संसद में जब पूछा गया कि अभी तक कितने विदेशी विश्वविद्यालयों ने भारत में अपने कैंपस स्थापित करने की इच्छा जताई है तो उच्च शिक्षा राज्यमंत्री ई . अहमद से इस बारे में कुछ बोलते नहीं बना। उनका कहना था कि इस संबंध में सूचना देने और पाने का कोई कानून अभी तक संसद ने पारित नहीं किया है , लिहाजा इस बारे में फिलहाल कुछ बता पाने की स्थिति में वे नहीं हैं। वैसे इसमें सस्पेंस जैसी कोई बात नहीं है। शिक्षा के नाम पर चलने वाली फर्जी विदेशी दुकानों ने कोई न कोई जुगाड़ बनाकर देश में अपने बैनर पहले ही टांग रखे हैं। लेकिन जहां तक सवाल प्रतिष्ठित विदेशी विश्वविद्यालयों का है तो भारत की दुविधा को देखते हुए उनमें से किसी ने भी अब तक यहां आने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है।
उच्च शिक्षा से जुड़े कम से कम चार बिल पिछले दो वर्षों से संसद में लंबित हैं और सरकार अच्छी तरह जानती है कि ऐसा विपक्ष के विरोध के चलते नहीं , खुद सत्तापक्ष से जुड़े निहित स्वार्थों के दबाव में हो रहा है। विदेशी शिक्षण संस्थानों को भारत में अपने परिसर स्थापित करने देना चाहिए या नहीं , वह एक अलग बहस है। संसद में मामला उस मुकाम से आगे बढ़ चुका है। सरकार अगर कहती कि वह भारतीय अकैडमिक संस्थाओं की कीमत पर बाहरी शिक्षा हितों को बढ़ावा देना चाहती है , तो उसका विरोध पूरी ताकत से किया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं है। कई नए विश्वविद्यालय , इंजिनियरिंग , मेडिकल , लॉ और मैनेजमेंट कॉलेज खोलने और पुराने उच्च शिक्षा संस्थानों की ग्रांट बढ़ाने की बात मौजूदा पंचवर्षीय योजना में शामिल है। ऐसे में विदेशी विश्वविद्यालयों को लेकर सिर्फ एक चिंता बचती है कि अपने बेहतर सैलरी स्ट्रक्चर के बल पर वे भारत के सबसे अच्छे प्रोफेसरों को अपनी तरफ खींच लेंगे और छात्रों से ज्यादा फीस वसूलकर देश की मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में खलबली पैदा कर देंगे।
इस चिंता का निपटारा सरकार ने अपने विधेयकों के प्रस्तावित मसौदे में इस तरह किया है कि विदेशी विश्वविद्यालयों को अपनी फीस और शिक्षकों की पगार आने वाले दिनों में यूजीसी की जगह लेने वाले उच्च शिक्षा आयोग द्वारा निर्धारित ढांचे के तहत ही तय करनी होगी। बाहर इस प्रावधान को संदेह से देखा जा रहा है , लेकिन इसका व्यावहारिक अर्थ यही है कि जिस तरह एयरलाइंस इंडस्ट्री में किराये और बाकी खर्चे एक तयशुदा ढांचे के तहत बाजार के नियमों से निर्धारित होते हैं , उसी तरह की कोई व्यवस्था उच्च शिक्षा में भी बनाई जाएगी। ऐसे में अकेला सवाल प्रफेशनल शिक्षा के दायरे में सक्रिय उन शार्कों से निपटने का रह जाता है , जिनके तार भारत के लगभग सारे राजनीतिक दलों से जुड़े हैं और जिनका सामना करना या जिनसे कतराकर निकल जाना संसद के लिए भी संभव नहीं हो पा रहा है।
कितना हास्यास्पद है कि हजारों करोड़ रुपया हर साल हम अपने छात्रों को विदेश में पढ़ाने पर खर्च कर रहे हैं , लेकिन बाहर के इन्हीं शिक्षण संस्थानों को अपने देश लाकर अपने विश्वविद्यालयों के लिए भी ऊंचे मानक खड़े करने का तर्कसंगत काम हम से नहीं हो पा रहा है। (साभार- नवभारतटाइम्स)
उच्च शिक्षा से जुड़े कम से कम चार बिल पिछले दो वर्षों से संसद में लंबित हैं और सरकार अच्छी तरह जानती है कि ऐसा विपक्ष के विरोध के चलते नहीं , खुद सत्तापक्ष से जुड़े निहित स्वार्थों के दबाव में हो रहा है। विदेशी शिक्षण संस्थानों को भारत में अपने परिसर स्थापित करने देना चाहिए या नहीं , वह एक अलग बहस है। संसद में मामला उस मुकाम से आगे बढ़ चुका है। सरकार अगर कहती कि वह भारतीय अकैडमिक संस्थाओं की कीमत पर बाहरी शिक्षा हितों को बढ़ावा देना चाहती है , तो उसका विरोध पूरी ताकत से किया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं है। कई नए विश्वविद्यालय , इंजिनियरिंग , मेडिकल , लॉ और मैनेजमेंट कॉलेज खोलने और पुराने उच्च शिक्षा संस्थानों की ग्रांट बढ़ाने की बात मौजूदा पंचवर्षीय योजना में शामिल है। ऐसे में विदेशी विश्वविद्यालयों को लेकर सिर्फ एक चिंता बचती है कि अपने बेहतर सैलरी स्ट्रक्चर के बल पर वे भारत के सबसे अच्छे प्रोफेसरों को अपनी तरफ खींच लेंगे और छात्रों से ज्यादा फीस वसूलकर देश की मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में खलबली पैदा कर देंगे।
इस चिंता का निपटारा सरकार ने अपने विधेयकों के प्रस्तावित मसौदे में इस तरह किया है कि विदेशी विश्वविद्यालयों को अपनी फीस और शिक्षकों की पगार आने वाले दिनों में यूजीसी की जगह लेने वाले उच्च शिक्षा आयोग द्वारा निर्धारित ढांचे के तहत ही तय करनी होगी। बाहर इस प्रावधान को संदेह से देखा जा रहा है , लेकिन इसका व्यावहारिक अर्थ यही है कि जिस तरह एयरलाइंस इंडस्ट्री में किराये और बाकी खर्चे एक तयशुदा ढांचे के तहत बाजार के नियमों से निर्धारित होते हैं , उसी तरह की कोई व्यवस्था उच्च शिक्षा में भी बनाई जाएगी। ऐसे में अकेला सवाल प्रफेशनल शिक्षा के दायरे में सक्रिय उन शार्कों से निपटने का रह जाता है , जिनके तार भारत के लगभग सारे राजनीतिक दलों से जुड़े हैं और जिनका सामना करना या जिनसे कतराकर निकल जाना संसद के लिए भी संभव नहीं हो पा रहा है।
कितना हास्यास्पद है कि हजारों करोड़ रुपया हर साल हम अपने छात्रों को विदेश में पढ़ाने पर खर्च कर रहे हैं , लेकिन बाहर के इन्हीं शिक्षण संस्थानों को अपने देश लाकर अपने विश्वविद्यालयों के लिए भी ऊंचे मानक खड़े करने का तर्कसंगत काम हम से नहीं हो पा रहा है। (साभार- नवभारतटाइम्स)
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