ऐतिहासिक और
गौरवशाली क्षण
मंगल पर जीवन की
तलाश में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का सबसे हाई टेक मार्स रोवर क्यूरियोसिटी
लाल ग्रह की सतह पर सफलतापूर्वक उतर गया । यह पूरी दुनियाँ के लिए एक ऐतिहासिक और
गौरवशाली क्षण है ,क्योंकि 5.7 करोड़ किलोमीटर के सफर के बाद मंगल ग्रह पर इंसान के सबसे बड़े प्रयोग का
पहला चरण कामयाब हुआ हुआ है . अब
क्यूरियोसिटी से मंगल के बारें में सटीक जानकारी मिल सकेगी . वैज्ञानिकों ने नौ साल की कड़ी मेहनत के बाद क्युरिऑसिटी रोवर
को मंगल यात्रा पर भेजने के लिए तैयार किया था .जिस पर करीब 2.5 अरब डॉलर का
खर्च आया है, अंतरिक्ष में भेजी गई अब तक की सबसे उन्नत
प्रयोगशाला के भाग्य का फैसला सिर्फ सात मिनट के अंदर हुआ । इंजीनियरों और वैज्ञानिकों के लिए ये सात
मिनट बहुत महत्वपूर्ण रहें । इन्हीं सात मिनटों के दौरान आज मंगल की सतह पर रोवर
को उतारा गया । क्यूरियोसिटी की लैंडिंग हैरतअंगेज तरीके से हुई . मंगल की सतह से 25 फुट ऊपर एक यान रुका. एक कवच खुला और फिर चेनों के सहारे एक छोटी कार
जितना बड़ा रोवर क्यूरियोसिटी धीरे धीरे हवा में झूलता नीचे उतरने लगे. एक टन भारी
क्यूरियोसिटी को यान से तीन किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से सावधानीपूर्वक नीचे
उतारा गया.
मंगल के वातावरण
में दाखिल होते वक्त यान की रफ्तार 21,243 किलोमीटर प्रतिघंटा थी. इस
रफ्तार को शून्य पर लाने के लिए कई जोखिम भरी कलाबाजियां की गईं. ये सब सात मिनट
के भीतर हुआ. लैंडिंग की इस पूरी प्रक्रिया पर ओडिसी उपग्रह से नजर रखी गई. नासा
का ओडिसी उपग्रह मंगल की कक्षा में है.
अंतरिक्ष यान
क्यूरियोसिटी रोवर कई मायनों में बेहद खास है. ये न सिर्फ नासा की ओर से बनाया गया
अबतक का सबसे भारी और बड़ा अंतरिक्ष यान है बल्कि नासा के दस सबसे विशिष्ट और
तकनीक संपन्न अंतरिक्ष उपकरणों को लेकर गया है. पहली बार वैज्ञानिकों की मदद के
बिना किसी अंतरिक्ष यान की स्वाचालित ‘लैंडिंग’
हुई . अंतरिक्ष विज्ञान के इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ है.
लाल ग्रह यानी
मंगल पर जीवन की संभावनाओं को लेकर वैज्ञानिकों ही नहीं, आम आदमी की भी उत्सुकता लंबे अरसे से रही है. इस
जिज्ञासा के जवाब को तलाशने के लिए कई अभियान मंगल ग्रह पर भेजे भी गये. इसका
मुख्य काम यह पता करना है कि क्या कभी मंगल ग्रह पर जीवन था. क्यूरियोसिटी मंगल
ग्रह की मिट्टी के नमूनों को इकट्ठा कर यह पता लगायेगा कि क्या कभी मंगल पर जीवन
था या नहीं?
इस अभियान का
उद्देश्य यह पता लगाना है कि वहां सूक्ष्म जीवों के जीवन के लिए स्थितियां हैं या
नहीं और अतीत में क्या कभी यहां जीवन रहा है. नासा के कार की आकार का क्यूरियोसिटी
रोवर को लाल ग्रह पर जीवन के प्रमाण का पता लगाने के लिए अधिक गड्ढे खोदने की
जरूरत नहीं प.डेगी. एक अध्ययन में कहा गया है कि इसकी सतह के महज कुछ इंच तक खुदाई
से ही जटिल कार्बनिक अणुओं का पता लगाया जा सकता है. इससे यह पता लग सकता है कि
मंगल पर कभी जीवन का अस्तित्व था या नहीं.
वैज्ञानिकों के
मुताबिक, यह जटिल कार्बनिक अणु 10 या
उससे अधिक कार्बन परमाणुओं से मिलकर बने हंै और जीवन के बिल्डिंग ब्लॉक के समान
माने जाते हैं. जैसे इसमें पाये जाने वाले अमीनो अम्ल से प्रोटीन का निर्माण होता
है. हालांकि,इसकी सतह के दो से तीन इंच के नीचे विकिरण दस
गुना कम हो जाता है. लेकिन,फिलहाल सबसे बड़ी चुनौती यह है कि
पूर्व के यानों को किसी भी तरह का कार्बनिक पदार्थ नहीं मिला था.
क्यूरियोसिटी
अपने साथ ऐसे उपकरणों को ले गया है, जिससे वह चट्टानों और मिट्टी के नमूनों की जांच वहीं कर सकता है. पहले के
मिशन पर भेजे गये यानों में इस तरह की कोई सुविधा नहीं थी. इसमें दो रोबोटिक हाथ
लगे हैं, जो विभित्र उपकरणों को संचालित करने के काम आते
हैं. इसी से यह मंगल ग्रह की सतह की खुदाई करेगा और मिट्टी को विश्लेषण के लिए यान
के दूसरे उपकरण के पास भेज देगा. इसमें प्लूटोनियम बैट्री है, जिससे इसे दस साल से भी ज्यादा समय तक लगातार ऊर्जा मिलती रहेगी.
वैज्ञानिक को अब
इस बात का पता लगाना है कि मार्स का उत्तरी गोलार्ध सतही और नीचे क्यों है? कहा जाता है
कि कभी इस सतह पर पानी बहने के कारण एेसा हुआ होगा। जबकि दक्षिणी गोलार्ध काफी
उबड़-खाबड़ और पथरीला क्यों है? मार्स का दक्षिणी गोलार्ध
उत्तरी गोलार्ध से करीब 4-8 किलोमीटर ऊंचा है. मार्स पर
मिथेन की खोज ‘मार्स एक्सपे्रस स्पेसक्रॉफ्ट’ ने 2003 में की थी। दरअसल, मिथेन
सिंपल ऑर्गेनिक मोलेक्यूल है, जो सड़े हुए पदार्थ से पैदा
होती है। मार्स के वातावरण में मिथेन गैस पिछले 300 सालों से
ही है। अब सवाल यह है कि मार्स के वातावरण में मिथेन कहां से आया? ‘
दुनिया के
हजारों वैज्ञानिकों के कैरियर क्युरिऑसिटी के साथ जुड़े हुए हैं। रोवर की सफल
लैंडिंग के बाद वे कम से कम दो साल तक मंगल से मिले नए डाटा का विश्लेषण करते
रहेंगे। मंगल का वायुमंडल पृथ्वी की तुलना में 200 गुना पतला है। उसका गुरुत्वाकर्षण एक-तिहाई है। ऐसे में एक टन वजनी रोवर
को उतारना बहुत ही चुनौतीपूर्ण काम रहा है । रोवर से पृथ्वी तक संदेश भेजने में 14 मिनट लगेंगे। इतना ही समय पृथ्वी से रोवर को कोई निर्देश भेजने में
लगेगा। मंगल सौरमंडल में सबसे आकर्षक लक्ष्य है, लेकिन वहां
पहुंचना आसान नहीं है। 1971 से अब तक मंगल पर 17 मिशन भेजे जा चुके हैं, जिनका लक्ष्य सतह पर
लैंडिंग करना था। इनमें से दस मिशनों को विफलता का सामना करना पड़ा। यह चौथा मौका
है जब नासा का रोवर मंगल की सतह पर उतरा है. क्यूरियोसिटी मंगल पर भेजा गया सबसे
बड़ा रोवर है. पहली बार नासा ने 1997 में मंगल पर रोवर भेजा.
उसके बाद 2004 में दो रोवर भेजे गए. इन रोवरों ने मंगल से कई
तस्वीरें भेजीं. अब आगे की खोज का काम क्यूरियोसिटी करेगा.
क्यूरियोसिटी के
सामने गेल कार्टर पर चढ़ने की चुनौती है. गेल कार्टर मध्य मंगल की एक चट्टान है.
इसकी जांच करने के लिए क्यूरियोसिटी को पांच किलोमीटर की चढ़ाई करनी होगी. अब तक
की रिसर्च से लगता है कि मंगल की चट्टानों में पानी का अंश मौजूद है. क्यूरियोसिटी
के भीतर ही एक प्रयोगशाला है. रोवर पता लगा सकेगा कि क्या मंगल पर एककोशिकीय जीवन
फूटा था या इसकी संभावनाएं हैं.
पिछले
हफ्ते भारत ने भी मिशन मून की कामयाबी के
बाद मंगल ग्रह के लिए उपग्रह छोड़ने की मंजूरी दे दी है । भारतीय अंतरिक्ष
अनुसंधान संगठन (इसरो) 25 किलोग्राम वैज्ञानिक
पेलोड के साथ उपग्रह को मंगल के लिए अगले साल नवंबर तक छोड़ सकता है। यह एक
सकारात्मक संकेत है जिससे भारतीय वैज्ञानिकों को भी सूक्षमता से मंगल का अध्यनन
करने का मौका मिलेगा .
क्यूरियोसिटी
रोवर की इस सफलता से दुनिया को बहुत
उम्मीदें ।इसके जिनके जरिए ग्रह की
चट्टानों, मिट्टी और वायुमंडल का विश्लेषण किया जा सकता है।
जिससे दुनियाँ को मंगल के अतीत के बारे महत्वपूर्ण जानकारी मिल सकती
हैं साथ में यह पता चल सकता है कि
अतीत में मंगल पर कितना पानी था, क्यां वहां की परिस्थितियां
जीवन के अनुकूल थीं और ऐसे क्या कारण थे, जिनकी वजह से यह
ग्रह आज एक बंजर लाल रेगिस्तान में तब्दील हो गया। मंगल की नई विज्ञान प्रयोगशाला
ग्रह पर भेजे गए पिछले मिशनों से प्राप्त अनुभवों पर आधारित है। नए मिशन में उन
तकनीकों को शामिल किया गया है, जो आगे चल कर मंगल से नमूने
लाने में मदद करेगी और अंतत: वहां मनुष्य के मिशन को सुगम बनाएगी।
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