गया। दरअसल हमने उच्च शिक्षा में बाजारवाद का समावेश कर अमरीकी मॉडल की नकल करने की कोशिश की। वही कोशिश जो आज हम खुदरा व्यापार के क्षेत्र में कर रहे हैं। शिक्षा का क्या हाल है, यह तो सर्वेक्षणों से पता चल ही रहा है। डर है कि हमारे यहां कहीं शिक्षा में अमरीकीकरण का हश्र अन्य क्षेत्रों जैसा ही न हो जाए।
दरअसल शिक्षा के क्षेत्र में हमारे देश में कई प्रयोग होते आये हें जो समय-समय पर शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित करते रहे हैं। लेकिन बाजारवाद का शोर मचाने वाले इस तथ्य की अनदेखी करते गये कि बाजार की अनियंत्रित शक्तियां अन्ततोगत्वा भ्रष्टाचार को बढ़ावा देती हैं, जिसके कारण संस्थाओं का स्वरूप एवं चरित्र, दोनों ही बिगड़ जाते हैं।
ताकतवर समूहों का नियंत्रण
आज पूरे विश्व में बाजारवाद की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लग रहा है। यहां तक कि स्वयं अमरीका के लोगों ने रोमनी की बजाय ओबामा को फिर से राष्ट्रपति चुनकर बाजारवाद की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगा दिया है। दरअसल बाजारवाद एक आदर्शवादी अवधारणा पर आधारित है कि व्यवस्था स्वनियंत्रित होती है। किन्तु ऐसा नहीं होता। बल्कि इसके विपरीत बाजारवाद कुछ ताकतवर समूहों के हाथों नियंत्रित होता है। शिक्षा के क्षेत्र में आज अमरीकी बहकावे में यही हो रहा है। सरकार सबसे पहले यह तय करे कि हमारी तकनीकी शिक्षा की गुणवत्ता के मापदंड क्या हों। लेकिन इसके लिए भारतीय आवश्यकताओं के धरातल पर सोचने की जरूरत होगी। हमारे तकनीकी शिक्षा संस्थानों से उत्तीर्ण छात्र बाजार की मांग के अनुरूप हों न कि तकनीकी शिक्षा को ही बाजार बना दिया जाये, जिसका उद्देश्य ही मुनाफाखोरी हो। दरअसल उच्च तकनीकी को सशक्त बनाना हो तो उनमें शोध और प्रशिक्षण को विश्वस्तरीय बनाना होगा। और इसके लिए यह भी समझ लेना जरूरी है कि केवल कुछ थोड़े से अभिजात्य श्रेणी के संस्थानों को बढ़ावा देकर ऐसा करना संभव नहीं है। यह ठीक है कि कुछ संस्थान उत्कृष्टता के केन्द्र बनें, लेकिन अन्य संस्थानों की कीमत पर नहीं। यदि हम अमरीका की ही बात करें तो वहां हर संस्थान में सक्रियता से शोध होता है। नोबल पुरस्कार विजेता वहां के सामान्य संस्थानों और विश्वविद्यालयों से भी निकले हैं। हमारे देश में भी पहले विश्वविद्यालयों में शोध की परंपरा थी। किन्तु अभिजात्य संस्थानों का समूह खड़ा करने के बाद यह अवधारणा बनी कि शोध पर केवल इन्हीं का राज है। सरकार ने ऐसे अभिजात्य संस्थानों को जरूरत से ज्यादा दुलारा बना दिया और सामान्य श्रेणी के संस्थानों का एक दोयम समूह खड़ा कर दिया। यही वजह है कि आज देश में हर प्रदेश में आईआईटी खोलने की मांग हो रही है। लेकिन जो अन्य अच्छे संस्थान हैं उन्हें सबल एवं सक्षम बनाने का प्रयास नहीं हो रहा। उच्च शिक्षा एक अतिगंभीर विषय है और इस पर समग्र दृष्टि डालने की आवश्यकता है। आज संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता पर पुनर्विचार करने की बजाय शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए जिम्मेदार एजेन्सियों का सशक्तीकरण ज्यादा आवश्यक है। देश के बहुसंख्यक युवाओं और साथ ही देश का भविष्य इससे जुड़ा है। अमरीकी सलाहकारों के अलावा भी दुनिया में बुद्धिमान लोग हैं।

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