जहां चीन, भारत और दूसरे देश आर्थिक प्रगति व अनुसंधानों में निवेश क्षमता को बढ़ा रहे हैं, वहीं इन मामलों में यूरोप ढलान पर है। दरअसल, हाल के वर्षों में यूरोप ने विज्ञान आधारित अपनी ताकत की लगातार उपेक्षा की है, जबकि यह शक्ति उसके सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा रही है और उसने उसकी पहचान गढ़ी है।
बहरहाल, यह जानने के लिए कि विज्ञान यूरोप के लिए क्या-क्या कर सकता है, यह समझना महत्वपूर्ण है कि वह यूरोप के लिए क्या-क्या नहीं कर सकता। यानी यह ऐसे परिणाम नहीं दे सकता, जिससे तत्काल कमाई की जा सके। दरअसल, आधुनिक शोधों के अगुवा अब नए तरीके से काम कर रहे हैं। जाहिर है, इसके लिए नए हुनर व ज्ञान की जरूरत है, जो समाज में व्याप्त होकर उत्पादन और सेवाओं में गुणात्मक सुधार ला सके।
विज्ञान मानव समाज की एकमात्र ऐसी चीज है, जिसमें एक काल को दिशा देने की क्षमता है। क्षणभंगुर भविष्य में भी भरोसा पैदा करता है विज्ञान। आधुनिक विज्ञान की शुरुआत 300 साल पहले यूरोप में ही हुई थी। तब इस क्षेत्र में बहुत कम लोग थे। संभवत: हजार से ज्यादा नहीं थे, जब वैज्ञानिक क्रांति अपने चरम पर थी। उस वक्त प्रयोग के जो तरीके ईजाद हुए, उन्हें प्रयोगशालाओं के सहारे हर जगह पहुंचाया गया। बाद में उन्होंने हुनर को वैज्ञानिक प्रगति से जोड़ा, ताकि औद्योगिक क्रांति को रफ्तार मिले।
इस तरह से विज्ञान और प्रौद्योगिकी एक-दूसरे को मजबूती देने लगे। 1700 में यही हुआ था और आज भी यही सत्य है। चलिए, भविष्य की ओर निगाह डालते हैं। 2050 तक धरती की आबादी नौ अरब हो जाएगी। छह अरब एशिया की आबादी होगी, एक अरब अफ्रीका और डेढ़ अरब अमेरिकी क्षेत्र की। बाकी आधे अरब लोग यूरोप में रहेंगे। ऐसे में, नए ज्ञान व तकनीक की प्राथमिकता रहेगी। अगर यूरोप चाहे, तो वैज्ञानिक क्षेत्र में उसकी तूती फिर से बोल सकती है। वह नई वैज्ञानिक क्रांति का अगुआ बन सकता है, क्योंकि उस पर कम आबादी की बोझ रहेगी। लेकिन इसके विपरीत स्थिति यह है कि वहां की वैज्ञानिक संस्थाएं नई वैश्विक चुनौतियों में फंस गई हैं।
शंघाई डेली, चीन
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