Friday 18 May 2012


देश का कोई भी संस्थान जब नयी नीतियां पारित करता है तो यह अपेक्षा की जाती है कि नयी नीतियों के तहत बनने वाले नियम, कानून, पहले की अपेक्षा ज्यादा सरल और जन सुलभ होंगे. उच्च शिक्षा के विकास के लिये जब १९५३ में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू.जी.सी.) बनाया गया तो उसके आधार में १९४८-४९ में शिक्षा को लेकर बनायी गयी राधाकृष्णन कमेटी की वह रिपोर्ट थी जिसमें कुछ महत्वपूर्ण सिफारिसें की गयी थी. उन सिफारिसों में शिक्षा को लोगों के जीवन से जोड़ते हुए उसे लोगों की आवश्यकता और अभिरुचि के मुताबिक बनाना था. इसमे राष्ट्रीय समरसता कायम करने और लोगों की उत्पादकता को बढ़ाते हुए आधुनिक शिक्षा पर जोर देने की बात कही गयी थी. पिछले ५७ वर्षों के अपने इतिहास में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कई महत्वपूर्ण काम भी किये. मसलन जहाँ देश में १९४७ के वक्त महज २० विश्वविद्यालय थे उनकी संख्या बढ़कर आज ४०० से अधिक हो चुकी है, ५०० से कालेज की संख्या २० हजार से ऊपर पहुच गयी है और पाँच लाख से अधिक अध्यापक उच्च शिक्षा में अध्यापन कर रहे हैं, भले ही इनकी गुणवत्ता में कमी हो पर संसाधन के तौर पर यह एक बेहतर स्थिति बन पायी.
राधाकृष्णन
 आयोग के बाद उच्च शिक्षा को लेकर १९६४-६६ में कोठारी आयोग बनाया गया. उच्च शिक्षा को बेहतर बनाने के लिये उसने कुछ महत्वपूर्ण सिफारिसे की थी. जिसमे जी.डी.पी. का  प्रतिशत उच्च शिक्षा पर खर्च किया जाने की बात कही गयी थी ताकि उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में बृद्धि की जा सके और समान  समता परक शिक्षा उपलब्ध करायी जा सके. इसके पीछे निहित उद्देश्य यह थे कि ग्रामीण  शहरी क्षेत्रों में जो विभेदीकृत शिक्षा प्रणाली है उसे सुधारा जा सके. चूंकि एक बड़ा तबका है जो गाँवों में रहते हुए उच्च शिक्षा से वंचित रह जा रहा था. कोठारी आयोग की ज्यादातर सिफारिसे कागजों पर धरी रह गयी और गांवों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र यू.जी.सी. द्वारा कई अन्य वंचनाओं का शिकार होते गये.
२००६
 में राष्ट्रीय मान्यता मूल्यांकन परिषद (एन...सी.) ने उन कालेजों की गुणवत्ता पर एक सर्वे किया जो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अंतर्गत थे, जिनकी संख्या १४ हजार के करीब थी. इनमे से महज  प्रतिशत कालेज ही ऐसे थे जो उच्च गुणवत्ता की शिक्षा मुहैया करा रहे थे. निम्न गुणवत्ता के ज्यादातर कालेज ग्रामीण क्षेत्रों से ही थे.
सुखदेव
 थोराट के विश्वविद्यालय अनुदान आयोग आध्यक्ष बनने के बाद कुछ जरूरी कदम इस तौर पर उठाये गये जिससे समता  समानता आधारित शिक्षा को बढ़ावा मिला. यहाँ दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों  महिलाओं की कम भागीदारी को  सिर्फ चिन्हित किया गया बल्कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों से उच्च शिक्षा में प्रवेश लेने वाले छात्रों के असमान अनुपात को भी चिन्हित किया गया. जहाँ २००३ में ग्रामीण क्षेत्रों से प्रवेश लेने वाले छात्रों की संख्या .७६ थी वहीं शहरी क्षेत्रों से २७.२० प्रतिशत छात्र उच्च शिक्षा में प्रवेश पा रहे थे. नवम्बर २००६ में मुम्बई के अपने एक उद्बोधन में सुखदेव थोराट द्वारा इस असमानता को दूर करने की घोषणायें भी की गयी पर उसके लिये जो प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिये थी वह नहीं अपनायी गयी बल्कि उसके विपरीत कुछ ऐसे नीतियां अपनायी गयी जिससे ग्रामीण क्षेत्र से उच्च शिक्षा लेना महज डिग्रीधारी होना ही रह जाता है.
गत
 वर्ष नेट और जे.आर.एफ. परीक्षाओं के लिये विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कई बदलाव किये जिसमे आवेदन पत्रों को आन लाइन कर दिया गया ऐसी स्थिति में बड़ी तादात में वे छात्र जो गाँवों में रहते हैं और इंटरनेट जैसी आधुनिक सुविधाओं से वंचित है आवेदन करने से भी वंचित रह गये. उच्च शिक्षा में अध्यापन की पात्रता सुनिश्चित करने वाले इस परीक्षा में आवेदन प्रक्रियाओं को पहले से भी ज्यादा जटिल बना दिया गया. आखिर किसी भी संस्थान द्वारा प्रक्रिया को जटिल बनाने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं. क्या इसे इस तौर पर नहीं देखा जाना चाहिये कि इन जटिलताओं के बढ़ने से एक बड़ा समुदाय अपने को प्रक्रिया से बहिस्कृत पायेगा. इन परीक्षाओं के लिये जब इंटरनेट के आवेदन पत्र अनिवार्य किये गये तो क्या उन ग्रामीण क्षेत्रों का भी खयाल नहीं रखा जाना चाहिये था जो दूर दराज के इलाकों में बसे हैं क्या नीति निर्माताओं को इस बात का भान बिल्कुल नहीं था कि आज भी देश के कई हिस्सों में बिजली नहीं पहुंच पाती. दरअसल यह नीति निर्माताओं की चिंतन प्रणाली के बाहर इसलिये हो जाता है कि उनके ज़ेहन में शिक्षा का सम्बंध शहरं से ही जुड़ पाता है. ग्रामीण क्षेत्र इंटरनेट की पहुंच से बाहर हैं साथ में एक बड़ा वर्ग एस.सी., एस.टी., ओबीसी जो अधिकांसतः इन्हीं ग्रामीण क्षेत्रों से उच्च शिक्षा बमुश्किल पा रहा है वह ऐसी परीक्षाओं से वंचित रह जायेगा. चूंकि आधुनिक तकनीक के रूप में  तो इंटरनेट इनकी पहुंच में  ही इनकी इसमे दक्षता है. लिहाजा विश्वविद्यालयों में अध्यापन के लिये जिस मापदण्ड को जरूरी किया गया है उसे पूरा करने में यह ग्रामीण वर्ग अक्षम ही रह जायेगा. इसके साथ-साथ एक नये तरह का आरक्षण अघोषित रूप में लागू हो चुका है जिसमें उच्च शिक्षा में अध्यापन के लिये आपका शहरी क्षेत्रों से होना अनिवार्य हो है, जहाँ इंटरनेट जैसी आधुनिक तकनीक मौजूद हो और उसमे दक्षता भी

पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने आईआईटी और आईआईएम के शिक्षकों को आड़े हाथ लिया, लेकिन उनके छात्रों की तारीफ की। यह कोई नई बात नहीं है, आईआईटी के बारे मे कहा जाता है कि बड़े अच्छे इंस्टीटयूट हैं, वहां बड़े अच्छे बच्चे आते हैं। ये इंस्टीटयूट छात्रों को स्पेशलिस्ट या विशेषज्ञ बना देते हैं। हमें सोचना चाहिए क्या विश्वविद्यालयों का यही काम है। मूल सवाल तो नए विचारों का है। क्या ये संस्थान नए विचार दे रहे हैं, अगर नहीं दे रहे हैं, तो इसके पीछे क्या कारण हैं?

यह समझ लेना होगा कि विश्वविद्यालय अगर विश्वविद्यालय नहीं रहेंगे, तो इंस्टीटयूट बन जाएंगे। हालत यह हो गई है कि ये एक समस्या उठाते हैं और फिर उस समस्या मे उलझ जाते हैं। विश्वविद्यालय का अर्थ यह होता है कि ज्ञान का यूनिवर्स या ब्रह्मांड के साथ ताल्लुक हो। वहां से नए-नए विचार निकलें। आम तौर पर नए विचार नहीं निकलते हैं, क्योंकि कई समस्याएं आ जाती हैं। इसलिए हमने यह सलाह दी थी कि आईआईटी, आईआईएम को ऎसा होना चाहिए कि वे पूरे विश्वविद्यालय की तरह काम करें, केवल रिसर्च इंस्टीट्यूट की तरह नहीं। इस बड़ी कमी पर बहुत काम करने की जरूरत है। उच्च शिक्षण संस्थानों, विश्वविद्यालयों पर केवल बयान देकर इस तरह से कालिख पोतने की भी जरूरत नहीं है। बहुत तेज और कुशाग्र बच्चे वहां पढ़ने जाते हैं। जहां उनको मौका मिलता है, वे दायरे से निकलकर बहुत अच्छा काम करते हैं।

शिक्षा व शोध के अभावों को भूलकर कई बार कहा जाता है कि आईआईएम, आईआईटी में काफी तनख्वाह दिलवाने वाली पढ़ाई होती है। दूसरे लोग भी यह देखते हैं कि किस संस्थान के छात्रों को कितने पैसे की नौकरी ऑफर हुई। यह गलत सोच है, इससे निकलने की जरूरत है।

अच्छे छात्र आते हैं, क्योंकि कड़ी प्रतिस्पर्द्धा से निकलकर आते हैं। उन्हें खुली जगह मिलनी चाहिए, लेकिन उन्हें एक संकीर्ण दायरे में डालने की कोशिश होती है। सच्चे विश्वविद्यालय का वातावरण नहीं रह जाता है। नए विषय बनाने की जरूरत है, ऎसे विषय जिसके बारे में किसी ने पहले सोचा न हो। पारंपरिक विषयों से आगे बढ़ने की जरूरत है। पढ़ाई के पारंपरिक विषय कांबिनेशन या संयोजन से आगे बढ़ने की जरूरत है। यह काम अगर विश्वविद्यालय नहीं कर पा रहे हैं, तो इसका मतलब है, वे सच्चे मायने में विश्वविद्यालय नहीं हैं।

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विश्वस्तरीय" शब्द भी मुझे अच्छा नहीं लगता। कुछ-कुछ दिनों के बाद कोई न कोई सर्वेक्षण आ जाता है, जिसमें बताया जाता है कि हमारी एक भी यूनिवर्सिटी सर्वश्रेष्ठ की सूची में नहीं है। ऎसी खबरों का प्रचार भी खूब होता है, लेकिन यह तरीका गलत है। अपने हिसाब से अपने गुण और अपने वातावरण के हिसाब से हमें अपने विश्वविद्यालयों को आंकना चाहिए, न कि कोई कथित विश्वस्तरीय पैमाना बनाकर। अगर आप केवल यही आंकेंगे कि कितनी बड़ी तनख्वाह मिलती है छात्रों को, तो यह गलत होगा। अच्छी तनख्वाह मिलती है, तो इसका मतलब है कि वह अच्छा नौकर है, न कि वह अच्छा विद्वान है या नए नए विचार पैदा करने वाला है।

आज बिल्कुल नए विचारो की जरूरत है। पता नहीं क्यों, वे सोच नहीं पा रहे हैं और इसलिए नए विचार नहीं आ पा रहे हैं। ध्यान दीजिए, तो लगभग सभी उच्च शिक्षण संस्थान या विश्वविद्यालय एक ही परंपरा पर चल रहे हैं। शिक्षा का एक ही तरीका अपना रहे हैं। मैं यहां केवल भारतीय विश्वविद्यालयों की बात नहीं कर रहा हूं, दुनिया भर के विश्वविद्यालयों की बात कर रहा हूं, सब शिक्षा या किसी विषय के छोटे-छोटे टुकड़ों के साथ लगे रहते हैं और विस्तार से शिक्षा की मूल समस्या को देख नहीं पाते हैं।

मैं यह चाहता हूं कि आईआईटी और आईआईएम को इतनी आजादी हो कि वे कुछ भी पढ़ाएं। हर शिक्षक को यह आजादी हो कि वह कुछ भी पढ़ाए। छात्र को इतनी आजादी हो कि वह कुछ भी पढ़े। अभी यह कहा जाता है कि शिक्षा मे या विश्वविद्यालयों मे आजादी का माहौल नहीं है। शिक्षा संस्थानों में सोचने और करने की आजादी जरूरी है। नए नए तरीके आजमाने की जरूरत है। कई अच्छे इंस्टीटयूट हैं हमारे यहां, लेकिन उन्हें और खोल देना चाहिए।

यहां खोलने का अर्थ यह है कि संस्थानों को छूट मिले, यह पैमाना टूटे कि आप ये-ये विषय पढ़ाएंगे, तभी आपको डिग्री मिलेगी। जो विषय किसी ने सोचा नहीं, उसकी भी पढ़ाई हो सके, छात्र अपनी पसंद के हिसाब से अलग-अलग कांबिनेशन ले सकें। इसके लिए हम केवल शिक्षा प्रबंधन को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। उनकी अपनी समस्याएं हैं, वे छोटी-छोटी चीजों में उलझे रहते हैं। अपने लिए कई तरह के काम निकाल लेते हैं।

दुनिया में कुछ विश्वविद्यालय बहुत अच्छे भी हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि उन विश्वविद्यालयों को कॉपी करके अपने यहां विश्वविद्यालय बनाए जाएं। कॉपी करके विश्वविद्यालय नहीं बनाए जा सकते। बहुत सारे विश्वविद्यालय अब भारत में भी बहुत अच्छे हो गए हैं। अपनी जरूरत पर सोचा जाए, अपनी समस्याओं पर विचार करके आगे बढ़ने की जरूरत है। शैक्षणिक आजादी के साथ बढ़ने की जरूरत है।

शिक्षा में बयानबाजी खूब होती है। लेकिन ऎसी बयानबाजी करने वाले अच्छी चीजों को नहीं देखते हैं। विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों की सूचियां बन रही हैं, लेकिन उनसे हमें घबराने की कोई जरूरत नहीं है। हमें सोच सुधारनी चाहिए। हम सोचते हैं कि सुधार वो सरकार करेगी या ये सरकार करेगी, जबकि सुधार विश्वविद्यालयों के अंदर ही होने चाहिए। अभी कोशिश यह होती है कि नियम एक तरह के होने चाहिए, एक ही तरह की परीक्षाएं होनी चाहिए, ऎसे में, जब सब कुछ एक तरह का होने लगता है, तो इसी से बर्बादी होती है। एक तरह की प्रतिस्पर्द्धा या संघर्ष हर जगह दिखने लगता है। इसलिए मैं बोल रहा हूं, विश्वविद्यालयों को खोलने या मुक्त करने की जरूरत है। शिक्षा तो वह है, जो वास्तव में ज्ञान बढ़ाए। नए विचारों व नए कामों के लिए रास्ता खोले।

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