चंद्रभूषण
जो लोग योग और ध्यान को ईश्वर प्राप्ति का माध्यम नहीं मानते, उनमें से भी कुछेक अक्सर यह दावा करते देखे जाते हैं कि इन उपायों से मनुष्य चेतना की उच्चतर अवस्था में पहुंच सकता है। यह सचमुच चिंताजनक बात है कि हिंदू धर्म में आध्यात्मिक लोगों की इतनी बड़ी बहुतायत के बावजूद अभी तक किसी भी योगी, ध्यानी या सन्यासी ने स्वयं को खुली वैज्ञानिक खोजबीन के लिए प्रस्तुत नहीं किया। इसके विपरीत ध्यान की महायान बौद्ध पद्धतियों का अनुसरण करने वाले तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा ने एक अर्से से न सिर्फ स्वयं को बल्कि अपने मत के कई अन्य आध्यात्मिक व्यक्तियों को भी वैज्ञानिक जांच-पड़ताल के हवाले छोड़ रखा है।
उनका कहना है कि हम अपनी स्वाभाविक ध्यान-आधारित जीवन चर्या का अनुसरण करते रहेंगे, वैज्ञानिक अपनी मर्जी से जिस भी तरह चाहें, जीवन-पर्यंत और उसके बाद भी हमारा अध्ययन करें और मानवता के हित में इसका जो भी उपयोग हो सकता है, उसके लिए मार्ग प्रशस्त करें। अभी विकसित देशों में विभिन्न ध्यान पद्धतियों की बाढ़ सी आई हुई है। हाल तक हम यूरोप-अमेरिका में हॉट-केक की तरह बिक रहे योगासनों के आचार्यों की चर्चा सुनते रहे हैं। एक स्कूल दार्शनिक प्रवचन और योग का कोई मिला-जुला नुस्खा बेचने वालों का भी है, जिसमें अब भारतीयों के साथ-साथ कुछ पश्चिमी विशेषज्ञ भी कूद पड़े हैं। लेकिन ध्यान का आकर्षण अलग है।
बड़े उद्योगपतियों और अमीर लोगों से लेकर सॉफ्टवेयर टेक्नॉलजी के सिद्धहस्त आविष्कारकों तक में अभी दिमागी शोर की कुछ ज्यादा ही शिकायत देखी जा रही है। ध्यान को शुरू से ही इस शोर से मुक्त होकर चित्त को शांत करने के अमोघ अस्त्र की तरह देखा जाता रहा है। ऐसे में योगासन और अध्यात्म से अलग ध्यान का अपना ही बाजार विकसित हो रहा है। हाल में आई दो किताबें ‘द साइंस ऑफ मेडिटेशन’ (डेविड गोलमान और रिचर्ड डेविडसन) और ‘माइंडलेसनेस’ (टॉमस जॉइनर) दो बिल्कुल विपरीत नजरियों से ध्यान के नफे-नुकसान की पड़ताल करती हैं। लेखकों का परिचय यह है कि डेविड गोलमान और रिचर्ड डेविडसन न्यूरोसाइंटिस्ट (स्नायु-विज्ञानी) हैं और न्यूयॉर्क टाइम्स के नियमित स्तंभ लेखक भी, जबकि टॉमस जॉइनर एक सायकायट्रिस्ट (मनोचिकित्सक) हैं।
साइंस ऑफ मेडिटेशन में गोलमान और डेविडसन ने तिब्बती लामाओं के साथ किए गए अपने प्रयोगों के ब्यौरे दर्ज किए हैं। उनका कहना है कि ध्यान हर समस्या का रामबाण इलाज तो नहीं है, लेकिन इसके जरिये मानसिक बेचैनी कम की जा सकती है, दर्द में थोड़ी राहत हासिल हो सकती है, और अलगाव की असाध्य समस्या से जूझ रहे लोगों में दुनिया की हर जड़-चेतन वस्तु के प्रति और अपने सगे-संबंधियों के प्रति लगाव पैदा किया जा सकता है। सबसे बड़ी बात यह कि ध्यान लोगों को अतिशय आत्मकेंद्रित होने से बचा सकता है, जो अभी के सेल्फी युग में गंभीर मानसिक बीमारी का रूप लेता जा रहा है। मसलन, क्या आपने खुद से शादी करने वालों का जिक्र सुना है? इस किताब का एक अध्याय केवल ध्यान की विफलताओं के प्रति समर्पित है।
इसके विपरीत जॉइनर की पूरी किताब ही ध्यान की आलोचना और इसकी मूलभूत प्रस्थापना में मौजूद झोल पर केंद्रित है। जॉइनर बताते हैं कि ज्यादातर ध्यान पद्धतियों में पहले दिन से ही आत्मा की केंद्रीय भूमिका पर जोर दिया जाता है, जो असल में लोगों को दुनिया से भागने के लिए प्रेरित करने के अलावा कुछ नहीं है। लोग इसे अलगाव से मुक्त होने के लिए अपनाते हैं लेकिन यह उन्हें और ज्यादा अलगाव की ओर ले जाता है। जो पद्धति खुद आत्म-केंद्रित होने, स्वयं में दुनिया देखने की वकालत करती हो, वह खुद को दुनिया का केंद्र समझने वाली आधुनिकता की मूलभूत बीमारी का इलाज भला कैसे कर सकती है? सबसे बड़ी बात यह कि जॉइनर अपनी बात किसी दार्शनिक विमर्श के रूप में नहीं, बाकायदा केस स्टडीज के जरिये करते हैं।
असल चीज तो ‘मैं’ की सही पोजिशनिंग ही है, जो अभी के दौर में हर व्यक्ति में ही थोड़ी-बहुत हिली हुई दिखती है। सृष्टि के एक हिस्से के रूप में खुद को देखना एक पुरानी चीज हुई। इसके बल पर न तो साम्राज्य खड़े किए जा सकते, न उद्योगपति बना जा सकता, न ही कलाकार और वैज्ञानिक होने की तरफ बढ़ा जा सकता है। कलाकारिता की तो बात ही छोड़ दें, उसकी तो बुनियाद ही ‘मैं’ की महत्ता है। ध्यान अगर अहं की स्वस्थ ढलाई का जरिया बन सके तो बहुत अच्छा। अभी बढ़िया बात यह हुई है कि उसने खुद को खोजबीन के लिए प्रस्तुत तो किया है।
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