Tuesday 31 July 2012

कैसे दूर होगा बिजली संकट?


बिजली संकट पर विशेष 
देश में बिजली संकट लगाताार गहराता जा रहा है। देश अभी नार्दर्न ग्रिड फेल होने के संकट से पूरी तरह उबर नहीं पाया था कि अब  नार्दर्न के साथ-साथ ईस्टर्न ग्रिड भी फेल हो गया  है। इस संकट के चलते देश के 18  राज्यों में पावर सप्लाई ठप पड़ गई । उत्तर भारत के अलावा आज बिहार, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, असम, के अलावा कई राज्यों को बिजली के संकठ का सामना करना पड़ रहा है। पूर्वोत्तर में कई जगह 250 ट्रेनें फंसी हैं तो दिल्ली के पास करीब 150 ट्रेनों के फंसे होने की खबर है। दिल्ली में मेट्रो सेवा पूरी तरह से ठप पड़ गई है। ट्रेनें पटरियों पर खड़ी रह गई हैं। लोगों को खासा परेशानी का सामना करना पड़ रहा है
पूरे उत्तर भारत में एक साथ बिजली आपूर्ति के बंद होने से साफ है कि कोई बहुत बड़ी समस्या है। यह समस्या बहुत हद तक बिजली की माग व आपूर्ति को लेकर है। देश के आधे से ज्यादा राज्यों में वर्तमान बिजली संकट की मुख्य वजह राज्यों द्वारा तय सीमा से ज्यादा बिजली उपयोग करने को लेकर है जिसकी वजह से ग्रिड फेल हो गए . इस स्थिति से निकलने का एक ही रास्ता है कि पूरे बिजली क्षेत्र में जबरदस्त सुधार की प्रक्रिया शुरू की जाए। सरकार अगर चाहती है कि भविष्य में इस तरह की घटना दोबारा न हो तो उसे दो काम तुरंत करने चाहिए। पहला, बिजली प्लाटों को कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित करवाए। दूसरा, राज्यों के बिजली वितरण निकायों को सुधारे। विशेषज्ञों का कहना है कि देश के आधे हिस्से में एक साथ बिजली कटौती होने से काफी नकारात्मक संदेश जाएगा। यह न सिर्फ पावर क्षेत्र में निवेश करने की योजना बना रही कंपनियों को डरा सकता है, बल्कि अन्य उद्योगों में पैसा लगाने वाले उद्यमी दोबारा सोचने पर मजबूर हो सकते हैं। खास तौर पर सरकार अभी 12वीं पंचवर्षीय योजना के लिए बिजली परियोजनाओं को अंतिम रूप देने में लगी है। इस योजना में पहले 85 हजार मेगावाट बिजली क्षमता जोड़ने का लक्ष्य रखा गया था। अब आर्थिक विकास दर के घटने की संभावना को देखते हुए सरकार बिजली उत्पादन के संभावित लक्ष्य को भी कम करने पर विचार कर रही है। इस बारे में अगले महीने फैसला होगा। यह तो पहले ही साफ हो गया है कि 12वीं योजना में गैस आधारित बिजली प्लाट नहीं लगेंगे। इसी वजह से गैस आधारित बिजली प्लाटों का भविष्य अनिश्चित दिख रहा है .कोयले की अनिश्चितता से अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट भी लटके है .देश के कई राज्य बिजली क्षेत्र में सुधार को आगे बढ़ाने में सुस्ती दिखा रहे है साथ में कई राज्यों में  के बिजली वितरण निकायों की स्थिति बदहाल है .इन सबके साथ ही नीतिगत अस्पष्टता से बैंक प्राइवेट पावर प्लांट  को कर्ज देने में आनाकानी करते है जिससे इन योजनाओं पर असर पड़ता है ।
भारत में 22 हजार मेगावाट बिजली इसलिए नहीं बन पा रही है, क्योंकि उसके लिए पर्याप्त मात्रा में ईधन नहीं है। वहीं, देश के अधिकाश हिस्से बिजली की भारी कमी से दो चार हैं। पूरा बिजली क्षेत्र जबरदस्त संकट से गुजर रहा है। नई बिजली परियोजनाओं को कोयला लिंकेज नहीं मिल रहे हैं। जिन बिजली प्लाट को लिंकेज मिले भी है उन्हें पर्याप्त कोयला नहीं मिल रहा है। हालात इतने बिगड़ गए हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय [पीएमओ] के हस्तक्षेप के बावजूद स्थिति नहीं सुधर रही।
ऊर्जा मंत्री के अनुसार राज्यों द्वारा बिजली की अत्यधिक खपत के चलते यह संकट खड़ा हुआ है। फिक्की के अनुसार कोयला आपूर्ति में बाधा नहीं दूर की गई तो देश की बिजली इकाइयों के सामने बंदी का संकट पैदा हो सकता है। यह जल्दी ही आने वाले बिजली संकट का संकेत है। देश के  विकास की कहानी ऊर्जा की सप्लाई और निरंतरता के आधारभूत प्रश्नों पर टिकी हुई है। ऊर्जा के बिना आर्थिक सुधार कार्यक्रमों का भी जारी रखना संभव नहीं हो सकेगा। इसलिए यह भारत के लिए सबसे बड़ा संकट है। लेकिन हमारी सरकार ने ऊर्जा के बारे में इन विभिन्न चुनौतियों को लगातार नजरअंदाज किया है। कोयले पर ध्यान, तेल सौदों की हमारी तलाश और पारंपरिक विकास के मॉडल पर हमारा जोर यह सब उसी पुरानी शैली की अर्थव्यवस्था के संकेत हैं जो नई वास्तविकताओं को नकार रही है। इसलिए अब हमें वैकल्पिक उर्जा स्रोतों पर गंभीरता से विचार करना होगा . ऊर्जा का भारी संकट देश के लिए आर्थिक रूप से विनाशकारी होगा। लेकिन हमारी सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हमारे पास कोई रूपरेखा नहीं है। अब कोयले और तेल के मूल्यों की बढ़ती कीमतें हमारी स्थिति को चुनौती दे रही है।
देश के कई बिजलीघर कोयले के संकट का सामना कर रहे हैं। हमारे 86 बिजलीघरों में कोयले को ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। घरेलू उत्पादन में कमी होने के कारण कोयले का आयात भी काफी बढ़ गया है, जिससे अंतरराष्ट्रीय बाजार में कोयले की कीमतें और बढ़ गई हैं। कोयले की आपूर्ति में गिरावट के कारण देश के कई इलाकों में बिजलीघर ठप होने के कगार पर पहुंच गए हैं। इस बिजली संकट के लिए कोयला मंत्रालय और ऊर्जा मंत्रालय समान रूप से जिम्मेदार हैं। हमारे बिजलीघर अपनी उत्पादन क्षमता का पूरा उपयोग नहीं करते हैं। इनमें निर्धारित क्षमता का पचास फीसदी उत्पादन भी नहीं होता है। कहीं कोयले का संकट है तो कहीं संयंत्र पुराने पड़ चुके हैं। राज्यों को जो बिजली मिलती है उसमें भी एक तिहाई से अधिक बिजली की लाइन लास के नाम पर चोरबाजारी की जाती है। बड़े-बड़े बकायेदारों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की जाती। हमारे राजनेताओं और अधिकारियों को जहां अपनी काबलियत और कौशल को दिखाना चाहिए वहां वे नकारा साबित होते हैं। यही कारण है कि हमारी बिजली परियोजनाएं बहुत पीछे चल रही है।

विकसित भारत के लक्ष्य को बिना  बिजली के कैसे प्राप्त किया जा सकता है। जब बिजली की विकास दर 8.3 फीसदी से घटकर 3.3 फीसदी हो गई तो वर्तमान विकास की दर को बनाए रखना भी एक चुनौती ही होगी। कई राज्य सरकारों की लोकलुभावन योजनाओं से भी बिजली संकट गहराया है। किसानों और बुनकरों को मुफ्त बिजली देने की घोषणाओं से बिजली सुधार के कार्यक्रमों को झटका लगा है। बिजली क्षेत्र में सुधारों की असफलता भारत के आर्थिक उदारीकरण का सबसे बदनुमा दाग है। बिजली चोरी और सरकार की लोकलुभावन योजनाओं से राज्यों की बिजली वितरण कंपनियों का घाटा (2005-10 के बीच) 820 अरब रुपये पर पहुंच गया। बिजली पर दी जा रही सब्सिडी इसके अलावा है। इन कंपनियों के 70 फीसदी घाटे बैंकों के कर्ज से पूरे हुए हैं। राज्यों की बिजली कंपनियों व बोर्डों पर बैंकों की बकायेदारी 585 अरब रुपये की है, जिसमें 42 फीसदी कर्ज के पीछे सरकारों की गारंटी है। अर्थात अगर बिजली कंपनियां डिफाल्ट होती हैं तो प्रदेश सरकारों के पास 60 फीसदी कर्ज देने लायक संसाधन ही नहीं हैं। बिजली बोर्ड डूबे तो एक नए किस्म का वित्तीय संकट आ सकता है। सूबों को यदि बचना है तो उन्हें बिजली कंपनियों में घाटे के इन तारों को बंद करना होगा।
तरक्की की बयार ने देश की तस्वीर बदलकर रख दी है। जीवन का स्तर ऊंचा उठा है तो बिजली की मांग ने भी सुरसा की तरह मुंह फैलाया है। घर-घर में बढ़े उपकरणों ने बिजली की मांग को जिस तेजी से बढ़ाया है उससे सरकारों के हाथ-पांव फूल गए हैं। असह्यं गर्मी के इस दौर में आए दिन जाम लग रहे हैं और लोग बिजली दफ्तरों को घेर रहे हैं। कानून व्यवस्था की स्थिति गड़बड़ा रही है। रिश्वत और कमीशनखोरी के मकड़जाल में फंसी सरकारी मशीनरी खुद को लाचार पा रही है। पुरानी बिजली परियोजनाएं कभी पूरा उत्पादन कर नहीं पाईं, नई परियोजनाओं के लिए स्थितियां दूभर हैं। खतरा देश की तरक्की की रफ्तार के प्रभावित होने का है।

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