सुशोभित
आइज़ैक न्यूटन का जन्म लिंकनशायर के जिस वूल्सथोर्प नाम के गांव में हुआ था, वहां सेब के ख़ूब सारे बाग़ थे।
तरतीब से तरतीब मिलाकर अगर आप सोचें तो कह सकते हैं कि वैसे में अगर किसी दरख़्त से सेब को गिरते उसने देख लिया हो, तो यह कोई अचरज की बात नहीं। ये तो रोज़मर्रा की एक आमफ़हम घटना थी। लेकिन सवाल उठता है वो कौन-सा दरख़्त था? कहते हैं कि वूल्सथोर्प मैनर में वो ‘प्रोवर्बियल एपल ट्री’ आज भी मौजूद है और आज भी उस पर सेब फलते हैं। सैलानी बड़े चाव से उसके साथ तस्वीरें खिंचवाते हैं। लेकिन क्या यही वह दरख़्त है? इतने सारे दरख़्तों में आप कैसे निश्चित हो सकते हैं कि यही वह है।
फिर प्रश्न यह भी कि भले वूल्सथोर्प में सेब के बाग़ हों, ये ज़रूरी तो नहीं कि न्यूटन ने वहीं पर वो सेब देखा हो। लिहाजा कैम्ब्रिज (ट्रिनिटी कॉलेज) वाले बड़े गर्व से कहते हैं कि वो दरख़्त तो हमारे यहां था। कैम्पस में जहां न्यूटन रहता था, उसकी खिड़की से वो दिखलाई देता था।
लेकिन ये होड़ यहीं ख़त्म नहीं होती। ग्रैन्थम- जो कि वूल्सथोर्प का नज़दीकी रेल्वे स्टेशन है और जहाँ न्यूटन की आरम्भिक पढ़ाई हुई, उसने वहाँ ग्रामर, लातीन भाषा और गणित सीखा- का किंग्स कॉलेज कहता है कि वो पेड़ भले वूल्सथोर्प या कैम्ब्रिज में हो, लेकिन उसे हमारे स्कूल के हेडमास्टर द्वारा तभी ख़रीद लिया गया था और वो अब हमारे यहां है। वहीं केंट के नेशनल फ्रूट कलेक्शन का कहना है कि चार सौ साल बाद भला वो दरख़्त अब कहां मिलेगा? लेकिन उसके बीज से उगे पेड़ हमारे पास हैं। यानी न्यूटन वाले सेब के दरख़्त के वंशज! यूनिवर्सिटी ऑफ़ वॉशिंगटन और एमआईटी भी कमोबेश ऐसा ही दावा करते हैं।
अंग्रेज़ी में जिसे कहते हैं- "अ बाइट ऑफ़ एपल।" आप कह सकते हैं कि इतनी सदियों के बाद न्यूटन अब ख़ुद एक ऐसा सेब बन चुका है, जिसका एक टुकड़ा सभी को चाहिए!
किंतु न्यूटन ने सेब को गिरते देखा था, यह तो तय है ना? शायद हां, शायद नहीं। आप पूछ सकते हैं कि ये कहानी किसने उड़ाई थी? जवाब मिलेगा स्वयं जनाब क़िब्ला-मोहतरम न्यूटन साहब ने। अलबत्ता न्यूटन ने अपने शब्दों में कभी इसका बखान ख़ुद नहीं किया। सबसे पहले यह दावा किया था विलियम स्टुकले ने अपनी किताब ‘मेमॉयर्स ऑफ़ सर आइज़ैक न्यूटन्स लाइफ़’ में। ये किताब 1752 में छपी थी और सेब गिरा था 1666 में, जब कैम्ब्रिज में प्लेग का रोग फैला था और न्यूटन अपने गांव वूल्सथोर्प चला आया था। इसी गाँव में न्यूटन साल 1642 में जन्मा था, और जिस कमरे में वो जन्मा था, वो आज भी जस का तस है। आप यह भी कह सकते हैं, इसी कमरे में आधुनिक भौतिकी का जन्म हुआ था।
विलियम स्टुकले ने अपनी किताब के 42वें सफ़हे पर लिखा है-
"गर्मियों के दिन थे, हम एक बाग़ में गए और चाय पी। फिर एक सेब के दरख़्त के नीचे जाकर बैठ गए। आसपास मेरे और न्यूटन के सिवा कोई और ना था। अचानक उन्होंने कहा, ‘उस दिन भी मैं ऐसे ही बैठा था और ख़यालों में गुम था कि तभी वो सेब पेड़ से गिरा, और मैंने सोचा, ये पेड़ से टूटकर ऊपर क्यों नहीं गया, दाएं-बाएं क्यों नहीं गया, नीचे ही क्यों गिरा?’ और फिर यह कि ‘बात केवल इतनी भर नहीं कि धरती के भीतर कोई चुम्बक है, जो सेब को अपनी ओर खींच लेता है, बल्कि यह भी कि कहीं ऐसा तो नहीं कि अंतरिक्ष में चंद्रमा टंगा है तो ऐसा धरती के खिंचाव से ही सम्भव हो?’"
अगर यह स्टुकले की निरी गप्प थी तो अब इसकी तफ़्तीश करने का कोई ज़रिया नहीं, और न्यूटन को मरे भी अब कोई 300 साल होने को आए। लेकिन यह बात पूरी तरह से कपोल-कल्पना इसलिए नहीं कही जा सकती, क्योंकि इस वाक़ये के तीन और संस्करण मिलते हैं। ग़रज़ ये कि अमूमन ख़ामोश रहने वाले न्यूटन ने ये सेब वाली कहानी चार लोगों को अलग-अलग तरह से सुनाई थी। शायद, किंचित, एक दुर्लभ विनोदप्रियता के साथ।
स्टुकले की किताब छपने के कोई पचास-पचपन साल बाद वॉल्तेयर ने अपने एक निबंध में न्यूटन की उस छवि को वर्णित किया, जिसमें वो सेब के बाग़ में टहल रहा था और अचानक उसको ग्रैविटी का इलहाम हुआ। वो निबंध बहुत चर्चित हुआ। वॉल्तेयर को ये कहानी न्यूटन की भतीजी कैथरीन बार्टन ने सुनाई थी। लगभग उसी कालखण्ड में सर डेविड ब्रूस्टर की न्यूटन पर चर्चित जीवनी भी छपी और उसमें भी सेब का क़िस्सा मौजूद था। निश्चय ही वॉल्तेयर और ब्रूस्टर पर स्टुकले की किताब का प्रभाव भी रहा होगा। उस ज़माने में स्टुकले की किताब धड़ल्ले से पढ़ी जा रही थी।
सेब की इस कहानी ने सामान्य कल्पनाशीलता को ग्रस लिया। इसमें मिथकीय तत्वों की अनुगूँजें जो थीं। लोगों को यह कहानी सुनकर ईदन के उद्यान और ज्ञान के वृक्ष की याद आई, जिस पर सेब का वर्जित फल लगा था। न्यूटन की शख़्सियत के साथ यों भी मिथकीय तारतम्य जम-सा गया था। उसका जन्म बड़े दिन पर हुआ था, उसने एकान्तवासियों जैसा निस्संग जीवन बिताया था और ज्ञान के शोध में ख़ुद को खपा दिया था। पर्सेप्टिव ज़ेहन के अनेक इलाक़ों में प्रवेश करने वाला वो दुनिया का पहला आदमी था, आदम की तरह- उसके साथ सेब की कहानी तो जुड़ना ही थी।
न्यूटन अपने जीवनकाल में ही बहुत चर्चित हो चुका था और कैम्ब्रिज और लंदन में उसको एक दैवीय-उपस्थिति की तरह देखा जाता था। ख़ुद न्यूटन को ये गुमान था कि वो एक मामूली इंसान नहीं। वो अपने ज़माने का सबसे बड़ा और मशहूर साइंसदां था, जो रौशनी की गिरहों को सात पहलुओं में खोलकर परख चुका था। प्रिज़्म से वो प्रयोग उसने वूल्सथोर्प में ही किया था, और कम-अज़-कम इस बात को लेकर तो किसी को कोई शुब्हा नहीं है। वूल्सथोर्प जाने वाले सैलानी उस खिड़की को भी बड़ी हसरत से छूते हैं, जहां न्यूटन प्रिज़्म लेकर खड़ा रहता था, सत्रहवीं सदी की ढलान के उस जादुई साल में।
‘गॉड सेड लेट न्यूटन बी, एंड ऑल वॉज़ लाइट।’ यानी, ख़ुदा ने न्यूटन की तख़लीक़ की और उजाला हो गया। ये दोहा एलेग्ज़ेंडर पोप ने कहा था। अल्बर्ट आइंश्टाइन अपनी मेज़ पर न्यूटन की तस्वीर रखता था। स्टीफ़न हॉकिंग अपनी व्हीलचेयर चलाता हुआ न्यूटन के घर पर गया था और विज़िटर्स बुक में दस्तख़त करके आया था। अलबत्ता उसने अपनी किताब 'अ ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ़ टाइम' के परिशिष्ट में न्यूटन की व्याजनिंदा की है। यह स्टीफ़न की आदत थी, ईश्वरों से उसका पुराना वैर था और न्यूटन साइंस की दुनिया का ख़ुदा था।
लेकिन साथ ही न्यूटन तनहा और पेचीदा भी बहुत था। पूरी ज़िंदगी अकेला रहने वाला। "मैं दूर तक देख पाता हूँ तो केवल इसलिए कि मैं बहुत बड़े लोगों के कंधों पर बैठा हूं", विनम्रता के एक दुर्लभ क्षण में वैसा कहने वाला, शाइस्ता। वो दीवारों पर कोयले और खड़िया से पक्षियों, जहाज़ों और पवनचक्कियों के चित्र बनाता था। वो चित्र आज भी वूल्सथोर्प की दीवारों पर मौजूद हैं। न्यूटन से जुड़ी अनेक किंवदंतियों में से एक है कि साल 1674 में जब आगज़नी से न्यूटन की अनेक पांडुलिपियाँ, उसकी बीस साल की मेहनत, जलकर ख़ाक हो गई थीं, तो उसने केवल इतना ही कहा था- "ओह डायमंड डायमंड, तुम्हें नहीं मालूम ये तुमने क्या शरारत कर डाली है!" डायमंड उसके प्रिय कुत्ते का नाम था, जिसकी भूल से मेज़ पर मोमबत्ती गिर गई थी
शाइर और साइंसदां में ज़्यादा फ़ासला नहीं होता, सिवाय इसके कि साइंसदां नियम-क़ायदों के अनुशासन में स्वयं को बांध लेता है, जबकि शाइर की आवारगी में एक दूसरे क़िस्म की तरतीब होती है।
न्यूटन ने एक चिट्ठी में लिखा था- "मैं ताउम्र समंदर-किनारे ऐसे रंगीन पत्थर और शंख-सीपियां बटोरता रहा, जो शायद दुनिया की दूसरी चीज़ों से बेहतर थे, जबकि ख़ुद समुद्र मेरे समीप हहराता रहा, जिसे मैं कभी पूरा जान नहीं सकता था।"
ये बात कोई शाइर ही कह सकता है!
तब कह लीजै कि धरती की धुन में बंधे उस सेब से ख़ूबसूरत भला कौन-सी चीज़ सर आइज़ैक न्यूटन ने अपनी ज़िंदगी के समुद्र तट पर खोजी थी, जो किस पेड़ पर लगा था, लगा था भी या नहीं, आज भी इसकी तफ़्तीश में आदमज़ात अपनी नींदें हराम किए हुए है?
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