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शशांक द्विवेदी
(नवभारतटाइम्स (NBT) के संपादकीय पेज पर 22/04/2014 को प्रकाशित
जलवायु परिवर्तन पर नजर रखने वाले संयुक्त राष्ट्र के अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की पिछले दिनों जारी नई रिपोर्ट ने दुनिया भर में खतरे की घंटी बजा दी है। 'जलवायु परिवर्तन 2014: प्रभाव, अनुकूलन और जोखिम' शीर्षक इस रिपोर्ट के अनुसार यों तो जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पहले ही सभी महाद्वीपों और महासागरों में फैल चुका है, लेकिन इसके कारण एशिया को बाढ़, गर्मी, सूखा तथा पेयजल से संबंधित गंभीर समस्याएं झेलनी पड़ सकती हैं।
कृषि की प्रधानता वाले भारत जैसे देश के लिए यह काफी खतरनाक हो सकता है। जलवायु परिवर्तन की वजह से दक्षिण एशिया में गेहूं की पैदावार पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। वैश्विक खाद्य उत्पादन धीरे-धीरे घट रहा है। एशिया में तटीय और शहरी इलाकों में बाढ़ के चलते बुनियादी ढांचे, आजीविका और बस्तियों को काफी नुकसान हो सकता है। ऐसे में मुंबई, कोलकाता, ढाका जैसे शहरों पर खतरे की आशंका बढ़ सकती है। लोग ज्यादा, खाना कम क्लाइमेट चेंज दुनिया में खाद्यान्नों की पैदावार और आर्थिक समृद्धि को जिस तरह प्रभावित कर रहा है, उससे आने वाले समय में जरूरी चीजें इतनी महंगी हो जाएंगी कि विभिन्न देशों के बीच युद्ध जैसे हालात पैदा हो सकते हैं। यह खतरा उन देशों में ज्यादा होगा जहां कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है। पर्यावरण का सवाल जब तक 'तापमान में बढ़ोतरी से मानवता के भविष्य पर खतरा' जैसे अमूर्त रूपों तक सीमित रहा, तब तक विकासशील देशों का इसकी ओर ध्यान नहीं गया। परंतु अब जलवायु चक्र का सीधा असर खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ रहा है। किसान तय नहीं कर पा रहे कि कब बुवाई करें और कब फसल काटें। तापमान में बढ़ोतरी जारी रही तो आने वाले 15 सालों में खाद्य उत्पादन 40 प्रतिशत तक घट जाएगा। इससे पूरे विश्व में खाद्यान्नों की भारी कमी हो जाएगी। ऐसी स्थिति वर्ल्ड वार से कम खतरनाक नहीं होगी। एक नई अमेरिकी स्टडी में दावा किया गया है कि तापमान में एक डिग्री तक का इजाफा साल 2030 तक अफ्रीकी सिविल वार के रिस्क को 55 प्रतिशत तक बढ़ा सकता है।
दुनिया जिस तरह विकास की दौड़ में अंधी हो रही है, उसे देखकर तो यही लगता है कि आज नहीं तो कल ग्लोबल वार्मिंग मानव सभ्यता के लिए भारी संकट पैदा करने वाली है। प्राकृतिक आपदाएं हमें बार-बार चेतावनी दे रही हैं। लोगों को इस कथित विकास की बेहोशी से जगाने के लिए ही अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन द्वारा 22 अप्रैल 1970 से धरती को बचाने की मुहिम पृथ्वी दिवस के रूप में शुरू की गई थी। लेकिन, अभी यह दिवस सिर्फ रस्मी आयोजनों तक सिमट कर रह गया है।
दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण को लेकर काफी बातें, सम्मेलन, सेमिनार आदि हो रहे हैं। लेकिन, इनके निष्कर्षों पर अमल की सूरत बनती दिखाई नहीं देती। केंद्रीय पर्यावरणमंत्री ने 3 साल पहले सभी वाहनों में फ्यूल एफिशंसी स्टैंडर्ड, मॉडल ग्रीन बिल्डिंग कोड और इंडस्ट्रीज के लिए एनर्जी एफिशंसी सर्टिफिकेट आवश्यक करने के लिए ऊर्जा संरक्षण कानून में संशोधन, देश के सभी कोयला आधारित ताप बिजलीघरों में 50 प्रतिशत प्रदूषण रहित कोयले का प्रयोग, वन क्षेत्र संरक्षण के लिए कठोर कदम आदि बातों का जिक्र किया था। परंतु वास्तविकता के धरातल पर इनमें से एक भी पहलू पर ठीक ढंग से काम नहीं हुआ है। हम अपने लक्ष्य से अभी बहुत दूर है। हालांकि यह मुद्दा 2009 में घोषित नैशनल एक्शन प्लान के 8 मिशनों में से एक है।
पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर सरकार ने अभी तक कोई गंभीर प्रयास नहीं किया। असल में पर्यावरण सरंक्षण का मुद्दा पार्टियों के राजनीतिक अजेंडे में ही नहीं है। देश में लोकसभा के चुनाव चल रहे हैं, लेकिन अधिकांश राजनीतिक दलों ने अपने घोषणापत्र में ऐसे किसी भी मुद्दे को जगह देना जरूरी नहीं समझा।
जलवायु परिवर्तन पलायन की बड़ी वजह भी बनने जा रहा है। इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन फॉर माइग्रेशन ने अनुमान लगाया है कि सन 2050 तक तकरीबन 20 करोड़ लोगों का पलायन जलवायु परिवर्तन की वजह से होगा जबकि उस समय तक दुनिया की आबादी बढ़ कर 9 अरब तक पहुंच जाने का अनुमान है।
कितना महंगा विकास पर्यावरण असंतुलन के लिए जनसंख्या वृद्धि उतनी जिम्मेदार नहीं है जितनी उपभोगवादी संस्कृति। यही संस्कृति हर कीमत पर विकास वाली मनोवृत्ति बनाती है। क्या सिर्फ औद्योगिक उत्पादन में बढ़ोतरी कर देने को विकास माना जा सकता है? खासकर तब जब एक बड़ी आबादी को अपनी जिंदगी बीमारी और पलायन में गुजारनी पड़े? आखिर ऐसे विकास का क्या मतलब जो विनाश को आमंत्रित करता हो? ऐसे विकास को क्या कहें जिसकी वजह से संपूर्ण मानवता का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए?
वास्तव में पर्यावरण संरक्षण ऐसा ही है जैसे विपरीत परिस्थितियों में भी अपने जीवन की रक्षा करने का संकल्प। सरकार और समाज के स्तर पर लोगों को पर्यावरण के मुद्दे पर गंभीर होना होगा, नहीं तो सबको प्रकृति का कहर झेलने के लिए तैयार रहना होगा। इसलिए आज और अभी हम संकल्प लें कि पृथ्वी को संरक्षण देने के लिए जो कुछ भी हम कर सकेंगे, वह करेंगे और अपने परिवेश में इस बारे में जागरूकता भी फैलाएंगे।
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