Thursday, 18 December 2014

कार्बन उत्सर्जन रोकने को लेकर सहमति

शशांक द्विवेदी (Shashank dwivedi )
लीमा शिखर सम्मेलन 
जलवायु परिवर्तन और कार्बन उत्सर्जन को लेकर पेरू की राजधानी लीमा में 1 दिसम्बर से 14  दिसंबर 2014 तक 194   देशों के प्रतिनिधि पर्यावरण के बदलाव पर चर्चा करने के लिए जमा हुए थे  । 12 दिसंबर तक निर्धारित ये सम्मेलन  समय से दो दिन अधिक चला । भारत समेत 194  देशों ने वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कटौती के राष्ट्रीय संकल्पों के लिए आम सहमति वाला प्रारूप स्वीकार कर लिया, जिसमें भारत की चिंताओं का समाधान किया गया है. इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन के मुकाबले के लिए वर्ष 2015 में पेरिस में होने वाले एक नए महत्वाकांक्षी और बाध्यकारी करार पर हस्ताक्षर का रास्ता साफ हो गया।
इस शिखर सम्मेलन का आयोजन युनाइडेट नेशन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेंट चेंज (यूएनएफसीसीसी) द्वारा किया गया था जिसमें दुनियाँ भर के राजनीतिज्ञों, राजनयिक, जलवायु कार्यकर्ता और पत्रकारों ने भाग लिया। इस शिखर सम्मेलन का उद्देश्य नई जलवायु परिवर्तन संधि के लिए मसौदा तैयार करना था , ताकि 2015 में पेरिस में होने वाली वार्ता में सभी देश संधि पर हस्ताक्षर कर सकें। और हर देश को कानूनी रूप से बाध्य एक संधि के लिए राजी करना था, ताकि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन घट सके और 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल को नए मसौदे से बदला जा सके।
इस वार्ता के अध्यक्ष और पेरू के पर्यावरण मंत्री मैनुएल पुल्गर विडाल ने लगभग दो हफ्ते तक चली बैठक के बाद अपनी घोषणा में कहा- दस्तावेज को मंजूरी मिल गई है। मुझे लगता है कि यह अच्छा है और यह हमें आगे ले जाएगा। मसौदे के अनुसार विभिन्न देशों की सरकारों को वैश्विक समझौते के लिए आधार तैयार करने के लिए ग्रीन हाउस गैसों में कटौती की अपनी राष्ट्रीय योजना 31 मार्च 2015 को आधार तिथि मानकर पेश करनी होगी। हालांकि, ऐसे अधिकांश कठोर निर्णय वर्ष 2015 में पेरिस में होने वाली शिखर बैठक के लिए टाल दिए गए हैं। उस शिखर बैठक में होने वाले करार को वर्ष 2020 से प्रभावी होना है।
इस मसौदे पर भारतीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि भारत की सभी चिंताओं का ध्यान रखा गया है। वर्ष 2015 में होने वाले समझौते के लिए होने वाली बातचीत पर वार्ताकारों द्वारा मोटे तौर पर दी गई सहमति के बाद उन्होंने कहा कि हमने लक्ष्य हासिल कर लिए और जो हम चाहते थे हमें मिल गया।
समीक्षा का केवल उल्लेख किया
इस मसौदे में केवल इस बात का जिक्र है कि सभी देशों द्वारा लिए गए संकल्पों के जलवायु परिवर्तन पर पड़ने वाले संयुक्त प्रभावों की दिसंबर 2015 में होने वाली
पेरिस शिखर बैठक के एक माह पहले समीक्षा की जाएगी। वर्तमान मसौदे में भारत और अन्य कई विकासशील देशों के लगातार जोर देने पर जलवायु परिवर्तन के लिए पैसा देने की क्षमता के आधार पर देशों के श्रेणीकरण के सिद्धांतों के बारे में अलग से एक पैराग्राफ जोड़ा गया। पूर्व में दिए गए मसौदे को लेकर भारत और चीन की चिंता यह थी कि इससे अमीर देशों की तुलना में उनके जैसी उभरती अर्थ व्यवस्थाओं पर ज्यादा बोझ आएगा।
पहले केवल अमीर देशों की जिम्मेदारी थी
इस नए समझौते की मूल बात यह है कि इसमें जलवायु परिवर्तन से निपटने की जिम्मेदारी सभी देशों पर डाल दी गई है। इसके पहले 1997 में हुई क्योटो संधि में उत्सर्जन में कटौती की जिम्मेदारी केवल अमीर देशों पर डाली गई थी। संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण प्रमुख क्रिस्टियाना फिगुरेज ने कहा कि लीमा में अमीर और गरीब दोनों तरह के देशों की जिम्मेदारी तय करने का नया तरीका खोजा गया है। यह बड़ी सफलता है।
शिखर सम्मेलन में भारत का पक्ष 
इस सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर धनी देशों पर दवाब बढ़ाते हुए भारत ने कहा है कि दुनियाभर में गरीबों के विकास की खातिर विकसित राष्ट्र अपने कार्बन उत्सर्जन में कटौती करें। भारत ने जलवायु परिवर्तन के खतरे का सामना करने को विकासशील देशों की मदद के लिए विकसित राष्ट्रों से प्रौद्योगिकी हस्तांतरण व वित्तीय मदद देने की मांग भी की । पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने साफ कहा कि कार्बन उत्सर्जन में कटौती के संबंध में भारत ने समय सीमा स्वीकार नहीं किया। हालांकि भारत ने खुद ही कई ऐसे कदम उठाए हैं जिससे जलवायु परिवर्तन को थामा जा सकेगा। जावड़ेकर ने कहा कि विकसित देशों का कार्बन उत्सर्जन भारत के मुकाबले कई गुना ज्यादा है। ऐसे में इन देशों को अपने उत्सर्जन में कटौती करनी चाहिए। वैसे भी भारत सहित विकासशील देशों में गरीबों की संख्या अधिक है, उन्हें विकास की जरूरत है। इसलिए विकासशील देश अपने उत्सर्जन में कटौती नहीं कर सकते।
अमेरिका और चीन की तरह भारत अपना कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए कोई समयसीमा भी तय नहीं करेगा। फिलहाल भारत का प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन चीन की अपेक्षा काफी कम है।इसके साथ ही कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए भारत सरकार ने सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता 20 हजार मेगावाट से बढ़ाकर एक लाख मेगावाट करने का लक्ष्य रखा है। इसके साथ ही नमामि गंगे और हिमालय मिशन जैसे कार्यक्रम शुरू किए गए हैं। पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा कि भारत जलवायु परिवर्तन के खिलाफ वैश्विक लड़ाई के लिए प्रतिबद्ध और पूरी तरह से तैयार है और  हम जलवायु परिवर्तन संबंधी चिंताओं के सार्थक समाधान के साथ जनता के लिए विकास केंद्रित नीतियों को लागू कर रहे हैं।
दो धड़ों में बंटी दुनियाँ 
अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अक्सर आमने-सामने नजर आने वाले विकसित और विकासशील देश एक बार फिर इसी मुद्रा में नजर आये । लीमा में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में शिरकत कर रहे देश मोटे तौर पर दो धड़ों में बंट गए । एक तरफ विकसित देशों के धड़े में यूरोपीय संघ के देश और जापान खुलकर अपना पक्ष रख रहे थे वहीं दूसरी तरफ ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन ने भी बेसिक के नाम से यहां अपना अलग मंच बना लिया । बेसिक देशों ने जलवायु परिवर्तन समझौते के मसौदे पर चर्चा के लिए इस मंच के तहत नियमित बैठकें करने का फैसला लिया । अगले साल पेरिस में हस्ताक्षर किए जाने वाले समझौते का अंतिम मसौदा तय करने के लिए अब ये देश साथ मिलकर काम करेंगे।
भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कर रहे पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बेसिक देशों के प्रतिनिधियों के साथ कई द्विपक्षीय बैठकें करके रणनीति तय की । बेसिक देश कई मसलों को लेकर एकमत हैं। सम्मेलन में सभी देशों की घरेलू जलवायु परिवर्तन संबंधी कार्ययोजनाओं यानी इच्छित राष्ट्रस्तरीय तयशुदा योगदान (इंटेंडेड नेशनली डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशन-आईएनडीसी) पर विचार-विमर्श हुआ। बेसिक देश आईएनडीसी को संरचनात्मक स्तर पर और ज्यादा अनुकूलन आधारित बनाने पर सहमत हुए हैं।
अनुकूलन की व्यवस्था के तहत जलवायु परिवर्तन के कारण सामने आने वाली स्थितियों का लाभ उठाते हुए नई प्रणालियों के विकास पर जोर दिया जाएगा। ताकि इन प्रणालियों के विकास से होने वाले लाभ के जरिये जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान को बेअसर किया जा सके। दूसरी ओर यूरोपीय संघ और जापान जैसे विकसित देश जलवायु परिवर्तन समझौते को केवल न्यूनीकरण की व्यवस्था पर केंद्रित रखने पर जोर दे रहे हैं।
लीमा शिखर सम्मेलन में विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेद और विवाद एक बार फिर खुल कर सामने आ गयें  । जिसकी वजह से सम्मेलन में कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं हुई। सारे वार्ताकार अंतत इस बात पर सहमत हुए कि सभी देशों को कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए काम करना चाहिए। कार्बन  उत्सर्जन को ही लू, बाढ़, सूखा और समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी का कारण माना जा रहा है ।
क्योटो प्रोटोकाल के अंतर्गत केवल सर्वाधिक विकसित देशों को ही अपना उत्सर्जन कम करना था और यह एक मुख्य कारण था कि अमेरिका ने इसे स्वीकार करने से इन्कार कर दिया था।अमेरिका कहना था कि चीन और भारत जैसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था वाले देश हर हाल में इसका हिस्सा बनें। विकासशील देशों का यह तर्क सही  है कि जब वैश्विक भूमंडलीय तापवृद्धि (ग्लोबल वार्मिग) में ऐतिहासिक रूप से उनका योगदान पश्चिम के औद्योगिक-विकसित देशों की तुलना में न के बराबर है, तो उन पर इसे कम करने की समान जवाबदेही कैसे डाली जा सकती है? जबकि  लीमा में  क्योटो प्रोटोकोल से उलट धनी देश सबकुछ सभी पर लागू करना चाहते थे , खासकर उभरते हुए विकासशील देशों पर । 
कार्बन उत्सर्जन न रुका तो नहीं बचेगी दुनिया 
पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र समर्थित इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने चेतावनी देते हुए कहा कि कार्बन उत्सर्जन न रुका तो नहीं बचेगी दुनिया । दुनिया को खतरनाक जलवायु परिवर्तनों से बचाना है तो जीवाश्म ईंधन के अंधाधुंध इस्तेमाल को जल्द ही रोकना होगा । आईपीसीसी ने कहा है कि साल 2050 तक दुनिया की ज्यादातर बिजली का उत्पादन लो-कार्बन स्रोतों से करना जरूरी है और ऐसा किया जा सकता है । इसके बाद बगैर कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (सीसीएस) के जीवाश्म ईंधन का 2100 तक पूरी तरह इस्तेमाल बंद कर देना चाहिए । संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की-मून ने कहा, विज्ञान ने अपनी बात रख दी है । इसमें कोई संदेह नहीं है. अब नेताओं को कार्रवाई करनी चाहिए । हमारे पास बहुत समय नहीं है । मून ने कहा, जैसा कि आप अपने बच्चे को बुखार होने पर करते हैं, सबसे पहले हमें तापमान घटाने की जरूरत है. इसके लिए तुरंत और बड़े पैमाने पर कार्रवाई किए जाने की जरूरत है ।
आईपीसीसी रिपोर्ट की खास बातें
ग्लोबल वॉर्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने को जो फैसला 2009 में किया गया था उस पर अमल के लिए उत्सर्जन तुरंत कम करना होगा ।
बिजली उत्पादन को तेजी से कोयले के बजाय नए और अन्य कम कार्बन वाले स्रोतों में बदलना होगा, जिसमें परमाणु ऊर्जा भी शामिल है ।
ऊर्जा क्षेत्र में नवीकरणीय स्रोतों का हिस्सा वर्तमान के 30ः से बढ़ाकर 2050 तक 80ः तक हो जाना चाहिए ।
दीर्घकाल में बगैर सीसीएस के जीवाश्म ईंधन से ऊर्जा उत्पादन को 2100 तक पूरी तरह बंद करना होगा ।
सीसीएस यानी कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज तकनीक से उत्सर्जन सीमित किया जा सकता है पर इसका विकास धीमा है ।
शिखर सम्मेलनों के अधूरे लक्ष्य
पिछले 13 महीनों के दौरान प्रकाशित आईपीसीसी की तीन रिपोर्टों में जलवायु परिवर्तन की वजहें, प्रभाव और संभावित हल का खाका रखा गया है । इस संकलन में इन तीनों को एक साथ पेश किया गया है कि ताकि 2015 के अंत तक जलवायु परिवर्तन पर पर एक नई वैश्विक संधि करने की कोशिशों में लगे राजनेताओं को जानकारी दी जा सके । हर वर्ष विश्व में पर्यावरण सम्मेलन होते है पर आज तक इनका कोई ठोस निष्कर्ष नही निकला है । जबकि दिलचस्प है कि दुनिया की 15 फीसदी आबादी वाले देश दुनिया के 40 फीसदी प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग कर रहे है। 
1992 में रियो डि जेनेरियो में अर्थ समिट यानी पृथ्वी सम्मेलन  से लेकर लीमा तक के शिखर सम्मेलनों के लक्ष्य अभी भी अधूरे हैं। आज आपसी विवादों के समाधान की जरूरत है। कटु सच्चाई यह है कि जब तक विश्व अपने गहरे मतभेदों को नहीं सुलझा लेता तब तक कोई भी वैश्विक कार्रवाई कमजोर और बेमानी सिद्ध होगी। आज जरुरत है ठोस समाधान की ,इसके लिए एक निश्चित समय सीमा में लक्ष्य तय होने चाहिए । पिछले 2 दशक में पर्यावरण संरक्षण को लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 20  जलवायु सम्मेलन हो चुके है लेकिन अब तक कोई ठोस नतीजा नहीं निकला । लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए की पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन पर साल 2015 में पेरिस में होने वाली शिखर बैठक में कुछ ठोस नतीजे सामने आये जिससे पूरी दुनियाँ को राहत मिल सके ।

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