शशांक द्विवेदी
हाल में ही केंद्र सरकार ने साइबर सुरक्षा को
गंभीरता से लेते हुए राष्ट्रीय साइबर प्राधिकरण बनाने का फैसला किया है। देश में
साइबर सुरक्षा के प्रति लापरवाही देखते हुए देर से ही सही लेकिन सरकार ने अब इस
मुद्दे पर संजीदगी दिखाई है । क्योंकि मौजूदा समय में साइबर युद्ध एक सच्चाई बन
गया है। इसके प्रति लापरवाह नहीं रहा जा सकता है। भारत को भी अपने साइबर तंत्र को
बेहद मजबूत बनाना होगा। खतरनाक कंप्यूटर वायरस के जरिये सामरिक एवं आर्थिक दृष्टि
से महत्वपूर्ण प्रतिष्ठानों की वेबसाइटों पर हमला करना और उनके आंकड़े चुरा लेना आम
बात हो गई है।
प्रस्तावित साइबर प्राधिकरण का मकसद सरकारी
वेबसाइटों को साइबर हमलों से बचाना है। फिलहाल प्राधिकरण का प्रस्ताव शुरुआती चरण
में हैं। लेकिन प्राधिकरण के गठन को लेकर सैद्धांतिक मंजूरी मिल गई है। प्राधिकरण
साइबर गतिविधियों से जुड़े मामलों के लिए दिशा-निर्देश तय करने के साथ प्रभावी
नीतियां भी बनाएगा। इसका मकसद देश में
अनुकूल साइबर सिक्योरिटी सिस्टम तैयार करना है जो वैश्विक माहौल के अनुरूप हो ताकि
साइबर हमलों को रोका जा सके। ताकि सरकारी डाटा विदेशी एजेंसियों की पहुंच से
सुरक्षित रहे।
देश के सरकारी रक्षा, विज्ञान और शोध संस्थान और राजनयिक
दूतावास पर साइबर जासूसी का आतंक मंडरा रहा है। दुनिया के सबसे बड़े साइबर जासूसी
रैकेट के खतरे से जूझ रहे इन संस्थानों को बेहद संवेदनशील जानकारियों और आंकड़ों की
चोरी होने का डर है। साइबर वर्ल्ड में जासूसी करने के लिए अमेरिका ने पूरे विश्व
में लगभग 150 जगहों पर 700 सर्वर्स लगा रखा है। ब्रिटिश अखबार
गार्जियन के मुताबिक इन सर्वर्स में से एक भारत में भी कहीं लगा रखा गया हैै।
बताया जा रहा है कि दिल्ली के नजदीक किसी स्थान पर इसके लगे होने की आशंका जताई गई
हैै। गार्जियन ने ये दावा किया है कि सीआईए के पूर्व कर्मचारी एडवर्ड स्नोडेने
द्वारा दिए गए दस्तावेजों के आधार पर ये बात कही गई है। दरअसल स्नोडेन ने ही
अमेरिकी और ब्रिटिश जासूसी कार्यक्रम का सनसनीखेज ब्योरा प्रेस को लीक किया था।
अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी द्वारा
संचालित एक्सकीस्कोर जासूसी कार्यक्रम के 2008 के
एक प्रशिक्षण सामग्री में वो नक्शा भी शामिल था, जिसमें विश्वभर में लगे सर्वर्स की जानकारी थी। उसी नक्शे के मुताबिक
इनमें से एक अमेरिकी जासूसी सर्वर भारत की राजधानी नई दिल्ली के आसपास के इलाके
में लगे होने की संभावना है। एनएसए अपने एक्सकीस्कोर कंप्यूटर प्रोग्राम के जरिए
ही दुनिया भर में इंटरनेट पर जारी किसी भई किस्म की गतिविधियों पर नजर रखती है।
इसी प्रोग्राम के जरिए ही करोड़ों इंटरनेट यूजर्स के ईमेल, ऑनलाइन चैटिंग और ब्राउजिंग की जासूसी
होती हैै। इसी वजह से एनएसए को इंटरनेट यूजर्स के पूरे इतिहास, भूगोल के बारे में पता रहता है।
रिपोर्ट के मुताबिक जैसे ही कोई इंटरनेट पर बैठता है और काम शुरू करता है वैसे ही
वो एक्सकीस्कोर कार्यक्रम की जद में आ जाता है ।
अपने देश की सुरक्षा के लिए खुफिया एजेंसीयां
अक्सर दूसरे देशों की जासूसी करती हैं । लेकिन अब न सिर्फ जासूसी का तरीका बदल रहा
है, बल्कि उसका दायरा भी बढ़ गया है । साइबर स्पाइंग से सिर्फ सुरक्षा नहीं, बल्कि व्यापार संबंधी गोपनीय
जानकारियां भी चुराई जा रही है । जब ऐसे दावे सामने आए कि अमरीका अपने यूरोपीय
दोस्तों और भारत की भी जासूसी कर रहा है तो चिंताएँ और बढ़ गईं है । देश में साइबर
सुरक्षा में मैनपावर की बहुत कमी है । साइबर सुरक्षा के आकंडो के अनुसार चीन में साइबर सुरक्षा के
काम में सवा लाख विशेषज्ञ तैनात हैं। अमेरिका में यह संख्या 91 हजार से ऊपर है। रूस में भी लगभग साढ़े
सात हजार माहिर लोग इस काम में लगे हुए हैं। जबकि अपने यहां यह संख्या सिर्फ 5560 है ।फिलहाल स्तिथि बहुत ज्यादा
चिंताजनक है जिस पर तत्काल एक्शन की जरुरत है ।
अमेरिका सहित दुनियाँ के विकसित देशों द्वारा
की जा रही सबसे बड़ी साइबर जासूसी एक अहम मुद्दा है । यह सीधे सीधे राष्ट्रीय
सुरक्षा से जुड़ा मामला है इसलिए इस पर अब सरकार को गंभीर होकर काम करना चाहिए ।
भारत सहित कई एशियाई देशों का सारा कामकाज गूगल, याहू जैसी वेबसाइट्स के जरिए होता है इसलिए यहां की सरकारें संकट में
घिर गईं हैं। भारत चाहता है कि याहू, गूगल
जैसी अमेरिकी कंपनियां भारत के साथ अहम जानकारियों को साझा करे। भारत में फोन और इंटरनेट की केंद्रीय मॉनिटरिंग
की प्रणाली हाल में ही शुरू हुई है। सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति से
मंजूरी के जरिए खुफिया एजेंसियों को फोन टैपिंग, ई मेल स्नूपिंग, वेब
सर्च और सोशल नेटवर्क पर सीधी नजर रखने के अधिकार मिले हैं।लेकिन गूगल, फेसबुक, माइक्रोसॉफ्ट आदि को नई मॉनिटरिंग प्रणाली नीति के तहत लाना और उनके
सर्वर में दखल देना भारतीय एजेंसियों के लिए काफी मुश्किल हो रहा है। ये कंपनियां
अपने सर्वर देश से बाहर होने और विदेशी कानूनों के तहत संचालन का तर्क देती हैं।
अमेरिकी खुफिया एजेंसी ने साइबर दुनिया में
जासूसी का काम बहुत पहले ही शुरू कर दिया था । ब्रिटिश समाचार पत्र गार्जियन और
अमेरिकी समाचार पत्र वाशिंगटन पोस्ट ने स्नोडेन से प्राप्त दस्तावेजों के आधार पर
अति गोपनीय प्रिज्म के बाबत खुलासे ने साफ कर दिया कि साइबर दुनिया की नौ बड़ी
कंपनियां बाकायदा जांच एजेंसियों की साझेदार हैं। इस सनसनीखेज खुलासे को सार्वजनिक
किया गया था। रिपोर्ट के मुताबिक प्रिज्म
के तहत एनएसए माइक्रोसॉफ्ट,
याहू, गूगल, फेसबुक, पालटॉक, एओएल, स्काइप, यूट्यूब और एपल के सर्वरों से सीधे
सूचनाएं हासिल कर रही है। इस कार्यक्रम पर अमेरिकी सरकार बीस लाख डॉलर से ज्यादा
सालाना खर्च कर रही है। ब्रिटिश अखबार के अनुसार ब्रिटेन की खुफिया एजेंसी
जीसीएचक्यू भी अमेरिकी ऑपरेशन का हिस्सा है।
दुनियाँ में इंटरनेट प्रणाली पर काफी हद तक अभी
भी अमेरिकी नियंत्रण है और अधिकांश बड़ी इंटरनेट कंपनियां अमेरिकी हैं। सभी के
सर्वर वहीं है और वे वहां के कानूनों से
संचालित होती हैं,इसलिए सबसे बड़ा सवाल भारत सहित दूसरे देशों से है कि वे साइबर
दुनिया में अपनी निजता को कैसे बचाते हैं। ये सवाल निजता ,साइबर सुरक्षा के साथ साथ राष्ट्रीय
सुरक्षा से भी जुड़ा हुआ है । इसी वजह से सरकार को राष्ट्रीय साइबर प्राधिकरण बनाने
के लिए बाध्य होना पड़ा क्योंकि इन सभी कंपनियों के सर्वर विदेश में होने से सरकारी
डाटा कभी भी हैक किया जा सकता है या सूचनाएं लीक की जा सकती है । सरकारी निजता और
सुरक्षा के लिहाज से साइबर प्राधिकरण बनाना सरकार का सकारात्मक कदम है । यह देश की
साइबर सुरक्षा को और अधिक मजबूती प्रदान करेगा
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