स्कंद शुक्ला
यह किस आधार पर तय हो कि भारतीय जनता कहाँ आरओ का पानी पिये और कहाँ नहीं ? आरओ यानी रिवर्स ओस्मोसिस की पद्धति से प्राप्त पानी किन अशुद्धियों को पानी से हटाता है ? क्या पूरे भारत के हर महानगर और हर गाँव का हर व्यक्ति आरओ-जल पीने लगे ? और इस तरह से इस जलपान के दुष्प्रभाव क्या हैं ?
आपके घर में आरओ-यन्त्र लगा है ? यदि हाँ , तो आपने इसे लगवाने का निर्णय कैसे लिया ? किस आधार पर ? क्या सचिन तेन्दुलकर और हेमा मालिनी के विज्ञापनों को देखकर ? अथवा किसी वैज्ञानिक आधार पर मिली जागरूकता की वजह से ?
भारत में पेयजल का संकट बढ़ रहा है और आने वाले समय में यह और भीषण रूप लेगा : ऐसे में यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि आरओ के अन्धे प्रयोग ने पानी की बर्बादी में बड़ी भूमिका निभायी है। इसी बाबत नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने पर्यावरण-मन्त्रालय को पत्र लिखा है और कहा है कि जिन स्थानों में टोटल डिजॉल्व्ड सॉलिड्स ( टीडीएस ) की मात्रा 500 मिलीग्राम / लीटर से कम हो , वहाँ आरओ के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए।
पेयजल में कई प्रकार की अशुद्धियाँ हो सकती हैं। घुले हुए ठोस पदार्थ ( टीडीएस ) जिनका ऊपर ज़िक़्र किया गया है , उनमें से एक हैं। भारत में अलग-अलग स्थानों में टीडीएस की मात्रा पानी में अलग-अलग है। आरओ इन पदार्थों को पानी से अलग कर देता है। लेकिन हर स्थान पर ये पदार्थ इतने नहीं कि इन्हें निकालने की ज़रूरत पड़े। उलटा इन्हें हर जगह निकालने से पानी का जो 'अतिशुद्धीकरण' आरओ मशीनों द्वारा किया जाता है , उससे पानी की गुणवत्ता गिर जाती है।
कुछ हद तक टीडीएस हमें चाहिए, हमारे लिए ज़रूरी है। टीडीएस-मुक्त जल पीना कोई बहुत अच्छी बात नहीं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि टीडीएस की मात्रा एक निश्चित हद में रहे , न ज़्यादा और न कम। आरओ-यन्त्र टीडीएस को पानी से अलग कर देते हैं। इस क्रम में लगभग अस्सी प्रतिशत तक पानी बरबाद होता है और केवल बीस प्रतिशत पीने योग्य पानी मिलता है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का मन्त्रालय से निवेदन है कि प्राप्त पानी कम-से-कम 60 % हो , ऐसा प्रावधान आरओ-निर्माता दें। यानी चालीस प्रतिशत से अधिक पानी बर्बाद न हो।
आरओ-यन्त्र विकसित देशों में वहाँ इस्तेमाल होते हैं , जहाँ समुद्री पानी से लवण अलग करके उसे पीने योग्य बनाना होता है। भारत में इन्हें लगाने की एक भेड़चाल चल पड़ी है। जिसे देखो , आरओ का पानी पी रहा है और आरओ-यन्त्र लगवा रहा है ? क्यों , यह जानकारी है ही नहीं। जो थोड़ा बहुत टीडीएस को जानते हैं , वे उसे एकदम मानव-शरीर का शत्रु समझे बैठे हैं।
यह आपका कर्त्तव्य और अधिकार दोनों है कि अपने जलकल-संस्थान से संवाद स्थापित करें। वहाँ अभियन्ता व अन्य अधिकारियों से मिलें। पूछें कि जो पानी आप पी रहे हैं , उसमें टीडीएस कितना है ? क्या 500 से अधिक है ? क्या आपको अपने घरों में आरओ लगवाने की ज़रूरत है ? कहीं आरओ लगवा कर आप पेयजल को दोयम दर्ज़े का नहीं बना रहे ? कहीं आपके आरओ-यन्त्र के कारण अस्सी फीसदी पानी नाली में तो नहीं ? अगर हाँ , तो यह कितनी बड़ी नासमझी और कितनी बड़ी बर्बादी है !
आरओ-यन्त्रों की बिक्री जनता में भय फैला कर चल रही है , ऐसा नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का मानना है। यह प्रचार करो कि हर जलस्रोत एकदम प्रदूषित है। हर जगह जीवाणु हैं , हर जगह टीडीएस एकदम उच्च। हर पानी के स्रोत में फ़्लोराइड है और आर्सेनिक भी। कौन जाकर अपने अपने इलाक़े के जेई से सच्चाई जानेगा ? सब केवल टीवी पर महानायकों-महानायिकाओं को देखेंगे और 'शुद्ध पानी' के लिए उनका कहा मान लेंगे। विज्ञापन की विज्ञान पर जीत होगी।
( इस लेख के साथ नीचे नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की रिपोर्ट पर आधारित लेख का लिंक दे रहा हूँ। कुछ अख़बारों में इस ख़बर का विवरण भी। इन्हें पढ़िए। अपने स्थानीय जलकल-अभियन्ता से मिलिए। पूछिए उनसे कि क्या आपका पेयजल इतना अशुद्ध है , जितना बाज़ार बताता है ? क्या पूरे देश में हर व्यक्ति को आरओ का पानी ही पीना चाहिए ? )
यह किस आधार पर तय हो कि भारतीय जनता कहाँ आरओ का पानी पिये और कहाँ नहीं ? आरओ यानी रिवर्स ओस्मोसिस की पद्धति से प्राप्त पानी किन अशुद्धियों को पानी से हटाता है ? क्या पूरे भारत के हर महानगर और हर गाँव का हर व्यक्ति आरओ-जल पीने लगे ? और इस तरह से इस जलपान के दुष्प्रभाव क्या हैं ?
आपके घर में आरओ-यन्त्र लगा है ? यदि हाँ , तो आपने इसे लगवाने का निर्णय कैसे लिया ? किस आधार पर ? क्या सचिन तेन्दुलकर और हेमा मालिनी के विज्ञापनों को देखकर ? अथवा किसी वैज्ञानिक आधार पर मिली जागरूकता की वजह से ?
भारत में पेयजल का संकट बढ़ रहा है और आने वाले समय में यह और भीषण रूप लेगा : ऐसे में यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि आरओ के अन्धे प्रयोग ने पानी की बर्बादी में बड़ी भूमिका निभायी है। इसी बाबत नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने पर्यावरण-मन्त्रालय को पत्र लिखा है और कहा है कि जिन स्थानों में टोटल डिजॉल्व्ड सॉलिड्स ( टीडीएस ) की मात्रा 500 मिलीग्राम / लीटर से कम हो , वहाँ आरओ के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए।
पेयजल में कई प्रकार की अशुद्धियाँ हो सकती हैं। घुले हुए ठोस पदार्थ ( टीडीएस ) जिनका ऊपर ज़िक़्र किया गया है , उनमें से एक हैं। भारत में अलग-अलग स्थानों में टीडीएस की मात्रा पानी में अलग-अलग है। आरओ इन पदार्थों को पानी से अलग कर देता है। लेकिन हर स्थान पर ये पदार्थ इतने नहीं कि इन्हें निकालने की ज़रूरत पड़े। उलटा इन्हें हर जगह निकालने से पानी का जो 'अतिशुद्धीकरण' आरओ मशीनों द्वारा किया जाता है , उससे पानी की गुणवत्ता गिर जाती है।
कुछ हद तक टीडीएस हमें चाहिए, हमारे लिए ज़रूरी है। टीडीएस-मुक्त जल पीना कोई बहुत अच्छी बात नहीं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि टीडीएस की मात्रा एक निश्चित हद में रहे , न ज़्यादा और न कम। आरओ-यन्त्र टीडीएस को पानी से अलग कर देते हैं। इस क्रम में लगभग अस्सी प्रतिशत तक पानी बरबाद होता है और केवल बीस प्रतिशत पीने योग्य पानी मिलता है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का मन्त्रालय से निवेदन है कि प्राप्त पानी कम-से-कम 60 % हो , ऐसा प्रावधान आरओ-निर्माता दें। यानी चालीस प्रतिशत से अधिक पानी बर्बाद न हो।
आरओ-यन्त्र विकसित देशों में वहाँ इस्तेमाल होते हैं , जहाँ समुद्री पानी से लवण अलग करके उसे पीने योग्य बनाना होता है। भारत में इन्हें लगाने की एक भेड़चाल चल पड़ी है। जिसे देखो , आरओ का पानी पी रहा है और आरओ-यन्त्र लगवा रहा है ? क्यों , यह जानकारी है ही नहीं। जो थोड़ा बहुत टीडीएस को जानते हैं , वे उसे एकदम मानव-शरीर का शत्रु समझे बैठे हैं।
यह आपका कर्त्तव्य और अधिकार दोनों है कि अपने जलकल-संस्थान से संवाद स्थापित करें। वहाँ अभियन्ता व अन्य अधिकारियों से मिलें। पूछें कि जो पानी आप पी रहे हैं , उसमें टीडीएस कितना है ? क्या 500 से अधिक है ? क्या आपको अपने घरों में आरओ लगवाने की ज़रूरत है ? कहीं आरओ लगवा कर आप पेयजल को दोयम दर्ज़े का नहीं बना रहे ? कहीं आपके आरओ-यन्त्र के कारण अस्सी फीसदी पानी नाली में तो नहीं ? अगर हाँ , तो यह कितनी बड़ी नासमझी और कितनी बड़ी बर्बादी है !
आरओ-यन्त्रों की बिक्री जनता में भय फैला कर चल रही है , ऐसा नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का मानना है। यह प्रचार करो कि हर जलस्रोत एकदम प्रदूषित है। हर जगह जीवाणु हैं , हर जगह टीडीएस एकदम उच्च। हर पानी के स्रोत में फ़्लोराइड है और आर्सेनिक भी। कौन जाकर अपने अपने इलाक़े के जेई से सच्चाई जानेगा ? सब केवल टीवी पर महानायकों-महानायिकाओं को देखेंगे और 'शुद्ध पानी' के लिए उनका कहा मान लेंगे। विज्ञापन की विज्ञान पर जीत होगी।
( इस लेख के साथ नीचे नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की रिपोर्ट पर आधारित लेख का लिंक दे रहा हूँ। कुछ अख़बारों में इस ख़बर का विवरण भी। इन्हें पढ़िए। अपने स्थानीय जलकल-अभियन्ता से मिलिए। पूछिए उनसे कि क्या आपका पेयजल इतना अशुद्ध है , जितना बाज़ार बताता है ? क्या पूरे देश में हर व्यक्ति को आरओ का पानी ही पीना चाहिए ? )
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