हरिवंश चतुर्वेदी डायरेक्टर, बिमटेक
अच्छी शिक्षा एक ऐसा जादू है, जो एक या दो पीढ़ियों में एक
गरीब परिवार की सूरत और सीरत बदल देती है। लेकिन राष्ट्रीय राजधानी के आस-पास घटी
हाल की कुछ घटनाओं ने अभिभावकों को सोचने पर मजबूर कर दिया है कि वे अपना पेट
काटकर भव्य इमारतों वाले महंगे स्कूलों में भले ही अपने बच्चों की भरती करा लें,
किंतु यह न समझें कि वहां बचपन सुरक्षित है। हर रोज जब तक बच्चे
स्कूल से सही-सलामत घर वापस नहीं आते, आजकल मां-बाप एक तनाव
सा महसूस करते हैं।
किसी भी सामाजिक त्रासदी के बाद लोगों का मायूस होना, चिंतित होना और आंदोलित होना स्वाभाविक है। किंतु कुछ समय बाद ऐसा लगने
लगता है कि व्यवस्था पुराने ढर्रे पर चल रही है। मासूम बच्चों और महिलाओं के साथ
अमानवीय व्यवहार करने वालों को यह खौफ नहीं होता कि वे ऐसा करने के बाद बच नहीं
पाएंगे। दिल दहलाने वाले हादसों को कुछ दिनों बाद भुला दिया जाता है और फिर वही
पुरानी स्थिति लौट आती है।
मोटी फीस वसूल करने वाले स्कूलों में मासूम बच्चों के साथ
दुराचार, उनकी निर्मम हत्या, ऊंचाई
से गिरकर उनका मरना, स्वीमिंग पूल में डूबना, बस से कुचलना या खेल के मैदान में गंभीर चोटें लगना ऐसी घटनाएं हैं,
जो हमारी स्कूली शिक्षा के मौजूदा चरित्र के बारे में कुछ संकेत
देती हैं। वैसे ये हादसे प्राइवेट स्कूलों तक ही सीमित नहीं हैं। सरकारी स्कूलों
में भी हादसे होते हैं। खासकर गांवों के प्राइमरी स्कूलों में मिड-डे मील योजना
में बच्चों को दिए जाने वाले खाने से अक्सर उनके गंभीर रूप से बीमार पड़ने के
समाचार आते रहते हैं। पर चूंकि इन सरकारी स्कूलों में अब गरीब परिवारों के बच्चे
पढ़ते हैं, तो मीडिया में खबर आने पर भी हड़कंप नहीं मचता।
उदारीकरण के 25 वर्षों में निजी स्कूलों का
तेजी से विस्तार हुआ है। हर शहर, कस्बे और ग्रामीण क्षेत्रों
में भव्य इमारतें, स्मार्ट शिक्षक व सड़कों पर दौड़ती स्कूली
बसें दिखाई देती हैं। इन स्कूलों में आए दिन होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में
जब बच्चे नाचते-गाते हैं, तो मोबाइल से फोटो लेते अभिभावकों
की खुशी साफ-साफ दिखती है। ऊपर से तो इन स्कूलों में सब कुछ ठीक-ठाक दिखाई देता है,
मगर गहराई में जाएं, तो आपको आसन्न खतरों के
संकेत मिलेंगे। स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे, खासतौर से
प्राइमरी कक्षाओं के बच्चे इतने मासूम होते हैं कि वे हर तरह के खतरों, जोखिम, दुराचार और दुर्घटना की आशंका को खुद नहीं
पहचान सकते। इन सभी आशंकाओं से उन्हें बचाने के लिए स्कूल में हर पल और हर जगह एक
शिक्षक, सुरक्षा गार्ड, आया या सहायक
की जरूरत होती है, जो तुरंत हस्तक्षेप करके मासूम बच्चों को
नुकसान होने से बचाए। क्या स्कूलों में काम करने वाले शिक्षक, आया या स्टाफ अमूमन ऐसा कर पाते हैं?
अक्सर देखा गया है कि निजी स्कूलों का प्रबंधन बच्चों की
हिफाजत पर उतना ध्यान नहीं दे पाता, जितना कि उसे देना चाहिए। इन
स्कूलों के अध्यापक, स्टाफ, आया और
सुरक्षा गार्ड या तो इन हादसों को रोकने और इनसे निपटने के लिए प्रशिक्षित नहीं
हैं या फिर उनके ऊपर काम का इतना बोझ रहता है कि वे समय रहते बच्चों की मदद नहीं
कर पाते। 1980 के दशक में दिल्ली की स्कूली बसों में जब
बच्चों के साथ होने वाली दुर्घटनाएं बढ़ीं, तो 1985 में सुप्रसिद्ध वकील एम सी मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर
कर सीबीएसई से हस्तक्षेप की मांग की थी। 16 दिसंबर,
1997 को सुप्रीम कोर्ट ने सीबीएसई को आदेश दिया था कि वह स्कूलों की
बसों में बच्चों की सुरक्षा के लिए समुचित निर्देश जारी करे। सीबीएसई ने वर्ष 2004,
2012, 2014 और 2017 में कई सर्कुलर जारी किए,
जो स्कूली बसों में सुरक्षा इंतजाम तक सीमित थे।
केंद्र सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अनुसार, देश में इस वक्त 8.47 लाख प्राइमरी, 4़.25 लाख अपर प्राइमरी और 2़ 44
लाख सेकेंडरी स्कूल हैं, जिनमें 25.95 करोड़ विद्यार्थी शिक्षा पाते हैं। इन स्कूलों में बच्चों की मानसिक व
शारीरिक सुरक्षा सुनिश्चित करना केंद्र व राज्य सरकारों, सीबीएसई,
राज्य शिक्षा बोर्डों, स्कूल प्रबंधन और
अभिभावकों की सामूहिक जिम्मेदारी है। निस्संदेह, यह एक
चुनौतीपूर्ण कार्य है, मगर इसे अंजाम देना असंभव नहीं।
स्कूलों को अभी तक जो निर्देश दिए गए हैं, उनका किस सीमा तक परिपालन किया जा रहा है, इसके कोई
आधिकारिक आंकड़़े उपलब्ध नहीं हैं। प्रबंध शास्त्र का एक प्रमुख सिद्धांत है कि अगर
किसी चीज का मापन नहीं हो सकता, तो उसका प्रबंध भी नहीं किया
जा सकता। स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय स्तर पर ऑडिट मैनुअल
लागू किया जाना चाहिए। हर स्कूल की सुरक्षा तैयारियों की द्विवार्षिक जांच होनी
चाहिए और स्कूलों को ‘ए’, ‘बी’,
‘सी’ गे्रड के आधार पर विभिन्न श्रेणियों में
विभाजित किया जाना चाहिए। ‘ए’ श्रेणी
मिलने पर पुरस्कार और ‘सी’ श्रेणी
मिलने पर दंड दिया जाना चाहिए। स्कूलों की सुरक्षा ऑडिट के आंकड़े उसकी वेबसाइट पर
डाले जाने चाहिए।
स्कूल की समग्र क्वालिटी तथा सुरक्षा तैयारियों को सुधारने
का एक अन्य तरीका ‘वाउचर प्रणाली’ या ‘डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर’ (डीबीटी) है। कई लैटिन
अमेरिकी देशों में इसका उपयोग किया जा चुका है। इसके अंतर्गत सरकार गरीब अभिभावकों
को स्कूल की फीस चुकाने के लिए कैश वाउचर देती है, जिसे वे
किसी भी स्कूल में देकर अपने बच्चों को पढ़ा सकते हैं। सरकार स्कूलों को ग्रांट न
देकर डीबीटी द्वारा भी उनकी क्वालिटी तथा सुरक्षा तैयारी को नियंत्रित कर सकती है।
इस प्रणाली से खराब स्कूलों को बंद होना पड़ता है।
स्कूलों में हो रहे हादसों से देश के जनमानस में बेचैनी व
असुरक्षा की भावना फैल रही है। ऐसे में, प्रशासनिक, प्रबंधकीय और वित्तीय उपायों के साथ-साथ वैधानिक उपायों की भी जरूरत है। 2009-10
में शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई ऐक्ट) लागू किया गया था और सभी
निजी स्कूलों की 25 प्रतिशत सीटें निर्धन-वर्ग के
विद्यार्थियों के लिए आरक्षित की गई थीं। इसी कानून में एक ऐसा प्रावधान जोड़ा जा
सकता है, जो हर स्कूली बच्चे को स्कूल में शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक सुरक्षा की गारंटी प्रदान करे।
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