Wednesday 14 August 2013

स्वदेश निर्मित विमान वाहक पोत आईएनएस विक्रांत पर विशेष

भारतीय नौसेना के फौलादी इरादे और जज्बे को मजबूती देते हुये प्रथम स्वदेश निर्मित विमान वाहक पोत आईएनएस विक्रांत को कोच्चि के कोचीन शिपयार्ड में समुद्र में उतार दिया गया। रक्षा मंत्री ए के एंटनी की पत्नी एलिजाबेथ एंटनी ने इसका जलावतरण किया। आई.एन.एस. विक्रांत के जलावतरण के साथ भारत ने अपनी नौसेना की रणनीतिक एवं सामरिक क्षमता को और अधिक मारक, प्रभावशाली और प्रतिरोधी बनाने की दिशा में एक और ऎतिहासिक कदम बढाया है। 
इस गरिमामय और ऐतिहासिक अवसर पर रक्षामंत्री समारोह के मुख्य अतिथि थे। जहाजरानी मंत्री जी.के. वासन ने समारोह की अध्यक्षता की। इस एतिहासिक समारोह के गवाह के रूप में नौ सेनाध्यक्ष एडमिरल देवेन्द्र कुमार जोशी इस विमानवाहक पोत के निर्माता कोचीन शिपयार्ड लिमिटेड .सीएसएल. के महाप्रबंधक कोमोडोर काॢतक सुब्रमण्यम सहित कई अन्य नौसैनिक अधिकारी शामिल थे। 
रक्षामंत्री एके एंटनी ने इस मौके पर कहा कि देश की सीमाओँ की सुरक्षा के लिए मजबूत नौसेना हमारी आवश्यकता है। हम स्वदेशी तकनीक से हमारी क्षमताओं में विस्तार की प्रक्रिया को जारी रखेंगे। साथ ही उन्होंने इसे देश के लिए गर्व का क्षण बताया। पोत का निर्माण कोचीन शिपयार्ड लिमिटेड ने किया है। 37,500 हजार टन की क्षमता वाले इस विमानवाही पोत के निर्माण का 55 प्रतिशत कार्य इसी शिपयार्ड में पूरा हुआ। पोत को 2018 में नौसेना में शामिल किया जायेगा। इस पर रूसनिर्मित मिग 29 के और हल्के लडाकू विमान के नौसैनिक संस्करण, एलसीए, कोमोव 31 हेलीकाप्टर तैनात किए जा सकेंगे।  265 मीटर लम्बे और 60 मीटर चौडे इस पोत में आठ डीजल से चलने वाले जेनरेटर लगे हैं जो चार मेगावाट ऊर्जा का उत्पादन कर उसकी ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति करेगा। भारत इस प्रथम स्वदेशी विमानवाहक पोत जलावतरण के बाद विश्व के उन चुनींदा देशों के विशिष्ट समूह में शामिल हो गया है जिन्हें विमानवाहक पोत के डिजायन, निर्माण और संरचनात्मक कार्यो में तकनीकी विशिष्टता हासिल है.
बड़ी चुनौतियों के बीच निर्माण
एक समय इस महत्वाकांक्षी परियोजना पर शुरू होने से पहले ही बंद कर दिए जाने का खतरा मंडराने लगा था। चौदह साल पहले जब देश में विमानवाही पोत का निर्माण करने का फैसला किया गया था तब यह सवाल उठा था कि पोत के लिए जरूरी खूबियों वाला स्टील कहां से आएगा।
इस तरह का इस्पात कुछ ही देशों में बनता है। भारत को उम्मीद थी कि उसे रूस से यह हासिल हो जाएगा लेकिन वहां से अनुकूल उत्तर नहीं मिलने पर सिर्फ यही रास्ता बचा था कि देश में इस तरह की स्टील का निर्माण किया जाए या फिर विमानवाही पोत बनाने का इरादा टाल दिया जाए। हालांकि अब यह पोत 55 प्रतिशत बन चुका है. पोकरण परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका और तमाम बड़े देशों की त्यौरियां चढीं हुईं थीं। उसी समय कारगिल युद्ध भी हुआ था। भारत ने स्वदेशी विमानवाहक पोत बनाने की दिशा में प्रयास करने का फैसला किया। तब सबसे पहला सवाल आया कि पोत के लिए जरूरी खूबियों वाला एबीए स्टील कहां से आएगा। ऐसा खास इस्पात अमेरिका, रूस और नाटो के कुछ देशों में बनता था जिनमें से सिर्फ रूस ही ऐसा देश था जो हमें यह दे सकता था लेकिन इसके लिए वह तैयार नहीं हुआ। उसकी मंशा भारत को स्टील और उसकी प्रौद्योगिकी की बजाय युद्धपोत बेचने की थी।
भारतीय नौसेना के मौजूदा युद्धपोतों की मरम्मत के लिए भी स्टील मिलना मुश्किल हो रहा था। अगर नौसेना को पचास टन लोहे की जरूरत होती थी तो रूस पांच सौ टन से कम लोहे की आपूर्ति को तैयार नहीं होता था। ऐसे में रक्षा वैज्ञानिकों ने पोत के लिए स्टील देश में ही तैयार करने की ठानी और उनके अथक प्रयासो से आज भारत इस मामले में आत्म निर्भर बन गया है।
रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन डीआरडीओ की इकाई रक्षा धातुकर्म अनुसंधान प्रयोगशाला डीएमआरएल ने राष्ट्रीय धातुकर्म अनुसंधान प्रयोगशाला एनएमआरएल की मदद से ए बी श्रेणी की प्लेट और उनकी वैल्डिंग तकनीक और सामग्री विकसित की। इस प्रोजेक्ट का नाम डीएमआर 249 दिया गया। सबसे पहले साल 2000 में हैवी इंजीनियरिंग कॉरपोरेशन एचईसी ने डीएमआर 249 की सिल्लियां तैयार कीं। फिर छह गुणा दो मीटर की आठ से 10 मिलीमीटर की प्लेटों में बदला गया।
इसके बाद इन प्लेटों को भारतीय इस्पात प्राधिकरण लिमिटेड सेल के ओडिशा स्थित राउरकेला संयंत्र के स्पेशल प्लेट प्लांट में हीट ट्रीटमेंट किया गया जहां टैंकों, बख्तरबंद गाड़ियों, रॉकेट और मिसाइलों के खोल में लगने वाला खास किस्म का इस्पात पहले से ही बन रहा था। अब इन प्लेटों का परीक्षण किया गया और उनमें सभी आवश्यक गुणधर्म प्राप्त हो गए। साल 2002 में 30 टन इस खास इस्पात की सिल्लियों को 5, 6, 7 मिलीमीटर पतली शीट सेल के बोकारो इस्पात संयंत्र में तैयार की गईं। इसके बाद सेल मुख्य भूमिका में आ गया।
उधर प्रथम स्वदेशी विमानवाहक पोत के निर्माण का ठेका कोचीन शिपयार्ड को दे दिया गया। सेल ने साल 2004-05 से डीएमआर 249ए श्रेणी के स्टील की आपूर्ति शुरू कर दी और पोत का निर्माण शुरू हो गया। पोत के ढांचे का निर्माण डीएमआर 249ए से हुआ है जबकि विमानवाहक पोत के डेक पर विमानो की लैंडिंग और टेक ऑफ से होने वाले झटकों को सहन करने के लिए डीएमआर 249 बी का विकास किया गया। प्लेट की मोटाई की दिशा मे दबाव झेलने की क्षमता के लिए डीएमआर 249 ए, जेड25, स्टील का विकास किया गया।
राउरकेला इस्पात संयंत्र के स्पेशल प्लेट प्लांट में डीएमआर 249 ए, डीएमआर 249 बी और डीएमआर 249 ए, जेड 25, किस्मों की 20 मिलीमीटर मोटी प्लेटों को अंतिम रूप दिया गया है। इससे पतली प्लेटें भिलाई संयंत्र में तैयार की गईं हैं।
37500 टन वजनी इस विमानवाहक पोत के लिए 28 हजार टन से ज्यादा लोहे की जरूरत थी जिसमें करीब करीब पूरा स्टील सेल ने दिया है। इसके अलावा अन्य शिपयार्डों को मिला लिया जाए तो नौसेना को 40 हजार टन से ज्यादा डीएमआर 249 श्रेणी के सैन्य इस्पात की आपूर्ति की जा चुकी है।
आई.एन.एस. विक्रांत की पहली कील चार साल पहले डाली गई थी। ढांचे और अधिकतर जलमग्न उपकरणों समेत इसका 75 प्रतिशत निर्माण पूरा हो चुका है। उम्मीद है कि 2016 तक इसका निर्माण शतप्रतिशत पूरा हो जाएगा और 2018 तक यह पूरी क्षमता के साथ नौसेना में शामिल कर लिया जाएगा।
नौसेना के वास्तु निदेशालय के प्रमुख निदेशक कोमोडोर ए के दत्ता. डीआरडीओ के चीफ कंट्रोलर जी मलकोडैय्या ने सेल की इस उपलब्धि को देश के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि बताते हुए कहा कि इससे देश में नौसैनिक बेड़े की कमी पूरी करने के लिए युद्धपोत निर्माण को बल मिलेगा और नौसेना को समुद्र में रणनीतिक बढ़त हासिल होगी।

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