भारत
को आजाद हुए लगभग 64 वर्ष हो गये हैं फिर भी वास्तविकता यह है, हम अभी भी
उनके गुलाम जैसा आचरण ही करते हैं। क्योंकि जो स्वतंत्रता हमने सन् 1947
में प्राप्त की थी वह तो केवल राजनीतिक थी। इन 63 वर्षो में भारत ने
आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक व राजनीतिक सहित लगभग सभी क्षेत्रों में
अभूतपूर्व उन्नति की है लेकिन इस तथ्य से कदापि इनकार नहीं किया जा सकता है
कि हमारे वैचारिक एवं रहन-सहन की शैली में पाश्चात्य संस्कृति की अमिट छाप
अभी भी दृष्टिगोचर है।एक तरफ चीन जैसे उभरते हुये विकासशील देशों की
चुनौतियां हैं तो दूसरी ओर भारत में विदेशी विश्वविद्यालयांे के आने की आहट
भी सुनाई दे रही है। भारत में एक तरफ 30 अन्तराष्ट्रीय स्तर के
विश्वविद्यालय व 15000 गुणवत्ता परक शिक्षा के आइकान के रूप में श्रेष्ठ
कालेजों की जरूरत भी महसूस हो रही है तो दूसरी ओर निजी विश्वविद्यालयों तथा
कालेजों की कुकुरमुत्तों जैसी वृद्धि ने शिक्षा के क्षेत्र में व्यवसायिक
शोषण और गुणवत्ता से समझौता करने की आम प्रवृत्तियों को चिन्हित करने की हद
तक रेखांकित भी किया है। ऐसी दशा में यह आम सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि
शिक्षा का विकास किसके लिये और क्यों ? क्या यह विकास शिक्षा के
व्यापारियों के लिये है या इसका लक्ष्य शिक्षा के लाभों को जनसामान्य तक
पहुंचाने व भारत को ज्ञान प्रौद्योगिकी व समाज के उभरते आयामों में सही
तरीके से स्थापित करने का भी है। अतः वास्तविक मुद्दा शिक्षा के औचित्य व
अनौचित्य को साबित करने का नहीं अपितु शिक्षा के क्षेत्र में बाजार को किस
हद तक छूट देनी है इसका है और साथ-साथ शिक्षा के बाजार में गुणवत्तापूर्ण
सेवा की उपलब्धि सुनिश्चित करना है। इसके लिये बाजार की अपूर्णताओं को समझ
कर कुछ प्रतिकारी उपायों को करने की जरूरत है। यदि हम भारत की उच्च शिक्षा
के उद्देश्य एवं शैक्षिक संरचना पर दृष्टिपात करें तो पायेगें कि हम अभी भी
ब्रिटिश शैक्षिक नीतियों का ही अनुकरण मात्र कर रहे हैं। ब्रिटिश नीति में
उच्च शिक्षा का उद्देश्य केवल दार्शनिकता एवं आध्यात्मिकता का विकास करना
था, जबकि वर्तमान भारतीय परिप्रेक्ष्य में उच्च शिक्षा का यह उद्देश्य
सार्थक नहीं है। बदलते समय के अनुसार उच्च शिक्षा की संरचना, इसके उद्देश्य
एवं मानकों के पुनरावलोकन की अत्यधिक आवश्यकता है, क्योंकि बेरोजगारी की
विकराल समस्या से त्रस्त आधुनिक समाज के लिए रोजगारपरक शिक्षा की अत्यन्त
आवश्यकता है जो वर्तमान में अदृश्य है। शिक्षाविदों द्वारा शिक्षा की
उपयोगिता एवं उद्देश्य का सम्मिलित स्वर यह है कि शिक्षा का उद्देश्य
व्यक्ति की अर्न्तनिहित शक्तियों का सर्वांगीण विकास करना एवं उसे अपनी
आजीविका अर्जित करने में सक्षम बनाना है। शिक्षा के क्षेत्र पर सरकार की आय
का एक महत्वपूर्ण हिस्सा व्यय होता है, अतः उसकी सार्थकता भी आवश्यक है।
आजादी के समय तक उच्च शिक्षा का विकास अत्यन्त धीमा रहा मात्र 18
विश्वविद्यालय ही देश की उच्च शिक्षा की बागडोर थामे थे, स्वतन्त्रता के
बाद भूमण्डलीकरण, निजीकरण, उदारीकरण का ऐसा दौर आया कि उच्च शिक्षा के
क्षेत्र में उत्तरोत्तर वृद्धि होती चली गई। वर्तमान में भारत में लगभग 480
में से 148 विश्वविद्यालय 22000 कालेजों में से मात्र 3942 कालेज सरकार
द्वारा अधिकृत संस्था नाक से मान्यता प्राप्त हैं। लगभग 3068 इन्जीनियरिंग
कालेज, 1082 मेडिकल कालेज, 1600 टीचर्स ट्रेनिंग कालेज स्थापित हो चुके है।
यदि इनमें राष्ट्रीय महत्व के अन्य संस्थानों को भी जोड़ दिया जाय तो इनकी
संख्या में 18 केन्द्रीय विश्वविद्यालय 186 राज्य स्तरीय विश्वविद्यालय है
जिनमें लगभग 118.1 लाख छात्र शिक्षा ग्रहण कर रहे है तथा चार लाख से भी
अधिक शिक्षक कार्यरत है। यू0जी0सी0 के द्वारा शिक्षा के स्तर में समानता
लाने हेतु स्नातक स्नाकोत्तर एवं तकनीकी शिक्षा हेतु एक समान पाठ्य क्रम
बनाया गया। सरकार द्वारा सभी विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों के
मूल्यांकन ‘नैक‘ संस्था का गठन किया जा चुका है, जिसके आधार पर इन संस्थाओं
को अनुदान प्राप्त होगा। लेकिन यह सभी आकड़े भले देखने एवं पढ़ने में
अच्छे प्रतीत हो रहे हो परन्तु वास्तव में आज उच्च शिक्षा मात्र चारागाह
सदृश्य है। उच्च शिक्षा में गुणवत्ता को प्रभावित करने वाले अनेक कारण है।
शिक्षा प्राप्त करना भले ही सभी का मौलिक अधिकार है लेकिन उच्च शिक्षा के
क्षेत्र में इससे अगंभीर छात्रों का बोलबाला ही बढ़ रहा है जो अधिकांश
विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में शुल्क कम होने की वजह से कक्षाओं
में नहीं आते तथा अनुत्तीर्ण होने पर पुनः पुनः प्रवेश लेते रहते है जिससे
शिक्षा का स्तर गिरता है। विश्वविद्यालय में खाली पदों पर नियुक्ति
विश्वविद्यालय स्वयं करता है अतः वह भर जाते है परन्तु महाविद्यालयों में
शिक्षकों की नियुक्ति का अधिकार प्रदेश के उच्च शिक्षा आयोग को होता है, तो
रिक्त पदों पर कई-कई वर्षो तक नियुक्ति नहीं हो पाती। उच्च शिक्षा
व्यवस्था में सरकार द्वारा मानदेय की नई व्यवस्था के अन्तर्गत
प्रबंधतंत्रों द्वारा जो नियुक्तियां की जाती है उनमें प्रबंधतंत्र योग्य
अभ्यर्थियों को छोड़कर चहेतों को नियुक्त करवा लेते है और येन केन प्रकारेण
सरकारों से स्थायी भी करवा लेते हैं। राजकीय कालेजों के संविदा शिक्षकों
की भी यही स्थिति है। शिक्षकों की नियुक्ति में अनेक विसंगतियॉं है।
महाविद्यालयों में कई तरह के शिक्षक कार्यरत हैं जिनके नियुक्ति के मानक
प्रक्रिया मापदण्ड भी अलग-अलग है। सरकार को शिक्षकों की नियुक्ति में एक
समान मानक व प्रक्रिया अपनानी चाहिए व लिखित परीक्षा व मौखिक परीक्षा दोनों
प्रक्रियाओं का अनुपालन करके ही नियुक्ति करनी चाहिए। जिस अनुपात में
छात्रों की संख्या में वृद्धि हो रही है उस अनुपात में शिक्षकों के पदों का
सृजन नहीं हो रहा है। निर्धारित समय में अगले वेतनमान में प्रोन्नति न
मिलना असमान वेतनमान होना, सरकार द्वारा सम्बद्ध महाविद्यालयों में रीडर व
प्रोफेसर पदों का सृजन न करना, मूलभूत सुविधाओं का न मिलना, चयन वेतनमानों
की प्रक्रिया अत्यन्त जटिल होना ,निजी कालेजों में प्रबंधतंत्र की मनमानी
तथा शिक्षकों का शोषण करना, स्ववित्त पोषित अधिकंाश कालेजों में शिक्षकों
का मानसिक शोषण, उनसे जबरजस्ती नकल करवाना, कम से कम वेतन देना,
महाविद्यालयों में शिक्षकों के पदों का फर्जी अनुमोदन चलाना एवं सेवा शर्तो
का अनुरंक्षित होना ऐसी समस्याएं है जिनसे शिक्षकों को सामना करना पड़ता
है और वह शिक्षा की गुणवत्ता से दूर होते चले जाते हैं। उच्च शिक्षा से
जुडे शिक्षकों का प्रति दो या तीन वर्षो में राष्ट्रीय स्तर पर किसी
परीक्षा को उत्तीर्ण करने की बाध्यता का न होना। जिससे यह पता चलता रहे कि
अमुख शिक्षक छात्रों को पढ़ाने के लिए अपने ज्ञान को अपडेट कर पा रहे है या
नहीं, जो कार्यरत शिक्षक ऐसी योग्यता परीक्षाओं में पांच वर्ष में यदि एक
बार भी उत्तीर्ण नहीं होते तो उनको स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति दे देनी चाहिए
ताकि शिक्षा की गुणवत्ता बनी रहे। उच्च शिक्षा में परीक्षा प्रणाली में भी
आमूल चूल परिवर्तन लाने की आवश्यकता है जिसके अन्तर्गत वार्षिक परीक्षाओं
का मूल्यांकन विश्वविद्यालयों में न होकर राष्ट्रीय/प्रादेशीय स्तर पर होना
चाहिए जिससे उच्च शिक्षा गुणवत्ता में आडे आने वाले फर्जी
अंकतालिका,सिफारिश द्वारा उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन में अंकों की
वृद्धि न की जा सके एवं नकल रोकने हेतु स्वकेन्द्र परीक्षा समाप्त की जाये
और इसके लिए आवश्यक कदम उठाये जाये। स्ववित्त पोषित महाविद्यालयों में
अत्यन्त अव्यवस्था है, इनमें मनमानी फीस वसूल कर छात्रों का शोषण किया जाता
है। यहां बुनियादी सुविधाओं का अभाव है और न ही योग्य शिक्षक है, अधिकांश
महाविद्यालयों में योग्य शिक्षकों का अनुमोदन है परन्तु उनसे पढ़वाया नहीं
जाता यहां तक कि अधिकांश महाविद्यालयों में पचास से साठ फीसदी शिक्षकों के
अनुमोदन फर्जी है। उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट कहीं न कहीं हमारी
ढील का परिणाम है क्योंकि पिचहत्तर प्रतिशत उपस्थिति का एजेंडा अनिवार्य तो
है लेकिन व्यवहार में लागू नहीं है। यदि शिक्षक सही उपस्थित दर्ज कराते
हैं तो वह राजनीति का शिकार हो जाते हैं और प्राचार्य स्तर पर या उपकुलपति
स्तर पर छात्रों को छूट प्रदान कर दी जाती है। अगर वहां भी उसको राहत न
मिले तो न्यायालय की शरण लेकर छात्र परीक्षा में बैठ जाता है। अतः छात्रों
की उपस्थिति कक्षाओं में दिनोदिन घटती जा रही है। आजकल जो शार्ट्स नोट्स
कंुजी, गेस पेपर, सम्भावित प्रश्नपत्र, शार्ट सीरीज हैं उन पर प्रतिबन्ध
होना चाहिए। भारत के राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के अध्यक्ष सैम पित्रोदा ने भारत
के प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर सूचित किया है कि भारतीय महाविद्यालयों,
विश्वविद्यालयों से डिग्रियां लेने वाले विद्यार्थियों का केवल 10ः ही
सरकारी नौकरियां प्राप्त कर पाता है। शेष बेरोजगारी भत्ते के लिए सरकार के
सामने हाथ फैलाते है या किसी दूसरे उपाय से अपनी जीविका कमाते है और यह
संख्या भी देश के 18-25 वर्ष आयु तक के युवाओं की केवल 07ः ही है, जो उच्च
शिक्षा संस्थानों अर्थात भारत के 480 विश्वविद्यालयों एवं 22000
महाविद्यालयों लगभग 3068 इन्जीनियरिंग कालेज, 1082 मेडिकल कालेज, 1600
टीचर्स ट्रेनिंग कालेजों आदि में प्रवेश लेते है। एशिया के अन्य देशों चीन,
जापान की तुलना में यह प्रतिशत आधा है। जबकि विकसित देशों में यह प्रतिशत
20 से 50 हैं। इसका उपाय सुझाया गया है कि विश्वविद्यालयों की संख्या 11वीं
पंचवर्षीय योजना आने तक पांच गुनी अर्थात 1500 कर दी जाय। अब सबसे बड़ी
चिन्ता तो यही है कि 100 में से 7 युवा उच्च शिक्षा के लिए आते है। बाकी 93
क्या करते है? प्रश्न अब यह होना चाहिए कि विद्यार्थी उच्च शिक्षा
संस्थानों में प्रवेश लेगें और कक्षाओं में आयेगें तभी जब उन्हें सुविधा और
अच्छी पढ़ाई करने का प्रबंध एवं वातावरण होगा। क्योंकि 2005.6 के आंकडे भी
स्पष्ट करते हैं कि भारत सरकार उच्च शिक्षा पर कुल 4‐3 अरब डालर खर्च कर
रही थी जबकि भारतीय नागरिक दुनिया भर में विदेशी शिक्षा में टयूशन फीस के
तौर पर लगभग 3‐5 अरब डालर का भुगतान कर रहे हैं। गुणवत्ता का मुख्य जांच
बिन्दु भी यही है।
शिक्षा क्षेत्र की प्रथम विसंगति पाठ्यक्रमो की अतार्किकता एवं
परम्परागत संरचना है। विज्ञान विषयों को छोडकर अन्य कला एवं वाणिज्य
विषयों के पाठ्यक्रम समय समय पर नवीनीकृत न होने के कारण अपनी प्रासंगिता
को खो देते हैं। प्रायः ऐसा देखा जाता है कि एक ही पाठ्यक्रम लगातार 5-10
वर्षो तक दुहराया जाता है जिसका दुष्प्रभाव यह होता है कि न तो शिक्षकों की
रूचि उसमें बनी रहती है और न ही छात्रों का मन उनकी ओर आकर्षित होता है।
पाठ्यक्रम को सैद्धान्तिक की अपेक्षा व्यावहारिक अधिक बनाया जाना चाहिए।
जिससे व्याप्त नीरसता का अन्त हो एवं छात्र घर पर ही अध्ययन करने की
अपेक्षा महाविद्यालयों मे आकर कुछ नया सीख सकें। मानविकी जैसे विषय क्षेत्र
को भी अधिक व्यावहारिक बनाने के लिए कई उपाय किये जा सकते हैं ।
महाविद्यालय स्तर पर छात्रों द्वारा उनके विषय पर आधारित सेमिनार,
संगोष्ठी, विचार विमर्श एवं निबन्ध प्रतियोगिता का और अधिक आयोजन कराना ।
इसके साथ ही छात्रों का साक्षात्कार भी समय-समय पर हो जिससे उनकी क्षमता
एवं समस्याओं का ज्ञान हो सकें एवं उनमें आत्मविश्वास का विकास हो। सेमिनार
एवं संगोष्ठी में प्रत्येक छात्र एवं छात्रा की भागीदारी सुनिश्चित होनी
चाहिए तथा यदि संभव हो तो उनके अंक भी निर्धारित होने चाहिए। व्यावहारिकता
के साथ शिक्षा को रोजगारपरक बनाया जाना सबसे अधिक जरूरी है। आज अनेक छात्र
बी0ए0, एम0ए0 ,पी0एच0डी0, नेट डिग्रिया लेकर भी बेरोजगार हैं। उसका कारण यह
है कि ऐसी डिग्रियॉं केवल शिक्षण व्यवसाय के लिए ही अपयुक्त हैं। शिक्षण
क्षेत्र मे रोजगार की संभावनाएॅं उतनी नहीं है कि सभी छात्रों को रोजगार
मिल सके। दूसरा कारण यह है कि छात्र साल भर न पढकर गाइड एवं सहायक कुंजियों
का अध्ययन करके प्रथम व द्धितीय श्रेणी मे उत्तीर्ण तो हो जाते हैं लेकिन
उन्हें विषय का पूर्ण ज्ञान नहीं होता, अतः नौकरी के साक्षात्कार एवं लिखित
परीक्षा में वे असफल हो जाते हैं। प्रथम श्रेणी पाने वाले 50 प्रतिशत
छात्रों का सत्य यह है कि वे दूर दराज के परीक्षा केन्द्रों मे बलपूर्वक
नकल करके या पैसा देकर अंक बढवा लेते हैं और प्रथम श्रेणी प्राप्त कर लेते
हैं जबकि उन्हें कुछ भी नही आता । शिक्षा जगत की यह सबसे बडी विडम्बना है
कि पढने में तेज छात्र की प्रथम श्रेणी एवं कमजोर छात्र के द्वारा प्रभुत्व
व बल द्वारा प्राप्त की गयी प्रथम श्रेणी में कोई अन्तर नहीं रहता ।
शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे कि छात्र अपनी अजीविका कमाने योग्य बन सके
अन्यथा माता-पिता उन्हें विद्यालय न भेजकर मजदूरी कराना ज्यादा पसन्द
करेगें। यह शैक्षिक विषयों की सैद्धान्तिकता है जिससे उच्च डिग्रियॉं
प्राप्त करके भी छात्र निराश हैं एवं आत्महत्या की ओर अग्रसर हैं। सरकार को
रोजगार परक पाठ्यक्रम शुरू करना चाहिए।आज नया सामंती वर्ग देश पर शासन
करने का इच्छुक है. उसका ध्येय उच्च शिक्षा प्रणाली को विकृत कर यह निश्चित
करना है कि सर्वोत्तम लाभ उसे ही हो. दुर्भाग्य से कोई भी राजनीतिक दल
निर्धन व बहुसंख्यक जनता के लिए उच्च शिक्षा प्रणाली को गंभीरता से नहीं
लेता. कारण सभी दलों में सम्पन्न वर्ग हावी है. आत्मबल के अभाव में जनता भी
मूकदर्शक है. वास्तव में उच्च शिक्षा नीति के मुख्य तीन बिन्दु हैं-
- पहला शिक्षक कक्षा लें
- दूसरा विद्यार्थी कक्षा में आएं
- तीसरा सरकारें आवश्यक सुविधायें उपलब्ध करवायें
दुर्भाग्यवश
इन्हीं तीनों बिन्दुओं में समस्या-सिन्धु सिमटा हुआ है. शिक्षक क्यों नहीं
पढ़ाते, इसके कई कारण हैं. पहले अध्यापक निर्धन होते हुए भी सबसे सम्मानित
था क्योंकि वह बिना भेद-भाव के बड़ी से बड़ी प्रतिभाओं को शिक्षित करता था
पर आज कुलपति भी बजट के लिए क्लर्क के आगे-पीछे चक्कर लगाते दिखते हैं.
हालांकि शिक्षकों की आर्थिक स्थिति अपेक्षाकृत सुधरी है, परन्तु सामाजिक
प्रतिष्ठा घट गई है. आत्मसम्मान के अभाव में दायित्व का सही सम्पादन कठिन
ही है. आज शिक्षा-क्षेत्र में राजनीतिक संरक्षण प्राप्त लोग आ गये हैं. जब
नियुक्तियों में योग्यता आधार नहीं रही तो यह स्वाभाविक ही है. ऐसे में
अच्छे शिक्षक भी कर्त्तव्य विमुख हो गये हैं. विद्यार्थियों की पढ़ाई का
लक्ष्य भी आर्थिक पहलू पर केन्द्रित हो गया है. मौलिक प्रतिभा के बजाय अंक
प्रधान विषय मुख्य हो गये हैं. ज्यादा पैसा कमाने के लिए कुशाग्र बुद्धि के
छात्र भी रचनात्मक विषयों के बदले सरल विषय पढ़ते हैं. युवा छात्र वर्ग के
सामने कोई आदर्श नहीं है. छात्र वर्ग के सामने नेताओं का रातों-रात अमीर
होने का आदर्श दिखाई देता है. यह भी चिन्तनीय है कि आज उच्च शिक्षा नीति का
निर्धारण पूंजीपतियों के हाथों में है, गरीबी से दूर यह वर्ग विश्वस्तरीय
उच्च शिक्षा के नारे की गूंज में भूल जाता है कि भौतिक सुविधाओं से शिक्षा
का स्तर नहीं उठता बल्कि मौलिक व नैतिक आदर्शों से बनता है. पर अफसोस हम
इससे दूर होते जा रहे हैं. ऐसे में विश्वस्तरीय उच्च शिक्षा की दुहाई देकर
हैरो, कैम्ब्रिज, डॉल्टन व हारवर्ड जैसे संस्थानों को इस देश में स्थापित
करने का प्रयत्न सारहीन ही होगा , क्योंकि किसी भी कार्यक्रम की प्राथमिकता
देश की जनता के लिए होनी चाहिए. प्राथमिकता देश के सामाजिक-आर्थिक संदर्भ
में होनी चाहिए न कि किसी वर्ग विशेष के लिए. विकासोन्मुख देश में युवा
ऊर्जा सामाजिक व आर्थिक क्रान्ति का मुख्य अस्त्र है. इसकी धार उच्च शिक्षा
द्वारा ही तीव्र हो सकती है लेकिन उच्च शिक्षा को पूंजी आधारित बना कर
इस अमोघ अस्त्र को भी अब कुंठित ही किया जा रहा है. यह नीयत देश की उच्च
शिक्षा की नियति के लिए उचित नहीं.
शिक्षा जगत की प्रमुख समस्या छात्रों की अनुपस्थित है। सरकार
द्वारा प्रति वर्ष अनेक राजकीय , स्ववित्तपोषित महाविद्यालयों की स्थापना
की जा रही है एवं छात्रों को ‘‘छात्रवृत्ति विवरण एवं शुल्क मुक्ति जैसे
आकर्षक योजनाओं के द्वारा महाविद्यालय मे जाने के लिए प्रेरित भी किया जा
रहा है लेकिन इसका विपरीत परिणाम दृष्टिगत हो रहा है। छात्र वर्ष पर घर पर
रहकर भी पूरी छात्रवृत्ति प्राप्त कर रहे हैं। यूॅ कहे कि अब छात्र केवल
छात्रवृत्ति के लिए महाविद्यालयों मे दाखिला ले रहे हैं। जब छात्र
महाविद्यालयों मे उपस्थिति ही नहीं होगें तो उनकी शिक्षा की सार्थकता केवल
कोरी कल्पना रह जायेगी । इसके लिए प्रथम उपाय विद्यालय एवं महाविद्यालय
स्तर पर किया जाना चाहिए। महाविद्यालयों में छात्रों की उपस्थिति सुनिश्चित
बनाने के लिए महाविद्यालय प्रशासन को थोडी सख्ती तो बरतनी होगी । कहते हैं
कि पटरी पर से उतरी गाडी को पटरी पर लाने की मेहनत करना ही पडता है लेकिन
जब एक बार गाडी पटरी पर आ जायेगी तो सरपर दौड़ेगी । महाविद्यालय प्रशासन को
प्रवेश के समय ही छात्रों के निर्देश दिये जाने चाहिए। छात्रों की मासिक
उपस्थिति रिपोर्ट के आधार पर छात्रों को चेतावनी स्वरूप सूचना भेजी जानी
चाहिए एवं चेतावनी के बाद भी समस्या बनी रहे तो छात्रों का नामांकन /
प्रवेश रद्द कर दे। परीक्षार में सेमेस्टर प्रणाली लागू करने की राय अनेक
शिक्षाविद्रों द्वारा दी जाती है । सेमेस्टर प्रणाली के कारण पूरा
वर्ष/सत्र छात्रों की परीक्षा कराने एवं मूल्यांकन फार्म में ही व्ययतीत हो
सकता है। शिक्षकों को अपना पाठ्यक्रम पढाकर पूरा करने का समय ही नहीं
मिलता । छात्रों का मूल्यांकन महाविद्यालय स्तर पर मौखिक भी हो। जैसे -
सेमिनार, प्रश्नावली, साक्षात्कार इत्यादि द्वारा जिस पर अंक निर्धारित भी
किये जा सकते हैं। हमें परीक्षा प्रणाली के परम्परागत ढर्रे को छोडकर
नवीनीकृत व्यवस्था अपनानी चाहिए। लिखित प्रश्नपत्र के साथ मौखिक
प्रश्नोत्तरी भी आवश्यक है। छात्रों के साथ शिक्षकों का भी मूल्यांकन जरूरी
हो जाता है। शिक्षकों को अपने विषयों से सम्बन्धित नवीनीकृत सूचना एवं
ज्ञान देने के लिए समय-समय पर प्रशिक्षण अनिवार्य करना चाहिए। महाविद्यालय
स्तर पर हर विषय से सम्बन्धित पत्रिका एवं जर्नल को उपलब्ध कराना चाहिए
ताकि महाविद्यालय में रहकर भी शिक्षक अपने ज्ञान को आधूनिकीकृत कर सके।
शिक्षा क्षेत्र की विसंगतियों मे एक विसंगति शिक्षकों की वार्षिक
स्थानान्तरण नीति है। किसी भी व्यक्ति के मन में जब स्थायी या स्थिर होने
की भावना नहीं रहेगी, यदि वह हमेशा अपने को असुरक्षित महसूस करेगा तो वह
व्यक्ति स्वस्थ मन से छात्रों को नहीं पढा सकता। महाविद्यालय प्रशासन के कई
अंग होते हैं जिसमें शिक्षकों की सहभागिता होती है जैसे -- शास्त्रा का
पद, अनुशासन समिति, एन0सी0सी0, एन0एस0एस0 रोवर्स व रेंजटर्स, क्रीडा समिति,
परीक्षा समिति, प्रवेश समिति इत्यादि । महाविद्यालय प्रशासन को चलाने के
लिए स्थिरता का होना आवश्यक है तभी विकास एवं प्रगति तेज हो सकती हैं।
प्रदेश के अनेक शासकीय महाविद्यालय इसलिए पिछडे हैं क्योंकि उनके प्राचार्य
एवं शिक्षक इस दुविधा मे रहते हैं कि कहीं उनका स्थानान्तरण न हो जाए।
स्थानान्तरण के भय से वे दीर्घाकालीन विकास कार्यो एवं योजनाओं मे भाग नहीं
लेते हैं। अतः शासन को प्रथमतः प्रत्येक राजकीय शिक्षक विशेषतः महिलाओं को
उनके गृह जनपद एवं पति के निकट सेवा आवंटन करना चाहिए एवं हर वर्ष
स्थानान्तरण न करके 5 वर्ष के अन्तराल के बाद स्थानान्तरण करना चाहिए।
राजकीय महाविद्यालयों के पिछड़ेपन का एक प्रमुख कारण इनका सुदूर ग्रामीण
क्षेत्र में स्थित होना है। इसके अलावा स्टाफ संख्या का उचित अनुपात में न
होना भी है। सरकार द्वारा अनेक महाविद्यालयों की स्थापना से उच्च शिक्षा
क्षेत्र की विसंगतियों का अंत नहीं होगा क्योंकि सत्य यह है कि प्रदेश के
अधिकांश राजकीय महाविद्यालयों में छात्र संख्या अति न्यून है। यातायात के
साधन सुलभ न होने के कारण न तो छात्र और न ही शिक्षक इन महाविद्यालयों में
आना चाहते हैं। केवल स्थानीय छात्र ही इन महाविद्यालयों मे दाखिला लेते हैं
और वर्ष पर्यन्त महाविद्यालय भी नहीं आते । नवीन महाविद्यालयों के खोलने
और नये शिक्षकों की भर्ती में धन व्यय करने की अपेक्षा सरकार केा शहर के
नजदीक या मुख्यालय के नजदीक महाविद्यालय खोलने चाहिए एवं निकटस्थ ग्रामीण
क्षेत्र के छात्रों, शिक्षकों संसाधनों को वहॉं समायोजित करना चाहिए। शहर
के नजदीक होने पर छात्रों की भी संख्या बढ़ेगी एवं शिक्षकों के मन में भी
वहॉं पर काम करने की प्रवृति जागृत होगी । ऐसी स्थिति में यह भी समझना
आवश्यक है कि उपर्युक्त समस्याओं को दूर करने के साथ ही साथ उच्च शिक्षा
में सुधार हेतु जहां एक ओर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हो रहे शोध
गतिविधियों में पारदर्शिता लाने ,छात्रों के हित हेतु ,उच्च शिक्षा की
गुणवत्ता के लिए नियमित शिक्षकों के चयन की योग्यता नेट आवश्यकता होनी
चाहिए। योग्य शिक्षकों के आने से ही, प्रबुद्ध छात्र स्वयं ही कक्षाओं में
उपस्थित बढ़ायगें।
आवश्यक है कि उच्च शिक्षा विकास आयोग (वर्तमान यू0जी0सी0) तथा
उसके समकर्मी निकायों के सहयोग से केन्द्र सरकार एक प्राधिकार प्राप्त
शिक्षक चयन एवं प्रशिक्षण मंडल का गठन करें जो राष्ट्रीय प्रतिभा सागर से
शिक्षा रत्नों को ढूढ़कर प्रशिक्षित करते हुए क्षेत्र, स्थान एवं
संस्थानुसार चयनितों को सम्बन्धित संस्थाओं में भर्ती हेतु उपलब्ध कराये
यानि एक केन्द्रीय शिक्षा अकादमी की स्थापना की जाये जो शिक्षक चयन एवं
प्रशिक्षण मण्डल के कार्यस्थल मुख्यालय की तरह कार्य करें। यह स्वसाशी
संस्थान महामहिम राष्ट्रपति के संरक्षण में कार्य करे। सर्वत्र विदित है कि
उत्पादक और उत्पाद कि सबसे बडी कसौटी उसके उपभोक्ता है। उच्च शिक्षा
उत्पाद के उपभोक्ता विद्यार्थी होते है, वे ही उससे लाभान्वित होते है अतः
इस कसौटी का उपयोग करने का संकल्प हमारी सरकार, समाज, विश्वविद्यालयध्
महाविद्यालय प्रबंधन को समेकित रूप से लेना होगा, तभी उच्च शिक्षा की दशा
को सुधार की एक नई दिशा प्राप्त होगी और हमारी उच्च शिक्षा भारत की युवा
पीढ़ी के अन्दर निहित आन्तरिक शक्तियों का सर्वांगीण प्रकटीकरण हेतु मील का
पत्थर साबित होगी। शिक्षा जगत के अनेक अंग हैं और हर अंग को सुधारने एवं
इलाज कराने की आवश्यकता है चाहे विसंगति पाठ्यक्रम स्तर की हो या शिक्षक
स्तर की, या महाविद्यालय स्तर की या छात्र स्तर की । सभी को मिलकर इन
विसंगतियों का अंत करना होगा। केवल सरकारी प्रयास से समस्या का निराकरण
संभव नही है। वर्तमान समय में भारत का उच्च शिक्षा व्यवस्था का सही रूप से
मूल्यांकन नहीं हो पा रहा है और उच्च शिक्षा की गुणवत्ता की कमी को आर्थिक
मजबूतियों के मत्थे जड़ दिया जाता है। उच्च शिक्षा के लिए भारत में
संसाधनों की उतनी कमी नहीं है जितनी की अच्छे प्रबंधन की है, हम अपने
महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों में चाहे जितना खर्च कर ले तब तक सुधार
सम्भव नहीं होगा जब तक अच्छे प्रबन्धन पर जोर नहीं दिया जायेगा। प्रश्न अब
यह होना चाहिए कि विद्यार्थी उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश लेगें और
कक्षाओं में आयेगें तभी जब उन्हें सुविधा और अच्छी पढ़ाई करने का प्रबंध
एवं वातावरण होगा। विद्यार्थी तो गुणवत्ता के उपभोक्ता है, गुणवत्ता नहीं
है, इसलिए उसके उपभोक्ता भी नदारद है, जहां वह है, वहां ये आज भी बरामद है। अरविन्द शुक्ल
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