Thursday 13 November 2014

बढ़ता प्रदूषण और घटती पैदावार


शशांक द्विवेदी 
हाल में ही पर्यावरण और वायु प्रदूषण का भारतीय कृषि पर प्रभाव शीर्षक से प्रोसिडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में प्रकाशित एक शोध पत्र के नतीजों ने  सरकार ,कृषि विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों की चिंता बढ़ा दी है । शोध के अनुसार भारत के अनाज उत्पादन में वायु प्रदूषण का सीधा और नकारात्मक असर देखने को मिल रहा है। देश  में धुएं में बढ़ोतरी की वजह से अनाज के लक्षित उत्पादन में कमी देखी जा रही है। करीब 30 सालों के आंकड़े का विश्लेषण करते हुए वैज्ञानिकों ने एक ऐसा सांख्यिकीय मॉडल विकसित किया जिससे यह अंदाजा मिलता है कि घनी आबादी वाले राज्यों में वर्ष 2010 के मुकाबले वायु प्रदूषण की वजह से गेहूं की पैदावार 50 फीसदी से कम रही। खाद्य उत्पादन में करीब 90 फीसदी की कमी धुएं की वजह से देखी गई जो कोयला और दूसरे प्रदूषक  तत्वों की वजह से हुआ।भूमंडलीय तापमान वृद्धि और वर्षा के स्तर की भी 10 फीसदी बदलाव में अहम भूमिका है। कैलिफॉर्निया विश्वविद्यालय में वैज्ञानिक और शोध की लेखिका जेनिफर बर्नी के अनुसार ये आंकड़े चैंकाने वाले हैं हालांकि इसमें बदलाव संभव है। वह कहती हैं, हमें उम्मीद है कि हमारे शोध से वायु प्रदूषण को कम करने के संभावित फायदों के लिए कोशिश की जाएगी। असल में जब भी सरकार वायु प्रदूषण या इसकी लागत पर कोई चर्चा करती है और इसे रोकने के लिए नए कानून बनाने की बात करती है तब कृषि क्षेत्र पर विचार नहीं किया जाता है। 
पिछले दिनों  संयुक्त राष्ट्र में जलवायु परिवर्तन के लिए बने अंतर सरकारी पैनल(आइपीसीसी)  रिपोर्ट में भी इसी तरह की चेतावनी दी गई थी । ‘जलवायु परिवर्तन 2014- प्रभाव, अनुकूलन और जोखिम’ शीर्षक से जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पहले से ही सभी महाद्वीपों और महासागरों में विस्तृत रूप ले चुका है। रिपोर्ट के अनुसार जलवायु गड़बड़ी के कारण एशिया को बाढ़, गर्मी के कारण मृत्यु, सूखा तथा पानी से संबंधित खाद्य की कमी का सामना करना पड़ सकता है। कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले भारत जैसे देश जो केवल मानसून पर ही निर्भर हैं, के लिए यह काफी खतरनाक हो सकता है। जलवायु परिवर्तन की वजह से दक्षिण एशिया में गेहूं की पैदावार पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। वैश्विक खाद्य उत्पादन धीरे-धीरे घट रहा है। एशिया में तटीय और शहरी इलाकों में बाढ़ की वृद्धि से बुनियादी ढांचे, आजीविका और बस्तियों को काफी नुकसान हो सकता है। ऐसे में मुंबई, कोलकाता, ढाका जैसे शहरों पर खतरे की संभावना बढ़ सकती है।

इस रिपोर्ट के आने के बाद अब यह स्पष्ट है कि कोयला और उच्च कार्बन उत्सर्जन से भारत के विकास और अर्थव्यवस्था पर धीरे-धीरे खराब प्रभाव पड़ेगा और देश में जीवन स्तर सुधारने में प्राप्त उपलब्धियां नकार दी जाएंगी।
हाल ही में महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में करीब 12 लाख हेक्टेयर में हुई ओला वृष्टि से गेहूं, कॉटन, ज्वार, प्याज जैसी फसल खराब हो गई थी। ये घटनाएं भी आइपीसीसी की अनियमित वर्षा पैटर्न को लेकर की गई भविष्यवाणी की तरफ ही इशारा कर रही हैं। जलवायु परिवर्तन आदमी की सुरक्षा के लिए खतरा है क्योंकि इससे खराब हुए भोजन-पानी का खतरा बढ़ जाता है जिससे अप्रत्यक्ष रूप से विस्थापन और हिंसक संघर्ष का जोखिम बढ़ता है। आइपीसीसी ने इससे पहले भी समग्र वर्षा में कमी तथा चरम मौसम की घटनाओं में वृद्धि की भविष्यवाणी की थी। इस रिपोर्ट में भी गेहूं के ऊपर खराब प्रभाव पड़ने की भविष्यवाणी की गई है।
इसलिए भारत सरकार को इस समस्या से उबरने के लिए सकारात्मक कदम उठाने होंगे। तेल रिसाव और कोयला आधारित पावर प्लांट, सामूहिक विनाश के हथियार हैं। इनसे खतरनाक कार्बन उत्सर्जन का खतरा होता है। हमारी शांति और सुरक्षा के लिए हमें इन्हें हटाकर अक्षय ऊर्जा की तरफ कदम बढ़ाना, अब हमारी जरूरत और मजबूरी दोनों बन गया है। सरकार को तुरंत ही इस पर कार्रवाई करते हुए स्वच्छ ऊर्जा संक्रमण से जुड़ी योजनाओं को लाना चाहिए। पिछले कुछ सालों से पर्यवारण संबंधी इस तरह की रिपोर्ट और चेतावनी आने के बावजूद पर्यावरण का मुद्दा हमारे देश के राजनीतिक दलों के एजेंडे में शामिल ही नहीं है। केंद्र और राज्य सरकारों की प्राथमिकता सूची में भी पर्यावरण नहीं है । 
देश में हर जगह, हर तरफ, हर सरकार ,हर पार्टी विकास की बातें करती है लेकिन ऐसे विकास का क्या फायदा जो लगातार विनाश को आमंत्रित करता है। ऐसे विकास को क्या कहें जिसकी वजह से संपूर्ण मानवता का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया हो। पिछले दिनों पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने जलवायु परिवर्तन पर इंडियन नेटवर्क फॉर क्लाइमेट चेंज असेसमेंट की रिपोर्ट जारी करते हुए चेताया है कि यदि पृथ्वी के औसत तापमान का बढ़ना इसी प्रकार जारी रहा तो अगामी वर्षों में भारत को इसके दुष्परिणाम झेलने होंगे।इसका सीधा असर देश की कृषि व्यवस्था पर भी पड़ेगा ।
जिस तरह मौसम परिवर्तन दुनिया में भोजन पैदावार और आर्थिक समृद्धि को प्रभावित कर रहा है, आने वाले समय में जिंदा रहने के लिए जरूरी चीजें इतनी महंगी हो जाएंगी कि उससे देशों के बीच युद्ध जैसे हालात पैदा हो जाएंगे । यह खतरा उन देशों में ज्यादा होगा जहां कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है।

पर्यावरण का सवाल जब तक तापमान में बढ़ोतरी से मानवता के भविष्य पर आने वाले खतरों तक सीमित रहा, तब तक विकासशील देशों का इसकी ओर उतना ध्यान नहीं गया। परन्तु अब जलवायु चक्र का खतरा खाद्यान्न उत्पादन को प्रभावित कर रहा है, किसान यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि कब बुवाई करें और कब फसल काटें । तापमान में बढ़ोतरी जारी रही तो खाद्य उत्पादन 40 प्रतिशत तक घट जाएगा, इससे पूरे विश्व में खाद्यान्नों की भारी कमी हो जाएगी। ऐसी स्थिति विश्व युद्ध से कम खतरनाक नहीं होगी। 
दुनिया पूंजीवाद के पीछे भाग रही है। उसे तथाकथित विकास के अलावा कुछ और दिख ही नहीं रहा है। वास्तव में जिसे विकास समझ जा रहा है वह विकास है ही नहीं। क्या सिर्फ औद्योगिक उत्पादन में बढ़ोतरी कर देने को विकास माना जा सकता है? जबकि एक बड़ी आबादी को अपनी जिंदगी बीमारी और पलायन में गुजारनी पड़े। वायु प्रदुषण और कृषि के इस शोध पत्र के नतीजों को सरकार और समाज के स्तर पर गंभीरता से लेना होगा नहीं तो इसके नतीजे आगे चलकर और भी ज्यादा खतरनाक होंगे ।  अभी भी समय है कि हम सब चेत जाएँ  और पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान दें नहीं तो विनाश निश्चित है ।
वास्तव में पर्यावरण संरक्षण ऐसा ही है जैसे अपने जीवन की रक्षा करने का संकल्प। सरकार और समाज के स्तर पर लोगों को पर्यावरण के मुद्दे पर गंभीर होना होगा नहीं तो प्रकृति का कहर झेलने के लिए हमें तैयार रहना होगा।और ये कहर बाढ़ ,सूखा ,खाद्यान में कमी किसी भी रूप में हो सकता है । कृषि और वायु प्रदुषण के इस  शोध के आकलन में यह भी बताया गया है अगर प्रदूषण कम होगा  तो कृषि  उत्पादन भी बेहतर हो सकता है। वैज्ञानिकों ने फसल की पैदावार, उत्सर्जन, वर्षा के ऐतिहासिक आंकड़ों का परीक्षण करने से यह निष्कर्ष निकला है। इस ऐतिहासिक शोध में सामान्य तौर पर इसी बात की पुष्टि की गई है कि खाद्य उत्पादन पर वायु प्रदूषण का गहरा असर पड़ता है। 



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