एक ही ध्यान विधि कर देती है कल्याणः श्री एम
An Interview with Spiritual Guru Sri M
आजकल जब बीएचयू विवाद के सिलसिले में संस्कृत में विद्वान मुस्लिम प्रफेसर की चर्चा हो रही है, ऐसे में एक ऐसे आध्यात्मिक गुरु से आपको रूबरू कराते हैं जो एक पारंपरिक मुस्लिम परिवार में पैदा हुए और फिर हिंदू धर्म की नाथ परंपरा से दीक्षित योगी बन गए। यह संन्यासी नहीं, मगर साधना सिखाते हैं। सिद्ध योगी हैं, पर शादीशुदा भी हैं। दो बच्चे हैं। हजारों अनुयायी हैं, लेकिन बड़े-बड़े और आलीशान आश्रम नहीं हैं और न ही साबुन-तेल आदि का कारोबार करते हैं। यह 70 बरस के मुमताज अली हैं जो 'श्री एम' के नाम से विख्यात हैं। 'सत्संग फाउंडेशन' के जरिए अपने मिशन को अंजाम दे रहे हैं। मिशन यह कि सब धर्मों-जातियों के लोग आपस में मिल-जुलकर रहें और ध्यान के माध्यम से अपने भीतर से जुड़कर शांति-आनंद महसूस करें। आंध्र प्रदेश में मदनपल्ली में रहते हैं। देश-विदेश में घूम-घूमकर क्रियायोग और ध्यान सिखाते हैं। इसका एक पैसा नहीं लेते। इन्होंने आजकल के कई दूसरे गुरुओं की तरह अध्यात्म को धंधा नहीं बनाया है। अपनी चर्चित आत्मकथा 'एक योगी का आत्मचरित' में अपने अनोखे आध्यात्मिक अनुभवों के बारे में लिखा है जिन पर एक बारगी यकीन नहीं होता। पिछले दिनों जब वह दिल्ली आए तो राजेश मित्तल ने उनसे बातचीत की। पेश हैं खास हिस्सेः
Q. आपने ध्यान पर हाल में एक किताब लिखी है। तो ध्यान क्या इतना आसान है कि बिना किसी गुरु के, दीक्षा-दक्षिणा के चक्कर में पड़े बिना उसे सीखा जा सकता है?
A. अगर कोई शख्स पूरी किताब पढ़ ले, ऐसा न हो कि एक चैप्टर में ध्यान का जो ब्योरा दिया हुआ है, खाली उसे पढ़े। अगर पूरा पढ़े और उसमें जो सावधानियां लिखी गई हैं, वे भी समझ में आ जाएं तो जरूर वह शख्स ध्यान करना शुरू कर सकता है। किताब लिखने का मेरा मकसद ही यही है। दरअसल ध्यान को बड़ा रहस्यपूर्ण बना दिया गया है, मंत्र-दीक्षा के परदों के जरिए।
Q. आप ध्यान के लिए रोज महज 15 मिनट का एक अभ्यास बताते हैं। इसे कितने अरसे तक करके कहां तक पहुंचा जा सकता है? या यह सिर्फ गृहस्थों के लिए ही है?
A. जवाब देने के लिए मैं आपको एक कहानी सुनाऊंगा। सच्ची घटना है। बहुत बड़े योगी थे श्यामाचरण लाहिड़ी। बनारस में रहते थे। उनके ढेर सारे शिष्य थे। इनमें एक प्रफेसर साहब भी थे जो सांख्य, वेदांत, तर्कशास्त्र - सब पढ़े हुए आदमी थे। उनको लाहिड़ी महाशय ने क्रिया योग की बेसिक टेक्नीक सिखाई। वह हर 4 हफ्ते गुजरने के बाद बनारस आते थे और बोलते थे कि अगली टेक्नीक कब मिलेगी। लाहिड़ी महाशय के एक और शिष्य थे जो पोस्टमैन थे। उन्होंने पढ़ाई-लिखाई ज्यादा नहीं की थी। खाली पता पढ़ लेते थे। लाहिड़ी महाशय ने जब बेसिक टेक्नीक प्रफेसर को दी थी, उसी समय पोस्टमैन को भी यही टेक्नीक दी थी। एक साल गुजर जाने पर जब प्रफेसर साहब अगली टेक्नीक सिखाने पर जोर दे रहे थे, तभी पोस्टमैन भी आ गया। लाहिड़ी महाशय ने उसे बुलाया। पूछा, ‘तुझे अगली टेक्नीक कब दूं?’ पोस्टमैन बोला, ‘महाराज, मुझे अभी छोड़ दीजिए। जो आपने सिखाया था, उसे रोजाना करता हूं। अब तो बाहर जाता हूं तो लोग समझते हैं, पीने लगा हूं क्योंकि अब मैं ठीक से चल नहीं पाता। अंदर इतना आनंद हो रहा है कि समझ नहीं आता कि चिट्ठियां कैसे पहुंचाऊं। यह हालत हो गई है मेरी। अगर आप आगे की टेक्नीक देंगे तो मेरी क्या हालत होगी। मत दीजिए।’ फिर लाहिड़ी महाशय ने प्रफेसर को कहा, ‘भैया, सुन लिया। तो बार-बार मत पूछिए, अगली टेक्नीक क्या है।’ मैं यह इसलिए कह रहा हूं कि अगर बेसिक टेक्नीक को ही पूरे मन से करना शुरू करें, लगातार करें तो ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं। ध्यान कोई विंडो शॉपिंग नहीं है कि एक टेक्नीक यहां से सीख ली, फिर दूसरी टेक्नीक किसी दूसरे गुरु से। जो टेक्नीक जानते हैं, उसी पर फोकस रखकर लगातार करते रहें तो कहीं तक भी जा सकते हैं। करते-करते ऐसा वक्त आएगा कि जो जरूरी है, वह आप तक अपने आप पहुंच जाएगा। ऐसी प्रवृत्ति गलत है कि थोड़े दिन करके ही कहने लगें कि कुछ हो नहीं रहा।
Q. तो क्या कभी ऐसी स्टेज आ सकती है कि जो अभी गृहस्थ है, वह संन्यास की तरफ चला जाए या गृहस्थ में रहते हुए ही आत्मज्ञान हासिल हो जाएगा?
A. मैंने अभी जिन लाहिड़ी महाशय का जिक्र किया, वह तो गृहस्थ थे, संन्यासी नहीं थे। मगर क्रिया योग के अभ्यासी थे। थोड़े लोग संन्यास भी लिए हुए हैं- युक्तेश्वर महाराज, योगानंद परमहंस वगैरा। ये सभी संन्यासी थे। मेरे गुरु महेश्वर नाथ बाबाजी भी संन्यासी ही थे। लेकिन खुद मैं गृहस्थ हूं। मुझे मेरे गुरु ने संन्यास लेने की इजाजत नहीं दी। यानी गृहस्थ भी आध्यात्मिक ऊंचाई तक पहुंच सकते हैं। मगर ऐसे लोग भी होते हैं जो संन्यास लेकर अपना पूरा वक्त ध्यान, साधना और समाधि में बिताना चाहते हैं। ये लोग संन्यास ले सकते हैं।
Q. यानी संन्यासी बनें या गृहस्थ, कोई फर्क नहीं पड़ता?
A. फर्क पड़ता है क्योंकि मुझे लगता है कि संन्यासी बनकर रहने से मुश्किल है गृहस्थ बनकर साधना करना।
Q. यह तो उल्टी बात हो गई कि संन्यासी का जीवन आसान है?
A. हां, एक तरह से उल्टी बात ही है। सचाई यह है कि साधना के हिसाब से गृहस्थ का जीवन आसान नहीं है। जो ब्रह्मचारी से सीधा संन्यास ले लेते हैं, उनके लिए थोड़ा आसान है क्योंकि उनके लिए बाहरी परिस्थितियां ज्यादा चुनौती नहीं बनतीं। अब अगर आप संन्यासी बन जाएं और गेरुआ पहनकर कहीं आश्रम में रहें या दूर कुटिया में रहकर आप ध्यान कर रहे हैं तो कोई आपको परेशान करने वाला नहीं है और न ही आपको कोई शिष्य बनाना है, न कुछ काम करना है। हमारी हालत ऐसी नहीं है। हम बस में जाते हैं, कार में जाते हैं, प्लेन में जाते हैं, लोगों को मिलते हैं। तो हमारे फंस जाने के आसार काफी ज्यादा होते हैं। मेरी दिली इच्छा थी कि मैं गेरुआ पहनकर कहीं अकेला संन्यासी बनके घूमता रहूं। पर गुरुजी का कहना था कि यह नहीं होगा, तुम्हारा काम अलग है। तुम गृहस्थों के साथ काम करोगे, इसलिए तुम्हारे लिए गृहस्थ बनना ही बेहतर है। तो मैं गृहस्थ बन गया। आज भी कभी-कभी लगता है कि संन्यास ले लूं। फिर सोचता हूं, बाबाजी ने ठीक ही कहा। संन्यास ले लेता तो समाधि में ही बैठे रहने में मन रम जाता। लेकिन ढेर सारे लोग हैं जिन्हें अध्यात्म के सही स्वरूप के बारे में समझाने का काम किया है। तब यह काम कहां हो पाता।
Q. कुछ लोग गुरु बन जाते हैं और कहते हैं कि मोक्ष दूंगा। कैसे पता लगता है कि साधक अब सिद्ध बन गया है, अब वह बटोरने के बजाय बांट सकता है? यह तय करने का हक किसे है?
A. बड़ा मुश्किल सवाल है। इतना कहूंगा कि अगर आपके गुरु बहुत पहुंचे हुए हैं तो वह सर्टिफाई सकते हैं कि अब तुम तैयार हो। दूसरा यह है कि अगर कोई व्यक्ति इस स्थिति पर पहुंच जाए, जहां संतुष्टि के लिए बाहरी दुनिया पर निर्भरता नहीं रहती, जहां आनंद अंदर से आना शुरू हो जाए, जहां उसे निंदा और स्तुति एक ही लगे। स्तुति से कोई ऊपर उठ नहीं जाता और निंदा से कोई नीचे गिर नहीं जाता। यह स्थिति अगर मन में स्थिर हो जाए, अगर स्थितप्रज्ञता हो जाए, तब कह सकते हैं कि हां, अब हम सिखा सकते हैं। तब तक आपको हजारों अलौकिक अनुभूतियां (विजन) भी हो जाएं, तब भी वहां नहीं पहुंचेंगे। विजन तो किसी योगी से कहीं ज्यादा एलएसडी अडिक्ट को होते हैं।
Q. अंदर से कोई किस स्तर पर है, इसकी असलियत या तो इंसान को खुद पता है या फिर, आपके मुताबिक, उसके गुरु को। लेकिन अगर कोई सामने वाला ऐसा दावा कर रहा है तो उसकी हकीकत हमें कैसे मालूम हो सकती है?
A. इसके लिए उसके जो बाहरी तामझाम हैं, उन पर ज्यादा ध्यान न दें। जैसे कि दाढ़ी कितनी लंबी है, सिर पर क्या बांधा है, चेले-चपाटे कितने रसूख वाले हैं। इन चीजों से प्रभावित न हों। देखें कि उसका स्वभाव कैसा है, जीवन में सादगी है या लग्जरी, अनुभव भी है या खाली ज्ञान ही है। यह भी देखना चाहिए कि देने के लिए आए हैं या हमारे पास से कुछ लेने के लिए आए हैं। जो असल में पहुंचा हुआ होता है, वह ध्यान, ज्ञान, भक्ति, जप, मंत्र, दीक्षा को पैसे से नहीं बेचता। वह जो अमीर-गरीब, मंत्री-संत्री नहीं देखता। वह ज्यादा पैसे देने वाले को खास तवज्जो नहीं देता।
Q. आजकल ध्यान की विधियां चंद हेर-फेर करके अपना ठप्पा लगाकर बेची जा रही हैं, पर आपने अपनी ध्यान विधि को कोई नाम नहीं दिया है। ऐसा क्यों?
A. आप कैसे नाम देंगे। यह जो संपदा हमारे पास है, वह ऋषियों की दी हुई है। हम इसे बेच नहीं सकते। जब बेचना शुरू कर देते हैं तो अध्यात्म खत्म हो जाता है, कारोबार चालू हो जाता है। आजकल यह आम है। अगर मंत्र दीक्षा के लिए परंपरा के चलते दक्षिणा की जरूरत है तो एक रुपया और फूल ले लो। अगर इससे कमाने लगे तो कोई पैसेवाला आ गया तो उसकी पूछ ज्यादा होगी। जो गरीब आदमी होगा लेकिन सच्चा साधक, उसे कोई नहीं पूछेगा। अध्यात्म में राजा और रंक एक समान होने चाहिए।
Q. कई बाबा लोग संयम-त्याग की बात करते-करते खुद रईस बन गए हैं। बड़े-बड़े आश्रम बना लिए हैं।
A. अरे, क्या बताएं आपको। एक महाराज हैं, बड़े प्रसिद्ध हैं। हाल में मैंने उनका एक विडियो देखा। किसी ने उनसे पूछा, आप उपनिषद क्यों नहीं सिखाते? वह बोले, 'उपनिषद की क्या जरूरत है। मैं तो हूं।' रामकृष्ण परमहंस ने उपनिषद नहीं पढ़े थे, मगर उन्होंने भी ऐसे नहीं कहा कि उपनिषद की क्या जरूरत है, मैं हूं। अब स्वामी विवेकानंद ने उपनिषद पूरे पढ़े हैं। उन्होंने मना नहीं किया क्योंकि यह अलग तरीका है, ज्ञान का।
Q. आज के समय के जो आध्यात्मिक गुरु हैं, उनमें से आप किन्हें सम्मान देते हैं?
A. मैं इस पर कुछ नहीं बोलूंगा।
Q. आपने उस अवस्था को पाया तो आपको कब लगा कि अब मैं बांटने निकल सकता हूं?
A. 25 साल का था जब बाबा जी ने जब मुझे अपने पास से उतारा। बोलेः 'जाओ, अभी तुम संसार में उतरो, गृहस्थ बनो। लेकिन तुम अभी किसी को कुछ नहीं सिखाओगे क्योंकि तुम अभी इस लायक नहीं हुए हो। जब तक तुम्हें ये-ये संकेत न मिलें, तब तक किसी को कुछ नहीं सिखाना। ये अनुभूतियां होने तक मुंह मत खोलना।' मैं दूसरे लोगों के सत्संग में जाता था। कभी-कभी लगता था कि ये क्या बात कर रहे हैं। यह तो गलत है। क्यों बोल रहे हैं। लेकिन मैं मुंह नहीं खोल सकता था क्योंकि बाबाजी का ऑर्डर था। कभी-कभी यह बहुत टॉर्चर लगता था। सोचता था कि अब तो हम सिखा सकते हैं। फिर भी मुझे थोड़ा संकोच हुआ कि करना है या नहीं। 37 का था जब शादी कर ली। बाद में दो बच्चे भी हुए। फिर 40 साल का हो गया। एक दिन में बेंगलुरु गया। वहां हमारे एक दोस्त हैं। जूलर हैं। उन्होंने कहा कि थियोसोफिकल सोसाइटी में संडे को कुछ बोल सकते हो क्या। मैंने कहा, सोचकर बताऊंगा। मैंने घर जाकर आंखें मूंदीं। बाबाजी से प्रार्थना की। मैंने कहाः 'बाबाजी, मुझे लग रहा है, आपने जैसा कहा, अभी मैं तैयार हूं। मैं जाऊं या नहीं, कोई संकेत दे दीजिए।' फिर सो गया। नींद में एक अजीबोगरीब संकेत मिलाः मैं एक ट्रेन में बैठा हूं और ट्रेन पर लिखा है- सत्संग। मैं उसके अंदर बैठा हूं, बाहर देख रहा हूं। बाबाजी आ रहे हैं। पैर में जूते नहीं हैं मगर रेलवे गार्ड के सफेद कपड़े पहने हैं और सिर पर टोपी भी नहीं है। हाथ में एक ग्रीन लैंप लेकर हिला रहे हैं। ट्रेन ने सीटी मारी और चली गई। मैं अचानक उठा और सोचा, यह संकेत ही तो है। मैं संडे को वहां गया। मैंने सोचा कि कोई 2-4 लोग बैठे होंगे। जब देखा तो वहां हॉल में सौ आदमी बैठे थे। मुझे लगा, अभी क्या होगा। मैं बैठा, फिर मुझे ध्यान आया कि बाबाजी ने मुझे बहुत साल पहले कहा था, एक समय आएगा कि तुम्हें ढेर सारे लोगों के सामने भाषण देना होगा। मैंने कहा, कैसे हो पाएगा। बाबाजी बोले, तुम्हारे सामने जो बैठा होगा, उससे बात करना। भूल जाओ दूसरे लोगों को। मुझे यह आइडिया याद आ गया। मैंने सामने वाले सज्जन को देखा और उनसे बात करना शुरू किया। उन्हें हिमालय की अपनी यात्रा के बारे में बताया। यह पहला सत्संग था। फिर आगे सिलसिला शुरू हो गया।
Q. वे अनुभूतियां कौन-सी थीं जिनका अनुभव होने के बाद ही आपको गुरु बनने की इजाजत थी?
A. जब बाबाजी ने मुझे उतारा था, तब मेरी अवेयरनेस का लेवल गले (विशुद्धि चक्र) तक था। यहां तक अगर जागृति जाए तो किसी भी चीज के बारे में आदमी बखूबी बोल सकता है। विशुद्धि चक्र वाक् से जुड़ा है। बाबाजी ने कहा था, 'जब तक अवेयरनेस सिर के ऊपरी हिस्से तक (सहस्रार चक्र) न पहुंचे, मुंह मत खोलना।' तब सहस्रार तक कभी-कभार पहुंच जाता था, पर वहां टिक नहीं पाता था। एक बार तीन दिन के लिए मैं कहीं गया था। मुझे पूरा याद नहीं है। उसके बाद वापस आया तो लगा कि एक-आधे सेकंड के अंदर जब भी चाहूं, तब अवेयरनेस को सहस्रार तक ला सकता हूं। यही तो बाबाजी ने कहा था कि जब ऐसा हो जाएगा, तब तुम सिखा सकते हो। अभी मैं आपसे बात कर रहा हूं तो अटेंशन वहां गया तो शुरू हो गया। मगर उसको मैं नीचे ला रहा हूं क्योंकि अभी आपसे बातचीत करनी है।
Q. यह जो सहस्रार चक्र तक पहुंचना है, इस स्थिति को कहते क्या हैं?
A. इस एक स्थिति को बयां करने के लिए कई शब्द हैंः मोक्ष, निर्वाण, बुद्धत्व आदि। मुझे कैवल्य शब्द पसंद है। इसका मूल शब्द है केवल। कैवल्य की स्थिति में ऐसा महसूस होता है कि कुछ नहीं है, खाली मैं हूं। मैं मतलब ईगो नहीं। जो तू है, वो मैं हूं। हम सब एक ही हैं। बाकी कुछ है ही नहीं। केवल एक ही है। सामान्य स्थिति में हम यह सचाई महसूस नहीं कर पाते।
Q. कैवल्य या आत्मज्ञान पाने का क्या सिर्फ यही एक तरीका है, सहस्रार चक्र तक पहुंचना?
A. अलग-अलग तरीके हैे। जैसे जो योग का तरीका है, उसमें अवेयरनेस सहस्रार तक हो जाए तो हम कैवल्य कह सकते हैं। मगर वेदांत के मुताबिक जब मन की सारी शंकाएं मिट जाती हैं, मन स्थिर हो जाता है और यह समझ में आ जाता है कि एक ब्रह्म ही है, बाकी कुछ नहीं। भक्ति के मार्ग में तब, जब भक्ति इतनी हो जाए कि लगे, खाली भगवान हैं, मैं भी नहीं हूं। तो इसके अलग-अलग तरीके होते हैं।
Q. अभी आपने जो तीन स्टेज बताईं, यहां कोई साधक जब पहुंच जाता है तो वहां पर पहुंचने के बाद वापस पुरानी स्टेज पर आ जाता है या हमेशा वहीं बना रहता है?
A. पहले-पहल वहां टच करके आते हैं। पहले जाते हैं, फिर आते हैं। साधना करते-करते बाद में ऐसी स्थिति आती है कि अवेयरनेस वहां जब तक चाहें, टिकाकर रख सकते हैं। दुनियावी कामों के लिए लौटना पड़ता है। लेकिन जब चाहें, सेकंडों में वहां दुबारा पहुंच सकते हैं।
Q. साधना के मार्ग में सिद्धियों को लेकर आम लोगों में बड़ा ग्लैमर दिखता है। क्या सिद्धि नाम की कोई चीज होती भी है?
A. होती है, मोक्ष प्राप्ति सबसे बड़ी सिद्धि है। और कुछ नहीं है। बाकी सब बेकार है।
Q. लेकिन क्या अलौकिक शक्तियां नाम की कोई चीज है?
A. है क्योंकि मन का विस्तार और विकास हो जाता है। ऐसे में आदमी की क्षमता बढ़ जाती है। यह सच है, मगर इस पर ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए। इससे हम अपने मूल उद्देश्य से भटक जाते हैं।
Q. क्या साधना में कोई ऐसी स्टेज आती है जहां पहुंचने के बाद सारा ज्ञान डाउनलोड हो जाता है? उसके बाद कोई किताब पढ़ने की जरूरत नहीं? किसी ज्ञानी के पास जाकर सीखने की जरूरत नहीं?
A. उपनिषद में कहा गया है कि एक ज्ञान ऐसा है जिसका अनुभव होने पर दूसरे किसी ज्ञान की जरूरत नहीं रह जाती। यह ज्ञान परब्रह्म का ज्ञान है। और दूसरा कुछ है ही नहीं। केवल वही है। ऐसा ज्ञान अगर हो जाए तो दूसरे किसी ज्ञान की जरूरत नहीं पड़ती। क्या करेंगे दूसरे ज्ञान का, कोई जरूरत नहीं पड़ती इसलिए दूसरा कुछ पढ़ने की जरूरत नहीं, ऐसा कहा गया है। इसका मतलब यह नहीं कि योगी जो समाधि में पहुंच गया, वह पार्टिकल फिजिक्स के बारे में भी जानता है। मगर मन का ऐसा विस्तार हो जाता है कि अगर वह चाहे तो जरूर ट्यून-इन करके मालूम कर सकता है। मगर हर वक्त वह सारी नॉलेज लेकर नहीं घूमता।
Q. मतलब यह कि क्वांटम फिजिक्स के बारे में आपको जानना है तो आप ट्यून-इन करके उस बारे में जान सकते हैं। क्या ऐसा सचमुच संभव है? क्या आपने कभी करके देखा है? तो क्या आपको कोई किताब पढ़ने की अब जरूरत नहीं है? क्या आपको किसी साधु-महात्मा के पास जाकर कुछ सीखने की जरूरत नहीं रही?
A. साधु-महात्मा के पास अब जाकर सीखने की कोई जरूरत नहीं क्योंकि ऐसे साधु-महात्मा कम हैं। मगर जहां तक साइंस की बात है तो मैं क्वांटम फिजिसिस्ट, बायोलजिस्ट वगैरा लोगों से मिलता रहता हूं। ऐस्ट्रनामिकल सोसाइटी और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस, बेंगलुरु में बोलने के लिए जाता रहता हूं। तब क्वांटम फिजिक्स के बारे में बात करनी पड़ती है। इसलिए मैं थोड़ा कुछ सीख जाता हूं। किताब पढ़कर नहीं। कुछ कनेक्ट कर लेता हूं। फिर वहां सारे साइंटिस्ट बैठे हैं तो उनसे बातचीत करने से कुछ हमें समझ में आ जाता है। पर उन्हें नहीं बताता हूं। सोचेंगेः बड़ा खतरनाक आदमी है, हमारे फील्ड में घुसपैठ कर रहा है। उपमा देकर अपनी बात कहता हूं, देखो ऐसा है। अभी कभी-कभी किताब वगैरा भी पढ़ लेता हूं। मगर मैं जो भी पढ़ता हूं, मेरे दिमाग में नहीं रहता। भूल जाता हूं। मेरा प्रोग्राम होता है तो मझे याद नहीं रहता है कि टॉपिक क्या है। कार से उतरते वक्त पूछता हूं कि आज सब्जेक्ट क्या है। ऐसे में आयोजक अगर नए हों तो वे एकदम डिप्रेस्ड हो जाते हैं। अरे, इनको तो सब्जेक्ट भी नहीं मालूम। क्या बोलेंगे। मगर जो मुझे जानते हैं, वे कहते हैं, हो जाएगा। तो वहां जाकर कुछ होता है। क्या होता है, पता नहीं।
Q. विज्ञान इतना खर्च यह खोजने में करता है कि एलियंस है कि नहीं, ब्लैक होल के पार कोई दूसरा यूनिवर्स है कि नहीं, तो आप उनकी मदद कर दें। आप सीधा उत्तर दे सकते हैं।
A. उत्तर दे सकता हूं, मगर कोई उसे लेने वाला नहीं है। कोई मानेगा नहीं। आज का माहौल ऐसा है कि अगर साइंटिस्ट कहेगा, तभी उसे मानेंगे। इसलिए वैज्ञानिकों की हम मदद कर सकते हैं। जो असल में बड़े साइंटिस्ट होते हैं, वे बड़े खुले दिमाग वाले होते हैं।
Q. मैं कुछ तथ्य जानना चाहता हूं। क्या एलियंस हैं? हैं तो कहां हैं?
A. एलियंस हैं, मगर कहां हैं, यह नहीं बोलूंगा।
Q. क्या उनकी सभ्यता हमसे ज्यादा विकसित है?
A. ज्यादा विकसित है।
Q. क्या कभी आप उनसे मिले या बातचीत हुई?
A. मैं क्या बताऊं, लोग हंसेंगे। मैं इतना कह सकता हूं कि वे हैं और यह पहली बार नहीं है कि वे धरती से संपर्क में हैं। अभी नहीं, हजारों साल से संपर्क में हैं। हमारी भोगवादी संस्कृति के कारण यह धरती खत्म होने वाली है। इसे कैसे बचाएं, वे इन कोशिशों में हैं। मुझे लगता है कि 50 बरसों के अंदर या इससे कहीं जल्दी उनके और हमारे वैज्ञानिकों के बीच संपर्क स्थापित हो जाएगा। वे छिपकर रहते हैं।
Q. वे अभी धरती पर हैं?
A. हो सकता है।
Q. क्या माइंडफुलनेस यानी साक्षी भाव हर वक्त बना रह सकता है, क्या 24 घंटे, सातों दिन?
A. कभी-कभी टूट जाता है मगर जो योगी है, वह कोशिश करता है कि 24 घंटे यह चले।
Q. नींद में भी?
A. आमतौर पर नींद में जो होता है, वह बाद में याद नहीं रहता। लेकिन योगी की स्थिति ऐसी होती है कि उसकी अवेयरनेस बनी रहती है। नींद में क्या हुआ, पूरा याद रहता है। उसे आम नींद नहीं आती, नींद में बड़े आनंद का अनुभव होता है।
Q. मौत के बाद क्या होता है?
A. इसी सवाल पर नचिकेता को यमदेव ने कहा था, 'मौत है ही नहीं, होना क्या है। आम समझ में लगता है, अभी जीवन है, फिर मौत है। तुम असल में मृत्यु-रहित हो। तुम्हारा न जन्म होता है, न मृत्यु।' मगर दूसरे तरीके से अगर देखा जाए तो स्थूल शरीर की मौत के बाद सूक्ष्म शरीर जीवित रहता है और अपने कर्म के हिसाब से दूसरे लोक में जाता है। मगर अपनी अधूरी इच्छाएं पूरी करने के लिए इस दुनिया में वापस आता है। अगर कुछ नहीं रहता तो वापस नहीं आता। जायादातर लोग वापस आते हैं।
Q. बैठकर ध्यान करना जरूरी है या चलते-फिरते होश में रहना?
A. दोनों जरूरी हैं लेकिन बैठकर ध्यान करना ज्यादा जरूरी है। सिटिंग मेडिटेशन किए बिना आपको स्थिरता हासिल नहीं होगी। रोज कम से कम 10 मिनट ध्यान कर लेना चाहिए।
Q. ऐसा क्यों होता है कि हम जानते हुए भी गलत काम करते जाते हैं। बदलाव स्थायी नहीं होता। आपके सत्संग में जाएं तो अच्छा लगता है, लेकिन दो दिन बाद हम फिर अपने पुराने ढर्रे पर वापस आ जाते हैं।
A. यह प्रकृति का खिंचाव है। प्रकृति किसी को आसानी से बाहर निकलने नहीं देती। यह कठिन लड़ाई होती है। हमारे साथ भी ऐसा हुआ था। असल में हमारे दिमाग में यह बैठ गया है कि हम कमजोर हैं, हमसे होगा नहीं। ध्यान हमें इन बनावटी सीमाओं से छुटकारा दिलाता है।
Q. तमाम आलतू-फालतू काम हो जाते हैं, बस ध्यान करना ही रह जाता है। जब भी वक्त की तंगी होती है तो पहली बलि ध्यान की होती है। इस स्थिति से कैसे बाहर निकलें?
A. इसके लिए एक चीज मन में रखनी चाहिए कि मेरी सबसे पहली प्राथमिकता ध्यान है। बाकी काम बाद में भी हो सकते हैं। ध्यान हर हाल में करना है।
Q. ध्यान करना कभी-कभी स्वार्थ लगता है। जो वक्त हमें परिवार को देना चाहिए, वह वक्त हम सिर्फ अपने मजे के लिए लगा रहे हैं।
A. ऐसा सोचिए कि मैं जो मोक्ष प्राप्ति के लिए ध्यान कर रहा हूं, यह पत्नी के लिए, बच्चों के लिए, सबके लिए अच्छा है।
Q. मैं कभी जब लंबे-लंबे समय ध्यान करता था, एक-एक, दो-दो घंटे। पत्नी कहा करती थी कि आप पार्क गए तो गए। लोग आधे घंटे में आ जाते हैं और आप इतने लेट। उन दिनों मैंने महसूस किया कि एक खास तरह की उदासी और सुस्ती मेरे अंदर आ गई थी। फिर मैंने इसे छोड़ दिया। ऐसी स्थिति में क्या करना सही है?
A. यह दुनिया पांच तत्वों से बनी है और इन पांच तत्वों के तीन गुण हैंः सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण। कुदरत की हर चीज और हर इंसान में ये तीनों गुण रहते हैं। ये गुण हर इंसान में अलग-अलग अनुपात में होते हैं। जो इंसान साधना करके मोक्ष पाना चाहता है, उसे सतोगुण ज्यादा चाहिए। जो आदमी संसारिक सुख भोगना चाहता है, उसे रजोगुण की जरूरत होती है। रजोगुण एेक्टिविटी है- फुल ऑफ एेक्शन। इस संसार में जीने के लिए यह जरूरी गुण है। आखिर में है तमोगुण। यह इसलिए रखा गया है ताकि हम सोकर अपने तन-मन को रिचार्ज कर सकें। सुस्ती तमोगुण है। हर आदमी में यह थोड़ा तो होता ही है, मगर कई लोगों में ज्यादा होता है। उन्हें इसे सतोगुण में बदल देना चाहिए। तमोगुण से सीधा कूदकर सतोगुण में नहीं जा सकते। रजोगुण से गुजरना जरूरी है क्योंकि रजोगुण से काम करके मन को साफ कर आगे बढ़ सकते हैं। आपके सवाल के संदर्भ में बता रहा हूं। हम सतोगुण में सीधे चले जाते हैं, लगातार ध्यान ही करते रहते हैं। तब कभी-कभी तमोगुण उसके बीच में आकर उससे जुड़ जाता है। तब हमें जब आलस होता है तो हम समझते हैं कि मैं समाधि में हूं, सत्व में हूं। यहां गलती हो जाती है। इसे संभालना चाहिए। यहां रजोगुण यानी ऐक्शन जरूरी है। इसीलिए स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन में कहा था कि हर समय आप लोग संन्यासी हो सकते हैं, मगर ध्यान नहीं कर सकते। कारण यह कि सतोगुण में जब जाते हैं तो हो सकता है कि तमोगुण इसके बीच में जम जाए। तब मन उदास हो जाता है और शरीर सुस्त। ऐसे में अच्छा है कि हम काम करें। मगर संन्यासी किसके लिए काम करे। अपने लिए तो कुछ जरूरी है नहीं। खाना और रहने की जगह तो यों ही मिल जाती है। इसलिए संन्यासी दूसरों के लिए करें। इससे मन साफ होता है। तब सतोगुण का जो असर होता है, वह तमोगुण में नहीं जा पाता। इसीलिए सभी धर्मों में सेवा रखी गई है। मैं कोई नई चीज नहीं कह रहा। यह ऋग्वेद से है- ‘आत्मनो मोक्षार्थम् जगत् हिताय च'। यानी इंसान को अपने मोक्ष के साथ-साथ दुनिया के कल्याण के लिए भी काम करना चाहिए। साधना के साथ-साथ सेवा करना जरूरी है।
साभार -नवभारतटाइम्स से राजेश मित्तल
An Interview with Spiritual Guru Sri M
आजकल जब बीएचयू विवाद के सिलसिले में संस्कृत में विद्वान मुस्लिम प्रफेसर की चर्चा हो रही है, ऐसे में एक ऐसे आध्यात्मिक गुरु से आपको रूबरू कराते हैं जो एक पारंपरिक मुस्लिम परिवार में पैदा हुए और फिर हिंदू धर्म की नाथ परंपरा से दीक्षित योगी बन गए। यह संन्यासी नहीं, मगर साधना सिखाते हैं। सिद्ध योगी हैं, पर शादीशुदा भी हैं। दो बच्चे हैं। हजारों अनुयायी हैं, लेकिन बड़े-बड़े और आलीशान आश्रम नहीं हैं और न ही साबुन-तेल आदि का कारोबार करते हैं। यह 70 बरस के मुमताज अली हैं जो 'श्री एम' के नाम से विख्यात हैं। 'सत्संग फाउंडेशन' के जरिए अपने मिशन को अंजाम दे रहे हैं। मिशन यह कि सब धर्मों-जातियों के लोग आपस में मिल-जुलकर रहें और ध्यान के माध्यम से अपने भीतर से जुड़कर शांति-आनंद महसूस करें। आंध्र प्रदेश में मदनपल्ली में रहते हैं। देश-विदेश में घूम-घूमकर क्रियायोग और ध्यान सिखाते हैं। इसका एक पैसा नहीं लेते। इन्होंने आजकल के कई दूसरे गुरुओं की तरह अध्यात्म को धंधा नहीं बनाया है। अपनी चर्चित आत्मकथा 'एक योगी का आत्मचरित' में अपने अनोखे आध्यात्मिक अनुभवों के बारे में लिखा है जिन पर एक बारगी यकीन नहीं होता। पिछले दिनों जब वह दिल्ली आए तो राजेश मित्तल ने उनसे बातचीत की। पेश हैं खास हिस्सेः
Q. आपने ध्यान पर हाल में एक किताब लिखी है। तो ध्यान क्या इतना आसान है कि बिना किसी गुरु के, दीक्षा-दक्षिणा के चक्कर में पड़े बिना उसे सीखा जा सकता है?
A. अगर कोई शख्स पूरी किताब पढ़ ले, ऐसा न हो कि एक चैप्टर में ध्यान का जो ब्योरा दिया हुआ है, खाली उसे पढ़े। अगर पूरा पढ़े और उसमें जो सावधानियां लिखी गई हैं, वे भी समझ में आ जाएं तो जरूर वह शख्स ध्यान करना शुरू कर सकता है। किताब लिखने का मेरा मकसद ही यही है। दरअसल ध्यान को बड़ा रहस्यपूर्ण बना दिया गया है, मंत्र-दीक्षा के परदों के जरिए।
Q. आप ध्यान के लिए रोज महज 15 मिनट का एक अभ्यास बताते हैं। इसे कितने अरसे तक करके कहां तक पहुंचा जा सकता है? या यह सिर्फ गृहस्थों के लिए ही है?
A. जवाब देने के लिए मैं आपको एक कहानी सुनाऊंगा। सच्ची घटना है। बहुत बड़े योगी थे श्यामाचरण लाहिड़ी। बनारस में रहते थे। उनके ढेर सारे शिष्य थे। इनमें एक प्रफेसर साहब भी थे जो सांख्य, वेदांत, तर्कशास्त्र - सब पढ़े हुए आदमी थे। उनको लाहिड़ी महाशय ने क्रिया योग की बेसिक टेक्नीक सिखाई। वह हर 4 हफ्ते गुजरने के बाद बनारस आते थे और बोलते थे कि अगली टेक्नीक कब मिलेगी। लाहिड़ी महाशय के एक और शिष्य थे जो पोस्टमैन थे। उन्होंने पढ़ाई-लिखाई ज्यादा नहीं की थी। खाली पता पढ़ लेते थे। लाहिड़ी महाशय ने जब बेसिक टेक्नीक प्रफेसर को दी थी, उसी समय पोस्टमैन को भी यही टेक्नीक दी थी। एक साल गुजर जाने पर जब प्रफेसर साहब अगली टेक्नीक सिखाने पर जोर दे रहे थे, तभी पोस्टमैन भी आ गया। लाहिड़ी महाशय ने उसे बुलाया। पूछा, ‘तुझे अगली टेक्नीक कब दूं?’ पोस्टमैन बोला, ‘महाराज, मुझे अभी छोड़ दीजिए। जो आपने सिखाया था, उसे रोजाना करता हूं। अब तो बाहर जाता हूं तो लोग समझते हैं, पीने लगा हूं क्योंकि अब मैं ठीक से चल नहीं पाता। अंदर इतना आनंद हो रहा है कि समझ नहीं आता कि चिट्ठियां कैसे पहुंचाऊं। यह हालत हो गई है मेरी। अगर आप आगे की टेक्नीक देंगे तो मेरी क्या हालत होगी। मत दीजिए।’ फिर लाहिड़ी महाशय ने प्रफेसर को कहा, ‘भैया, सुन लिया। तो बार-बार मत पूछिए, अगली टेक्नीक क्या है।’ मैं यह इसलिए कह रहा हूं कि अगर बेसिक टेक्नीक को ही पूरे मन से करना शुरू करें, लगातार करें तो ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं। ध्यान कोई विंडो शॉपिंग नहीं है कि एक टेक्नीक यहां से सीख ली, फिर दूसरी टेक्नीक किसी दूसरे गुरु से। जो टेक्नीक जानते हैं, उसी पर फोकस रखकर लगातार करते रहें तो कहीं तक भी जा सकते हैं। करते-करते ऐसा वक्त आएगा कि जो जरूरी है, वह आप तक अपने आप पहुंच जाएगा। ऐसी प्रवृत्ति गलत है कि थोड़े दिन करके ही कहने लगें कि कुछ हो नहीं रहा।
Q. तो क्या कभी ऐसी स्टेज आ सकती है कि जो अभी गृहस्थ है, वह संन्यास की तरफ चला जाए या गृहस्थ में रहते हुए ही आत्मज्ञान हासिल हो जाएगा?
A. मैंने अभी जिन लाहिड़ी महाशय का जिक्र किया, वह तो गृहस्थ थे, संन्यासी नहीं थे। मगर क्रिया योग के अभ्यासी थे। थोड़े लोग संन्यास भी लिए हुए हैं- युक्तेश्वर महाराज, योगानंद परमहंस वगैरा। ये सभी संन्यासी थे। मेरे गुरु महेश्वर नाथ बाबाजी भी संन्यासी ही थे। लेकिन खुद मैं गृहस्थ हूं। मुझे मेरे गुरु ने संन्यास लेने की इजाजत नहीं दी। यानी गृहस्थ भी आध्यात्मिक ऊंचाई तक पहुंच सकते हैं। मगर ऐसे लोग भी होते हैं जो संन्यास लेकर अपना पूरा वक्त ध्यान, साधना और समाधि में बिताना चाहते हैं। ये लोग संन्यास ले सकते हैं।
Q. यानी संन्यासी बनें या गृहस्थ, कोई फर्क नहीं पड़ता?
A. फर्क पड़ता है क्योंकि मुझे लगता है कि संन्यासी बनकर रहने से मुश्किल है गृहस्थ बनकर साधना करना।
Q. यह तो उल्टी बात हो गई कि संन्यासी का जीवन आसान है?
A. हां, एक तरह से उल्टी बात ही है। सचाई यह है कि साधना के हिसाब से गृहस्थ का जीवन आसान नहीं है। जो ब्रह्मचारी से सीधा संन्यास ले लेते हैं, उनके लिए थोड़ा आसान है क्योंकि उनके लिए बाहरी परिस्थितियां ज्यादा चुनौती नहीं बनतीं। अब अगर आप संन्यासी बन जाएं और गेरुआ पहनकर कहीं आश्रम में रहें या दूर कुटिया में रहकर आप ध्यान कर रहे हैं तो कोई आपको परेशान करने वाला नहीं है और न ही आपको कोई शिष्य बनाना है, न कुछ काम करना है। हमारी हालत ऐसी नहीं है। हम बस में जाते हैं, कार में जाते हैं, प्लेन में जाते हैं, लोगों को मिलते हैं। तो हमारे फंस जाने के आसार काफी ज्यादा होते हैं। मेरी दिली इच्छा थी कि मैं गेरुआ पहनकर कहीं अकेला संन्यासी बनके घूमता रहूं। पर गुरुजी का कहना था कि यह नहीं होगा, तुम्हारा काम अलग है। तुम गृहस्थों के साथ काम करोगे, इसलिए तुम्हारे लिए गृहस्थ बनना ही बेहतर है। तो मैं गृहस्थ बन गया। आज भी कभी-कभी लगता है कि संन्यास ले लूं। फिर सोचता हूं, बाबाजी ने ठीक ही कहा। संन्यास ले लेता तो समाधि में ही बैठे रहने में मन रम जाता। लेकिन ढेर सारे लोग हैं जिन्हें अध्यात्म के सही स्वरूप के बारे में समझाने का काम किया है। तब यह काम कहां हो पाता।
Q. कुछ लोग गुरु बन जाते हैं और कहते हैं कि मोक्ष दूंगा। कैसे पता लगता है कि साधक अब सिद्ध बन गया है, अब वह बटोरने के बजाय बांट सकता है? यह तय करने का हक किसे है?
A. बड़ा मुश्किल सवाल है। इतना कहूंगा कि अगर आपके गुरु बहुत पहुंचे हुए हैं तो वह सर्टिफाई सकते हैं कि अब तुम तैयार हो। दूसरा यह है कि अगर कोई व्यक्ति इस स्थिति पर पहुंच जाए, जहां संतुष्टि के लिए बाहरी दुनिया पर निर्भरता नहीं रहती, जहां आनंद अंदर से आना शुरू हो जाए, जहां उसे निंदा और स्तुति एक ही लगे। स्तुति से कोई ऊपर उठ नहीं जाता और निंदा से कोई नीचे गिर नहीं जाता। यह स्थिति अगर मन में स्थिर हो जाए, अगर स्थितप्रज्ञता हो जाए, तब कह सकते हैं कि हां, अब हम सिखा सकते हैं। तब तक आपको हजारों अलौकिक अनुभूतियां (विजन) भी हो जाएं, तब भी वहां नहीं पहुंचेंगे। विजन तो किसी योगी से कहीं ज्यादा एलएसडी अडिक्ट को होते हैं।
Q. अंदर से कोई किस स्तर पर है, इसकी असलियत या तो इंसान को खुद पता है या फिर, आपके मुताबिक, उसके गुरु को। लेकिन अगर कोई सामने वाला ऐसा दावा कर रहा है तो उसकी हकीकत हमें कैसे मालूम हो सकती है?
A. इसके लिए उसके जो बाहरी तामझाम हैं, उन पर ज्यादा ध्यान न दें। जैसे कि दाढ़ी कितनी लंबी है, सिर पर क्या बांधा है, चेले-चपाटे कितने रसूख वाले हैं। इन चीजों से प्रभावित न हों। देखें कि उसका स्वभाव कैसा है, जीवन में सादगी है या लग्जरी, अनुभव भी है या खाली ज्ञान ही है। यह भी देखना चाहिए कि देने के लिए आए हैं या हमारे पास से कुछ लेने के लिए आए हैं। जो असल में पहुंचा हुआ होता है, वह ध्यान, ज्ञान, भक्ति, जप, मंत्र, दीक्षा को पैसे से नहीं बेचता। वह जो अमीर-गरीब, मंत्री-संत्री नहीं देखता। वह ज्यादा पैसे देने वाले को खास तवज्जो नहीं देता।
Q. आजकल ध्यान की विधियां चंद हेर-फेर करके अपना ठप्पा लगाकर बेची जा रही हैं, पर आपने अपनी ध्यान विधि को कोई नाम नहीं दिया है। ऐसा क्यों?
A. आप कैसे नाम देंगे। यह जो संपदा हमारे पास है, वह ऋषियों की दी हुई है। हम इसे बेच नहीं सकते। जब बेचना शुरू कर देते हैं तो अध्यात्म खत्म हो जाता है, कारोबार चालू हो जाता है। आजकल यह आम है। अगर मंत्र दीक्षा के लिए परंपरा के चलते दक्षिणा की जरूरत है तो एक रुपया और फूल ले लो। अगर इससे कमाने लगे तो कोई पैसेवाला आ गया तो उसकी पूछ ज्यादा होगी। जो गरीब आदमी होगा लेकिन सच्चा साधक, उसे कोई नहीं पूछेगा। अध्यात्म में राजा और रंक एक समान होने चाहिए।
Q. कई बाबा लोग संयम-त्याग की बात करते-करते खुद रईस बन गए हैं। बड़े-बड़े आश्रम बना लिए हैं।
A. अरे, क्या बताएं आपको। एक महाराज हैं, बड़े प्रसिद्ध हैं। हाल में मैंने उनका एक विडियो देखा। किसी ने उनसे पूछा, आप उपनिषद क्यों नहीं सिखाते? वह बोले, 'उपनिषद की क्या जरूरत है। मैं तो हूं।' रामकृष्ण परमहंस ने उपनिषद नहीं पढ़े थे, मगर उन्होंने भी ऐसे नहीं कहा कि उपनिषद की क्या जरूरत है, मैं हूं। अब स्वामी विवेकानंद ने उपनिषद पूरे पढ़े हैं। उन्होंने मना नहीं किया क्योंकि यह अलग तरीका है, ज्ञान का।
Q. आज के समय के जो आध्यात्मिक गुरु हैं, उनमें से आप किन्हें सम्मान देते हैं?
A. मैं इस पर कुछ नहीं बोलूंगा।
Q. आपने उस अवस्था को पाया तो आपको कब लगा कि अब मैं बांटने निकल सकता हूं?
A. 25 साल का था जब बाबा जी ने जब मुझे अपने पास से उतारा। बोलेः 'जाओ, अभी तुम संसार में उतरो, गृहस्थ बनो। लेकिन तुम अभी किसी को कुछ नहीं सिखाओगे क्योंकि तुम अभी इस लायक नहीं हुए हो। जब तक तुम्हें ये-ये संकेत न मिलें, तब तक किसी को कुछ नहीं सिखाना। ये अनुभूतियां होने तक मुंह मत खोलना।' मैं दूसरे लोगों के सत्संग में जाता था। कभी-कभी लगता था कि ये क्या बात कर रहे हैं। यह तो गलत है। क्यों बोल रहे हैं। लेकिन मैं मुंह नहीं खोल सकता था क्योंकि बाबाजी का ऑर्डर था। कभी-कभी यह बहुत टॉर्चर लगता था। सोचता था कि अब तो हम सिखा सकते हैं। फिर भी मुझे थोड़ा संकोच हुआ कि करना है या नहीं। 37 का था जब शादी कर ली। बाद में दो बच्चे भी हुए। फिर 40 साल का हो गया। एक दिन में बेंगलुरु गया। वहां हमारे एक दोस्त हैं। जूलर हैं। उन्होंने कहा कि थियोसोफिकल सोसाइटी में संडे को कुछ बोल सकते हो क्या। मैंने कहा, सोचकर बताऊंगा। मैंने घर जाकर आंखें मूंदीं। बाबाजी से प्रार्थना की। मैंने कहाः 'बाबाजी, मुझे लग रहा है, आपने जैसा कहा, अभी मैं तैयार हूं। मैं जाऊं या नहीं, कोई संकेत दे दीजिए।' फिर सो गया। नींद में एक अजीबोगरीब संकेत मिलाः मैं एक ट्रेन में बैठा हूं और ट्रेन पर लिखा है- सत्संग। मैं उसके अंदर बैठा हूं, बाहर देख रहा हूं। बाबाजी आ रहे हैं। पैर में जूते नहीं हैं मगर रेलवे गार्ड के सफेद कपड़े पहने हैं और सिर पर टोपी भी नहीं है। हाथ में एक ग्रीन लैंप लेकर हिला रहे हैं। ट्रेन ने सीटी मारी और चली गई। मैं अचानक उठा और सोचा, यह संकेत ही तो है। मैं संडे को वहां गया। मैंने सोचा कि कोई 2-4 लोग बैठे होंगे। जब देखा तो वहां हॉल में सौ आदमी बैठे थे। मुझे लगा, अभी क्या होगा। मैं बैठा, फिर मुझे ध्यान आया कि बाबाजी ने मुझे बहुत साल पहले कहा था, एक समय आएगा कि तुम्हें ढेर सारे लोगों के सामने भाषण देना होगा। मैंने कहा, कैसे हो पाएगा। बाबाजी बोले, तुम्हारे सामने जो बैठा होगा, उससे बात करना। भूल जाओ दूसरे लोगों को। मुझे यह आइडिया याद आ गया। मैंने सामने वाले सज्जन को देखा और उनसे बात करना शुरू किया। उन्हें हिमालय की अपनी यात्रा के बारे में बताया। यह पहला सत्संग था। फिर आगे सिलसिला शुरू हो गया।
Q. वे अनुभूतियां कौन-सी थीं जिनका अनुभव होने के बाद ही आपको गुरु बनने की इजाजत थी?
A. जब बाबाजी ने मुझे उतारा था, तब मेरी अवेयरनेस का लेवल गले (विशुद्धि चक्र) तक था। यहां तक अगर जागृति जाए तो किसी भी चीज के बारे में आदमी बखूबी बोल सकता है। विशुद्धि चक्र वाक् से जुड़ा है। बाबाजी ने कहा था, 'जब तक अवेयरनेस सिर के ऊपरी हिस्से तक (सहस्रार चक्र) न पहुंचे, मुंह मत खोलना।' तब सहस्रार तक कभी-कभार पहुंच जाता था, पर वहां टिक नहीं पाता था। एक बार तीन दिन के लिए मैं कहीं गया था। मुझे पूरा याद नहीं है। उसके बाद वापस आया तो लगा कि एक-आधे सेकंड के अंदर जब भी चाहूं, तब अवेयरनेस को सहस्रार तक ला सकता हूं। यही तो बाबाजी ने कहा था कि जब ऐसा हो जाएगा, तब तुम सिखा सकते हो। अभी मैं आपसे बात कर रहा हूं तो अटेंशन वहां गया तो शुरू हो गया। मगर उसको मैं नीचे ला रहा हूं क्योंकि अभी आपसे बातचीत करनी है।
Q. यह जो सहस्रार चक्र तक पहुंचना है, इस स्थिति को कहते क्या हैं?
A. इस एक स्थिति को बयां करने के लिए कई शब्द हैंः मोक्ष, निर्वाण, बुद्धत्व आदि। मुझे कैवल्य शब्द पसंद है। इसका मूल शब्द है केवल। कैवल्य की स्थिति में ऐसा महसूस होता है कि कुछ नहीं है, खाली मैं हूं। मैं मतलब ईगो नहीं। जो तू है, वो मैं हूं। हम सब एक ही हैं। बाकी कुछ है ही नहीं। केवल एक ही है। सामान्य स्थिति में हम यह सचाई महसूस नहीं कर पाते।
Q. कैवल्य या आत्मज्ञान पाने का क्या सिर्फ यही एक तरीका है, सहस्रार चक्र तक पहुंचना?
A. अलग-अलग तरीके हैे। जैसे जो योग का तरीका है, उसमें अवेयरनेस सहस्रार तक हो जाए तो हम कैवल्य कह सकते हैं। मगर वेदांत के मुताबिक जब मन की सारी शंकाएं मिट जाती हैं, मन स्थिर हो जाता है और यह समझ में आ जाता है कि एक ब्रह्म ही है, बाकी कुछ नहीं। भक्ति के मार्ग में तब, जब भक्ति इतनी हो जाए कि लगे, खाली भगवान हैं, मैं भी नहीं हूं। तो इसके अलग-अलग तरीके होते हैं।
Q. अभी आपने जो तीन स्टेज बताईं, यहां कोई साधक जब पहुंच जाता है तो वहां पर पहुंचने के बाद वापस पुरानी स्टेज पर आ जाता है या हमेशा वहीं बना रहता है?
A. पहले-पहल वहां टच करके आते हैं। पहले जाते हैं, फिर आते हैं। साधना करते-करते बाद में ऐसी स्थिति आती है कि अवेयरनेस वहां जब तक चाहें, टिकाकर रख सकते हैं। दुनियावी कामों के लिए लौटना पड़ता है। लेकिन जब चाहें, सेकंडों में वहां दुबारा पहुंच सकते हैं।
Q. साधना के मार्ग में सिद्धियों को लेकर आम लोगों में बड़ा ग्लैमर दिखता है। क्या सिद्धि नाम की कोई चीज होती भी है?
A. होती है, मोक्ष प्राप्ति सबसे बड़ी सिद्धि है। और कुछ नहीं है। बाकी सब बेकार है।
Q. लेकिन क्या अलौकिक शक्तियां नाम की कोई चीज है?
A. है क्योंकि मन का विस्तार और विकास हो जाता है। ऐसे में आदमी की क्षमता बढ़ जाती है। यह सच है, मगर इस पर ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए। इससे हम अपने मूल उद्देश्य से भटक जाते हैं।
Q. क्या साधना में कोई ऐसी स्टेज आती है जहां पहुंचने के बाद सारा ज्ञान डाउनलोड हो जाता है? उसके बाद कोई किताब पढ़ने की जरूरत नहीं? किसी ज्ञानी के पास जाकर सीखने की जरूरत नहीं?
A. उपनिषद में कहा गया है कि एक ज्ञान ऐसा है जिसका अनुभव होने पर दूसरे किसी ज्ञान की जरूरत नहीं रह जाती। यह ज्ञान परब्रह्म का ज्ञान है। और दूसरा कुछ है ही नहीं। केवल वही है। ऐसा ज्ञान अगर हो जाए तो दूसरे किसी ज्ञान की जरूरत नहीं पड़ती। क्या करेंगे दूसरे ज्ञान का, कोई जरूरत नहीं पड़ती इसलिए दूसरा कुछ पढ़ने की जरूरत नहीं, ऐसा कहा गया है। इसका मतलब यह नहीं कि योगी जो समाधि में पहुंच गया, वह पार्टिकल फिजिक्स के बारे में भी जानता है। मगर मन का ऐसा विस्तार हो जाता है कि अगर वह चाहे तो जरूर ट्यून-इन करके मालूम कर सकता है। मगर हर वक्त वह सारी नॉलेज लेकर नहीं घूमता।
Q. मतलब यह कि क्वांटम फिजिक्स के बारे में आपको जानना है तो आप ट्यून-इन करके उस बारे में जान सकते हैं। क्या ऐसा सचमुच संभव है? क्या आपने कभी करके देखा है? तो क्या आपको कोई किताब पढ़ने की अब जरूरत नहीं है? क्या आपको किसी साधु-महात्मा के पास जाकर कुछ सीखने की जरूरत नहीं रही?
A. साधु-महात्मा के पास अब जाकर सीखने की कोई जरूरत नहीं क्योंकि ऐसे साधु-महात्मा कम हैं। मगर जहां तक साइंस की बात है तो मैं क्वांटम फिजिसिस्ट, बायोलजिस्ट वगैरा लोगों से मिलता रहता हूं। ऐस्ट्रनामिकल सोसाइटी और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस, बेंगलुरु में बोलने के लिए जाता रहता हूं। तब क्वांटम फिजिक्स के बारे में बात करनी पड़ती है। इसलिए मैं थोड़ा कुछ सीख जाता हूं। किताब पढ़कर नहीं। कुछ कनेक्ट कर लेता हूं। फिर वहां सारे साइंटिस्ट बैठे हैं तो उनसे बातचीत करने से कुछ हमें समझ में आ जाता है। पर उन्हें नहीं बताता हूं। सोचेंगेः बड़ा खतरनाक आदमी है, हमारे फील्ड में घुसपैठ कर रहा है। उपमा देकर अपनी बात कहता हूं, देखो ऐसा है। अभी कभी-कभी किताब वगैरा भी पढ़ लेता हूं। मगर मैं जो भी पढ़ता हूं, मेरे दिमाग में नहीं रहता। भूल जाता हूं। मेरा प्रोग्राम होता है तो मझे याद नहीं रहता है कि टॉपिक क्या है। कार से उतरते वक्त पूछता हूं कि आज सब्जेक्ट क्या है। ऐसे में आयोजक अगर नए हों तो वे एकदम डिप्रेस्ड हो जाते हैं। अरे, इनको तो सब्जेक्ट भी नहीं मालूम। क्या बोलेंगे। मगर जो मुझे जानते हैं, वे कहते हैं, हो जाएगा। तो वहां जाकर कुछ होता है। क्या होता है, पता नहीं।
Q. विज्ञान इतना खर्च यह खोजने में करता है कि एलियंस है कि नहीं, ब्लैक होल के पार कोई दूसरा यूनिवर्स है कि नहीं, तो आप उनकी मदद कर दें। आप सीधा उत्तर दे सकते हैं।
A. उत्तर दे सकता हूं, मगर कोई उसे लेने वाला नहीं है। कोई मानेगा नहीं। आज का माहौल ऐसा है कि अगर साइंटिस्ट कहेगा, तभी उसे मानेंगे। इसलिए वैज्ञानिकों की हम मदद कर सकते हैं। जो असल में बड़े साइंटिस्ट होते हैं, वे बड़े खुले दिमाग वाले होते हैं।
Q. मैं कुछ तथ्य जानना चाहता हूं। क्या एलियंस हैं? हैं तो कहां हैं?
A. एलियंस हैं, मगर कहां हैं, यह नहीं बोलूंगा।
Q. क्या उनकी सभ्यता हमसे ज्यादा विकसित है?
A. ज्यादा विकसित है।
Q. क्या कभी आप उनसे मिले या बातचीत हुई?
A. मैं क्या बताऊं, लोग हंसेंगे। मैं इतना कह सकता हूं कि वे हैं और यह पहली बार नहीं है कि वे धरती से संपर्क में हैं। अभी नहीं, हजारों साल से संपर्क में हैं। हमारी भोगवादी संस्कृति के कारण यह धरती खत्म होने वाली है। इसे कैसे बचाएं, वे इन कोशिशों में हैं। मुझे लगता है कि 50 बरसों के अंदर या इससे कहीं जल्दी उनके और हमारे वैज्ञानिकों के बीच संपर्क स्थापित हो जाएगा। वे छिपकर रहते हैं।
Q. वे अभी धरती पर हैं?
A. हो सकता है।
Q. क्या माइंडफुलनेस यानी साक्षी भाव हर वक्त बना रह सकता है, क्या 24 घंटे, सातों दिन?
A. कभी-कभी टूट जाता है मगर जो योगी है, वह कोशिश करता है कि 24 घंटे यह चले।
Q. नींद में भी?
A. आमतौर पर नींद में जो होता है, वह बाद में याद नहीं रहता। लेकिन योगी की स्थिति ऐसी होती है कि उसकी अवेयरनेस बनी रहती है। नींद में क्या हुआ, पूरा याद रहता है। उसे आम नींद नहीं आती, नींद में बड़े आनंद का अनुभव होता है।
Q. मौत के बाद क्या होता है?
A. इसी सवाल पर नचिकेता को यमदेव ने कहा था, 'मौत है ही नहीं, होना क्या है। आम समझ में लगता है, अभी जीवन है, फिर मौत है। तुम असल में मृत्यु-रहित हो। तुम्हारा न जन्म होता है, न मृत्यु।' मगर दूसरे तरीके से अगर देखा जाए तो स्थूल शरीर की मौत के बाद सूक्ष्म शरीर जीवित रहता है और अपने कर्म के हिसाब से दूसरे लोक में जाता है। मगर अपनी अधूरी इच्छाएं पूरी करने के लिए इस दुनिया में वापस आता है। अगर कुछ नहीं रहता तो वापस नहीं आता। जायादातर लोग वापस आते हैं।
Q. बैठकर ध्यान करना जरूरी है या चलते-फिरते होश में रहना?
A. दोनों जरूरी हैं लेकिन बैठकर ध्यान करना ज्यादा जरूरी है। सिटिंग मेडिटेशन किए बिना आपको स्थिरता हासिल नहीं होगी। रोज कम से कम 10 मिनट ध्यान कर लेना चाहिए।
Q. ऐसा क्यों होता है कि हम जानते हुए भी गलत काम करते जाते हैं। बदलाव स्थायी नहीं होता। आपके सत्संग में जाएं तो अच्छा लगता है, लेकिन दो दिन बाद हम फिर अपने पुराने ढर्रे पर वापस आ जाते हैं।
A. यह प्रकृति का खिंचाव है। प्रकृति किसी को आसानी से बाहर निकलने नहीं देती। यह कठिन लड़ाई होती है। हमारे साथ भी ऐसा हुआ था। असल में हमारे दिमाग में यह बैठ गया है कि हम कमजोर हैं, हमसे होगा नहीं। ध्यान हमें इन बनावटी सीमाओं से छुटकारा दिलाता है।
Q. तमाम आलतू-फालतू काम हो जाते हैं, बस ध्यान करना ही रह जाता है। जब भी वक्त की तंगी होती है तो पहली बलि ध्यान की होती है। इस स्थिति से कैसे बाहर निकलें?
A. इसके लिए एक चीज मन में रखनी चाहिए कि मेरी सबसे पहली प्राथमिकता ध्यान है। बाकी काम बाद में भी हो सकते हैं। ध्यान हर हाल में करना है।
Q. ध्यान करना कभी-कभी स्वार्थ लगता है। जो वक्त हमें परिवार को देना चाहिए, वह वक्त हम सिर्फ अपने मजे के लिए लगा रहे हैं।
A. ऐसा सोचिए कि मैं जो मोक्ष प्राप्ति के लिए ध्यान कर रहा हूं, यह पत्नी के लिए, बच्चों के लिए, सबके लिए अच्छा है।
Q. मैं कभी जब लंबे-लंबे समय ध्यान करता था, एक-एक, दो-दो घंटे। पत्नी कहा करती थी कि आप पार्क गए तो गए। लोग आधे घंटे में आ जाते हैं और आप इतने लेट। उन दिनों मैंने महसूस किया कि एक खास तरह की उदासी और सुस्ती मेरे अंदर आ गई थी। फिर मैंने इसे छोड़ दिया। ऐसी स्थिति में क्या करना सही है?
A. यह दुनिया पांच तत्वों से बनी है और इन पांच तत्वों के तीन गुण हैंः सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण। कुदरत की हर चीज और हर इंसान में ये तीनों गुण रहते हैं। ये गुण हर इंसान में अलग-अलग अनुपात में होते हैं। जो इंसान साधना करके मोक्ष पाना चाहता है, उसे सतोगुण ज्यादा चाहिए। जो आदमी संसारिक सुख भोगना चाहता है, उसे रजोगुण की जरूरत होती है। रजोगुण एेक्टिविटी है- फुल ऑफ एेक्शन। इस संसार में जीने के लिए यह जरूरी गुण है। आखिर में है तमोगुण। यह इसलिए रखा गया है ताकि हम सोकर अपने तन-मन को रिचार्ज कर सकें। सुस्ती तमोगुण है। हर आदमी में यह थोड़ा तो होता ही है, मगर कई लोगों में ज्यादा होता है। उन्हें इसे सतोगुण में बदल देना चाहिए। तमोगुण से सीधा कूदकर सतोगुण में नहीं जा सकते। रजोगुण से गुजरना जरूरी है क्योंकि रजोगुण से काम करके मन को साफ कर आगे बढ़ सकते हैं। आपके सवाल के संदर्भ में बता रहा हूं। हम सतोगुण में सीधे चले जाते हैं, लगातार ध्यान ही करते रहते हैं। तब कभी-कभी तमोगुण उसके बीच में आकर उससे जुड़ जाता है। तब हमें जब आलस होता है तो हम समझते हैं कि मैं समाधि में हूं, सत्व में हूं। यहां गलती हो जाती है। इसे संभालना चाहिए। यहां रजोगुण यानी ऐक्शन जरूरी है। इसीलिए स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन में कहा था कि हर समय आप लोग संन्यासी हो सकते हैं, मगर ध्यान नहीं कर सकते। कारण यह कि सतोगुण में जब जाते हैं तो हो सकता है कि तमोगुण इसके बीच में जम जाए। तब मन उदास हो जाता है और शरीर सुस्त। ऐसे में अच्छा है कि हम काम करें। मगर संन्यासी किसके लिए काम करे। अपने लिए तो कुछ जरूरी है नहीं। खाना और रहने की जगह तो यों ही मिल जाती है। इसलिए संन्यासी दूसरों के लिए करें। इससे मन साफ होता है। तब सतोगुण का जो असर होता है, वह तमोगुण में नहीं जा पाता। इसीलिए सभी धर्मों में सेवा रखी गई है। मैं कोई नई चीज नहीं कह रहा। यह ऋग्वेद से है- ‘आत्मनो मोक्षार्थम् जगत् हिताय च'। यानी इंसान को अपने मोक्ष के साथ-साथ दुनिया के कल्याण के लिए भी काम करना चाहिए। साधना के साथ-साथ सेवा करना जरूरी है।
साभार -नवभारतटाइम्स से राजेश मित्तल
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