भारतीय शोध
माइक्रोसाफ्ट ऑफिस वर्ल्ड में कट-कॉपी-पेस्ट का
विकल्प बनाने वाले ने कभी यह नहीं सोचा होगा कि यह नुसखा शिक्षा के क्षेत्र में एक
नई इबारत लिखेगा। न केवल शोधपत्रों में इसका बहुतायत से उपयोग होगा, बल्कि
शिक्षा क्षेत्र के धुरंधर भी धड़ल्ले से इसका उपयोग करते दिखाई देंगे।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने विश्वविद्यालयों
में प्रोफेसरों, एसोसिएट
प्रोफेसरों और असिस्टेंट प्रोफेसरों की शैक्षणिक और व्यावहारिक समझ को परखने के
लिए एक इंडेक्स का निर्माण किया है, जिसे एकेडमिक
परफॉर्मेंस इंडेक्स (एपीआई) कहते हैं। इसमें प्रोफेसरों, एसोसिएट प्रोफेसरों और
असिस्टेंट प्रोफेसरों द्वारा की जाने वाली विभिन्न गतिविधियों के लिए अंक
निर्धारित हैं। इसके मुताबिक जिसे ज्यादा अंक मिलेगा, वह उतना बड़ा महारथी
होगा। यूजीसी ने एपीआई का निर्माण इसलिए किया था, ताकि हमारे देश के
विश्वविद्यालयों में शोध का स्तर सुधरे। प्रोफेसर कहलाने वाले अध्यापक खुद को
विशेषज्ञ बनाएं और क्लास के स्तर पर ही नहीं, बाहरी स्तर पर भी खुद
को दक्ष बनाएं।
पर वस्तुतः हो इसका उलटा रहा है। शैक्षणिक धुरंधरों
के बीच नंबर बढ़ाने की एक होड़-सी लग गई है, हर कोई लेखक बन रहा है, हर
कोई शोधकर्ता बन रहा है। रेफरीड, आईएसबीएन और आईएसएसएन
नंबर वाले जर्नल्स की फौज कुकुरमुत्तों की तरह पनप रही है। इनमें शोधपत्र प्रकाशित
करवाने के लिए बोली लगने लगी है, जो जितना ज्यादा पैसा
देगा, उसका
शोधपत्र छपेगा, चाहे
वह निम्न स्तर का ही क्यों न हो।
विश्वविद्यालयों में एसोसिएट प्रोफेसर या प्रोफेसर
बनने का मानदंड भी एपीआई अंक हो गया। यहां तक कि तरक्की के लिए भी इसे ही आधार
बनाया जाने लगा। यही वजह है कि हमारे देश में सामाजिक शोध की स्थिति आशाजनक प्रतीत
नहीं होती। गुणवत्तापरक शोध के लिहाज से एपीआई जैसी प्रक्रिया महज एक दुर्भाग्य
जैसी नजर आ रही है।
इसका एक और दुष्परिणाम यह हुआ कि देश में राष्ट्रीय
और अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों की बाढ़-सी आ गई। इसके चलते पिछले चार महीनों में
चार राज्यों - दिल्ली, उत्तराखंड, मध्य
प्रदेश, उत्तर
प्रदेश में सामाजिक शोध से जुड़े पांच अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में मुझे भी
भागीदारी का मौका मिला। इन संगोष्ठियों में एक हजार से अधिक शोधपत्र पढ़े गए।
इनमें हिस्सा लेने वालों शोधकर्ताओं और शोध पत्रों की संख्या देखकर किसी को भी
आश्चर्य हो सकता है। शोधकर्ताओं और शोधपत्रों की इतनी बड़ी संख्या के बारे में
जिज्ञासा जताने पर एक साथी शोधकर्ता ने बताया कि यह एपीआई का जमाना है, जिसमें
हर किसी को ज्यादा नंबर लाना है। हद तो तब हो गई, जब एक संगोष्ठी में
एक प्रोफेसर साहब ने 11 शोध पत्रों में अपना नाम जोड़ दिया और
वह खुद कई एकेडमिक सत्रों के अध्यक्ष भी रहे। इन संगोष्ठियों में पढ़े गए
शोधपत्रों का स्तर देखने पर लगा कि हमारे देश में शोध अब तेजी से पतन की ओर
अग्रसर है। संगोष्ठियां सर्टिफिकेट बांटने की दुकानों की तरह सजने लगी हैं।
शोधकर्ता अब अध्ययन और अनुसंधान के सहारे नहीं, बल्कि कट-कॉपी-पेस्ट
तकनीक का उपयोग कर खुद को प्रतिभाशाली दिखाने कोशिश करने लगे हैं।स्थिति यह है कि उच्च शिक्षा में सुधार की दृष्टि से
बनाया गया एपीआई अपने मूल उद्देश्यों से भटक गई है। पहले से ही बदहाल उच्च शिक्षा
और शोध की स्थिति सुधारने में एपीआई मर्ज की दवा बनने के बजाय इसे और भी गहरा रही
है। ऐसे में जरूरी है कि यूजीसी इसका शीघ्र ही तोड़ खोजने की कोशिश करे, अन्यथा
ज्यादातर भारतीय शोधकर्ता कट-कॉपी-पेस्ट का पुरोधा बन बैठेगा। फिर तो शैक्षणिक
जगत में स्थिति और भी भयावह एवं अराजक बन जाएगी। उच्च शिक्षा में सुधार और शोध की स्तरीयता के लिए
बनाया गया एपीआई अपने उद्देश्यों से ही भटक गया है, जो इस मर्ज को बढ़ा ही
रहा है।(लेखक -आदित्य शुक्ला )
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