सुपरनोवा का उलझता रहस्य
वि स्फोटक तारों को ‘सुपरनोवा’ के नाम से जाना जाता है और
यह सुपरनोवा ब्रह्मांड को मापने के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण माना जाता है. इन
सुपरनोवा का इस्तेमाल डार्क एनर्जी की खोज में भी किया गया था. ये इतने चमकीले
होते हैं कि इनकी मदद से काफी दूर तक देखा जा सकता है. साल 2011 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार भी इसी बात के लिए दिया गया था कि
वैज्ञानिकों ने सुपरनोवा की मदद से ब्रह्मांड के विस्तार की बात को साबित किया था.
हालांकि, यह बिल्कुल ही अजीब तथ्य है कि अंतरिक्ष
वैज्ञानिकों को अब भी यह पता नहीं है कि तारों की किस प्रक्रिया से ला सुपरनोवा का
निर्माणहोता है. अभी तक सुपरनोवा की उत्पत्ति के लिए दो अलग-अलग मॉडल की व्याख्या
की जाती है. विभित्र अध्ययनों से इन दोनों मॉडलों की पुष्टि भी होती है. अब नये
प्रमाण बतलाते हैं कि दोनों ही मॉडल सही हैं. इनमें कुछ ऐसे सुपरनोवा हैं, जो पहले प्रकार से बनते हैं, तो कुछ सुपरनोवा दूसरे
मॉडल से. हार्वर्ड-स्मिथसोनियन सेंटर फॉर एस्ट्रोफिजिक्स संस्था के रेयान फोली का
कहना है कि इससे पहले के अध्ययन से विरोधाभास उत्पत्र होता है. यदि इन दोनों
प्रकार के विस्फोटों से सुपरनोवा का निर्माण होता है, तो यह
विरोधाभास भी खत्म हो जायेगा. ला सुपरनोव के बारे में माना जाता है कि इसका
निर्माण सफेद बौने तारों (व्हाइट ड्वार्फ) से होता है. व्हाइट ड्वार्फ को डिजेनरेट
स्टार (क्षय तारा) के नाम से भी जाना जाता है. सिंगल-डिजेनरेट मॉडल वाले सुपरनोवा
में व्हाइट ड्वार्फ अपने साथी तारों से तब तक पदाथरें का संग्रह करते रहते हैं,
जब कि वे न्यूक्लियर विस्फोट की स्थिति तक नहीं पहुंच जाते.
डबल-डिजेनरेट मॉडल में दो व्हाइट ड्वार्फ एक-दूसरे में समाहित हो जाते हैं. इस
अध्ययन से दिलचस्प सवाल उठता है कि क्या दो विभित्र मॉडल एक सुपरनोवा बना सकते हैं.
ग्लोबल वार्मिंग मापने की कोशिश
ग्लोबल वार्मिंग किस रफ्तार से बढ. रहा है? इसकी सटीक माप की व्यवस्था अभी तक
नहीं हो पायी है. लेकिन, नये अध्ययन के माध्यम से वैज्ञानिक
अब यह पता लगाने की भी कोशिशकर रहे हैं. वैज्ञानिकों के मुताबिक, उनके शोध के मुताबिक, जब उन्होंने उपग्रह मापन विधि
से जलवायु का तपमान रिकॉर्ड किया, तो उन्हें पता चला कि
पर्यावरण में धीमी गति से तापमान का बढ. रहा है. यह शोध वाशिंगटन विश्वविद्यालय
के शोधकर्ताओं ने किया है. उनके मुताबिक, ये नतीजे काफी
महत्वपूर्ण हैं. दरअसल, वाशिंगटन विश्वविद्यालय के साथ
अल्बामा विश्वविद्यालय ने सैटेलाइट टेंपरेचर रिकॉर्ड की मदद से यह सब कुछ जानने
की कोशिश की. गौरतलब है कि जलवायु के तापमान को मापने की पहली कोशिश 1989 में की गयी थी. उस वक्त शोधकर्ताओं ने ग्लोबल वार्मिंग और ग्रीनहाउस
गैसों के प्रभाव के संबंधों के बारे में निष्कर्ष निकाला था. अब तक जलवायु के
तापमान का पता लगाने के लिए शोधकर्ता तीन अलग-अलग माध्यमों का इस्तेमाल कर रहे थे.
इन तीनों अध्ययन से जलवायु को मापने के बाद नतीजा एक ही निकलना चाहिए था, लेकिन तीनों से अलग-अलग नतीजे सामने आये. यही वजह है कि अभी तक जलवायु के
तापमान का पता लगाने की कोई ठोस विधि सामने नहीं आयी है. हालांकि, अब उपग्रह मापन यानी सैटेलाइट मेजरमेंट तकनीक के जरिये वैश्विक जलवायु के
तापमान का पता लगाने की कोशिशकी जा रही है. वैज्ञानिकों को इसमें कुछ हद तक सफतला
भी मिली है. जानकारों का कहना है कि अगर इस तकनीक से जलवायु का सही तापमान प्राप्त
हो जाता है, तो इसके कई तरह के फायदे होंगे. उनका कहना है कि
जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्या से निपटने और इनकी वजह से किस तरह
चुनौतियां आयेंगी, इसका पता लगाया जा सकेगा.
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