Saturday 22 September 2012

सवालों में तकनीकी शिक्षा

शिक्षा के व्यावसायीकरण पर शशांक द्विवेदी के विचार
दैनिक जागरण में प्रकाशित 
मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रवेश की प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही तकनीकी शिक्षा से जुड़े तमाम फर्जी संस्थान भी सक्रिय हो जाते हैं। इस सिलसिले में आल इंडिया काउंसिल ऑफ टेक्निकल एजुकेशन यानी एआइसीटीई ने देश के 336 मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग कॉलेजों को अवैध करार दिया है। जाहिर है इनके सर्टिफिकेट और डिग्री कहीं भी मान्य नहीं होंगे। इस सूची में उत्तर प्रदेश के 17, दिल्ली के 83, चंडीगढ़ के छह, हरियाणा के 15 हिमाचल प्रदेश का एक, पंजाब के छह तथा उत्तराखंड के दो संस्थान शामिल हैं। सबसे ज्यादा 123 कॉलेज अकेले महाराष्ट्र में हैं। यहां प्रमुख सवाल यही है कि वर्षो से ऐसे कॉलेज क्यों खुले हुए हैं और क्यों हर साल एआइसीटीई को ऐसी कार्रवाई करनी पड़ती है। दरअसल आज तकनीकी शिक्षा एक व्यवसाय बन गई है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि अब सरकार ही इसे व्यावसायिक बनाने पर तुली हुई है। विडंबना यह कि देश में तकनीकी शिक्षा के मौजूदा ढांचे को ठीक किए बिना ही विदेशी विश्वविद्यालयों को यहां आने की इजाजत दी जा रही है । मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल की मानें तो प्रत्येक उच्च शिक्षा संस्थान की मान्यता अनिवार्य बनाने के लिए इस वर्ष सरकार संसद में एक महत्वपूर्ण विधेयक लाने पर विचार कर रही है। मौजूदा शिक्षण संस्थानों को भी तीन साल के भीतर मान्यता प्राप्त करनी होगी। विधेयक में एक राष्ट्रीय प्राधिकरण के गठन का भी प्रस्ताव है जो मान्यता एजेंसियों का पंजीकरण और उन पर निगरानी रखेगी। यह विधेयक जरूरी है, लेकिन मौजूदा नियमों के अनुसार भी निजी संस्थान द्वारा संचालित कॉलेज एआइसीटीई की मान्यता के बिना प्रबंधन और तकनीकी शिक्षा नहीं दे सकते। देश में लगभग चार हजार कॉलेज इस संस्था से मान्यता लेकर विभिन्न विषयों की शिक्षा दे रहे हैं। देश में बिना मान्यता के चल रही कई संस्थाएं विदेशी विश्वविद्यालयों से मान्यता का दावा करती हैं, लेकिन देश में अभी विदेशी विश्वविद्यालयों को वैधानिक रूप से शिक्षा देने का अधिकार नहीं है। विदेशी विश्वविद्यालयों से मान्यता के संबंध में स्पष्ट कानून नहीं होने के कारण ही ऐसे इंस्टीट्यूट के संचालक कार्रवाई से बच जाते हैं। देश के अधिकांश निजी शिक्षा संस्थान बड़े व्यापारिक घरानों अथवा नेताओं और ठेकेदारों के व्यापार का एक हिस्सा हैं। जो केवल रुपया बनाना चाहते हैं। इन्होंने पूंजी के बल पर बडे़-बड़े आलीशान भवन खड़े कर रखे हैं। पर यह शैक्षणिक गुणवत्ता के मामले में फिसड्डी ही हैं। निजी क्षेत्र की संस्थाएं सस्ते वेतनमान पर किसी को भी शिक्षक बनाकर विद्यार्थियों को धोखा देने का काम कर रही हैं। इसका नतीजा शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट के रूप में सामने है। अगर यही सिलसिला चलता रहा तो आने वाले समय में हमारे समाज में घटिया दर्जे के स्नातकों की बड़ी फौज खड़ी हो जाएगी। देश में हर साल करीब साढ़े चार लाख छात्र इंजीनियरिंग करते हैं, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इन लाखों छात्रों में से 60 से 70 प्रतिशत छात्रों को कंपनियां काबिल नहीं मानतीं। देश में गरीबी के कारण अधिकांश माता-पिता अपने बच्चों को तकनीकी शिक्षा नहीं दिला पाते और वे पिछड़े के पिछड़े रह जाते हैं। यहां समझने वाली बात है कि तकनीकी शिक्षा की सीढ़ी वही छात्र पार कर पाते हैं जिनके अभिभावक आर्थिक रूप से सक्षम होते हैं। यहां एक बात और है जो छात्र लाखों रुपये खर्च कर किसी तरह पढ़ाई पूरी कर लेते हैं और बाद में जब वह अयोग्य बताए जाते हैं तो कहीं न कहीं हमारी शिक्षा व्यवस्था पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा होता है। इन परिस्थितियों में अधिकतर छात्र इंजीनियरिंग की शिक्षा लेने के बाद बेरोजगारी का दंश झेलने को मजबूर होते हैं। तकनीकी और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सिर्फ विधेयक बनाने से ही कुछ नहीं होगा, बल्कि इसमें सुधार के लिए बुनियादी स्तर पर काम करना होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं) 
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