भारत के अंतरिक्ष अभियान पर अभिषेक कुमार सिंह की टिप्पणी
भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो ने अपने 101वें अंतरिक्ष अभियान के रूप में
रॉकेट पीएसएलवी-सी20 के जरिये सात सैटेलाइट्स (उपग्रहों) को सफलतापूर्वक
उनकी कक्षा में पहुंचा कर नई ऊंचाई हासिल कर ली है। अस्सी के दशक में जब
भारत अंतरिक्ष में छलांग लगाने के मकसद से महत्वाकांक्षी योजनाएं बना रहा
था तब विकसित देश भारत के बारे में यही कहते थे कि बैलगाड़ी पर चलने वाला
देश अंतरिक्ष में पहुंचने का सपना क्यों देख रहा है। इसे महान अंतरिक्ष
वैज्ञानिकों विक्रम साराभाई और सतीश धवन की सूझबूझ और तत्कालीन राजनेताओं
की दूरंदेशी कहा जाएगा कि उन्होंने अंतरिक्ष के जरिये देश की गरीबी और
निरक्षरता मिटाने का सपना देखा। विकसित देशों को चिंता यह थी कि भारत यदि
अंतरिक्ष क्षेत्र में उनकी बराबरी पर आ गया, तो इससे न सिर्फ स्पेस में
सैटेलाइट लांच करने से होने वाली उनकी भारी कमाई का Fोत बंद हो जाएगा,
बल्कि रॉकेट टेक्नोलॉजी के माध्यम से भारत लंबी दूरियों तक मार करने वाली
बैलिस्टिट मिसाइलें बनाने में भी सक्षम हो जाएगा। यही वजह है कि उस दौर में
निर्गुट नीति पर चलने वाले भारत को स्वतंत्र विदेश नीति पर न चलने देने के
लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को अलग-थलग करने की कोशिशें पश्चिमी देशों
ने की थीं। इन पाबंदियों से भारत का फौरी नुकसान तो हुआ, लेकिन इसका एक
सुफल यह निकला कि एटमी तकनीक के मामले में भारत आत्मनिर्भर हो गया। कुछ ऐसी
ही बाधाओं का योगदान भारत को स्वदेशी अंतरिक्ष कार्यक्रमों में बढ़त हासिल
कराने में भी है। सत्तर और अस्सी के दशक में भारत पर जैसे दबाव थे, उनके
रहते ऐसा लग रहा था कि भारत मिसाइल और अंतरिक्ष कार्यक्रमों के लिए विकसित
देशों का मोहताज बनकर रह जाएगा, लेकिन 1983 में एकीकृत मिसाइल विकास
कार्यक्रम का जिम्मा तब एपीजे अब्दुल कलाम को सौंपना एक दूरंदेशी फैसला
साबित हुआ। हालांकि 1987 में अमेरिका के इशारे पर एमटीसीआर जैसी बाध्यकारी
व्यवस्था लागू कर भारत के मिसाइल कार्यक्रम को रोकने का प्रयास किया गया।
साथ ही, अमेरिका ने भारत में बने उपग्रहों को अपने रॉकेट से स्पेस में
छोड़ने से भी इनकार कर दिया, लेकिन भारत ने साबित किया कि ये सारी
पाबंदियां उसे आत्मनिर्भर बनाने वाली ही साबित हुईं। उल्लेखनीय है कि जो
तकनीक मिसाइल बनाने में काम आती है, उसी से अंतरिक्ष में उपग्रह छोड़ने
वाले रॉकेट बनते हैं। उपकरणों के निर्यात पर पाबंदी के बावजूद भारत ने पहले
तो पृथ्वी की नजदीकी कक्षा में 300 किलोमीटर तक जाने वाले सैटेलाइट लांच
व्हीकल- एसएलवी का विकास किया और उसके बाद संवर्धित उपग्रह प्रक्षेपण यान
(एएसएलवी और पृथ्वी की कक्षा में 900 किलोमीटर ऊपर जाकर उपग्रहों को छोड़ने
व स्थापित करने वाले ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान अर्थात पीएलएलवी का
निर्माण करने में सफलता हासिल की। इन्हीं रॉकेटों की तकनीक पर भारत ने
पृथ्वी और अग्नि मिसाइलें विकसित की हैं। चूंकि अब पूरी दुनिया में मौसम की
भविष्यवाणी, दूरसंचार और टेलीविजन प्रसारण का क्षेत्र तेजी से बढ़ रहा है
और ये सारी सुविधाएं उपग्रहों के माध्यम से संचालित होती हैं, लिहाजा ऐसे
संचार उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित करने की मांग में तेज बढ़ोतरी हो
रही है।
अमेरिकी व यूरोपीय स्पेस एजेंसी के जरिए सैटेलाइट छोड़ना काफी महंगा है,
ऐसे में भारतीय रॉकेट एक सस्ता विकल्प साबित हो रहे हैं। हालांकि इस
क्षेत्र में चीन, रूस आदि मुल्क प्रतिस्पर्धा में हैं, लेकिन यह बाजार इतनी
तेजी से बढ़ रहा है कि यह मांग उनके सहारे पूरी नहीं की जा सकती। इस मामले
में उपग्रहों का सफल प्रक्षेपण भी एक मुद्दा है। इस मामले में इसरो की
सफलता दर काफी उम्दा है। यही नहीं, भारत से उपग्रहों का प्रक्षेपण करवाने
की लागत अन्य देशों के मुकाबले 30-35 प्रतिशत कम है। आर्थिक मंदी के मौजूदा
दौर में तो विकसित देशों को इसीलिए भारत से भय लग रहा है कि कहीं स्पेस
मार्केट के ज्यादातर हिस्से पर भारत का कब्जा न हो जाए।
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