Tuesday, 19 February 2013

हायर स्टडीज के लिए विदेश क्यों नहीं जा रहे भारतीय


मधुरेन्द्र सिन्हा॥
नब्बे के दशक में जब इकोनॉमिक रिफॉर्म्स शुरू हुए तो भारतीयों ने एक बात जान ली कि अगर अपनी बढ़त बनानी है तो हायर एजुकेशन में पहल करनी होगी। इसका ही नतीजा था कि यहां से लाखों की तादाद में स्टूडेंट्स विदेशों में पढ़ने जाने लगे और तेजी से बढ़ती इकोनॉमी को जबर्दस्त सपोर्ट मिला। दरअसल मॉडर्न बिज़नेस को चलाने के लिए जो टैलेंट चाहिए वह किसी कारखाने में नहीं पैदा होता, बल्कि एमआईटी, स्टैनफर्ड, हावर्ड, ऑक्सफर्ड और कैंब्रिज से आता है। ये वो इंस्टीट्यूशन हैं जो साधारण टैलेंट को भी आकाश की बुलंदियों तक पहुंचाने की ताकत रखते हैं। अमेरिकी नेतृत्व ने इस रहस्य को सौ साल पहले जान लिया था। इसका ही नतीजा है कि 15.8 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था वाला अमेरिका दुनिया का सबसे अमीर देश ही नहीं है, हायर एजुकेशन के मामले में भी नंबर वन है। दुनिया की सबसे बड़ी 321 खोजों में से 121 अमेरिका में हुईं और दुनिया के टॉप 45 एजुकेशनल इंस्टीट्यूट्स में से 30 अमेरिका में हैं।

यहां भी भारत-चीन
इस सदी की शुरूआत में हमारे स्टूडेंट्स की पूरी फौज अमेरिका, इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया वगैरह पहुंचने लगी। 2001-02 से 2008-09 के बीच भारतीय छात्रों ने अमेरिका में नंबर वन जगह बना ली। इसके पहले यह तमगा चीन के पास था। यही बात इंग्लैंड में हुई और वहां भी भारतीय स्टूडेंट्स नंबर वन रहे। दुनिया की सबसे बड़ी इकोनॉमी बनने में जुटे चीन ने शुरू से ही इस बात को समझ लिया था कि आगे बढ़ना है तो हायर एजुकेशन का सहारा लेना होगा, जो अमेरिका-इंग्लैंड में ही मिल सकती है। उसने अपने यहां से बड़ी तादाद में छात्रों को विदेश जाकर पढ़ने के लिए प्रेरित किया। वहां भी भारत-चीन प्रतिद्वंद्विता देखने को मिली, लेकिन चीन ने अब फिर से यहां बाजी मार ली है। आंकड़े बताते हैं कि 2009 में अमेरिका जाने वाले भारतीय स्टूडेंट्स की तादाद एक लाख से भी ज्यादा हो गई थी लेकिन उसके बाद से यह लगातार गिरती जा रही है, जबकि चीन से आने वालों की तादाद में भारी बढ़ोतरी हो रही है।

अच्छी नौकरियों का लोचा

आखिर हुआ क्या जो विदेशों में हायर एजुकेशन के लिए जाने वाले भारतीय स्टूडेंट्स की तादाद घटने लगी? उत्कृष्ट ज्ञान पाने का एक बड़ा मौका हम आखिर क्यों गंवा रहे हैं? इन सवालों का हल ढूंढ़ना ही होगा क्योंकि हायर एजुकेशन में पकड़ बनाकर ही भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी इकोनॉमी बन सकता है। इसका सबसे बड़ा कारण तो यह है कि दुनिया के टॉप इंस्टीट्यूशनों में पढ़ने की फीस इतनी ज्यादा है कि बहुत कम लोग इस बारे में सोच सकते हैं। स्टैनफर्ड जैसे बिजनेस मैनेजमेंट इंस्टीट्यूशनों में तो फीस ही डेढ़ करोड़ रुपए तक होती है। अब सवाल है कि इतनी ज्यादा फीस देने के बाद क्या ऐसा कोई नौकरी मिलेगी जिससे यह रकम चुकाई जा सके? अमेरिका में आई मंदी के बाद वहां बढि़या नौकरियों के ऑफर आने कम हो गए। अगर जॉब मार्केट में जान न हो तो पढ़ाई किस काम की?

भारतीय करेंसी का गिरना भी बड़ा कारण रहा। रुपया अमेरिकी डॉलर की तुलना में लगातार नीचे आया है।डॉलर देखते-देखते 45 से 55 रुपए तक जा पहुंचा जिससे हजारों स्टूडेंट्स का बजट बिगड़ गया और उन्होंने बाहरजाना स्थगित कर दिया। विदेशों में पढ़ने के लिए बैंक जो लोन देते हैं, वह इतना नहीं होता कि उसके बूते विदेशोंमें पढ़ाई की जा सके। और अगर बड़ी रकम का इंतजाम हो भी गया तो उसे चुकाया कैसे जाए, यह प्रश्न मुंह बाएखड़ा रहता है। इसलिए बहुत से लोग किसी तरह का जोखिम नहीं उठाना चाहते। इसके अलावा भारतीय स्टूडेंट्सज्यादातर साइंस, इंजीनियरिंग या फिर मैथमेटिक्स की पढ़ाई करते हैं, जिसमें भारत में मोटी सैलरी की गुंजाइशनहीं रहती। इसके विपरीत चीनी स्टूडेंट्स ज्यादा से ज्यादा बिजनेस मैनेजमेंट की पढ़ाई करते हैं।
एक और कारण यह रहा कि भारतीय स्टूडेंट्स अमेरिका के बड़े और बहुत नामी इंस्टीट्यूट में पढ़ने के इच्छुक रहतेहैं जबकि वहां बड़ी तादाद में अच्छे लेकिन कम नामी इंस्टीट्यूट भी हैं जहां पढ़ना लाभदायक होगा। उनकीजानकारी कम होने के कारण वहां भारतीय स्टूडेंट्स कम जाते हैं। हाल के वर्षों में अमेरिका ने वीजा के नियम कड़ेकर दिए थे, जिससे भारतीयों के सामने बाधा खड़ी हो गई। शुक्र है कि अमेरिकी सरकार अब इन्हें फिर से आसानबनाने जा रही है। वीजा के सख्त नए नियमों के कारणभारतीय स्टूडेंट्स के इंग्लैंड पढ़ने जाने में भी भारी कमीआई है। 2011-12 की तुलना में वहां पढ़ने वाले स्टूडेंट्स की तादाद 25 प्रतिशत कम हो गई है। इसके अलावाब्रिटेन के मैनेजमेंट, इंजीनियरिंग वगैरह का यहां खास महत्व नहीं है। भारतीय स्टूडेंट्स वहां साइंस, मेडिसिन,इकनॉमिक्स, इंग्लिश वगैरह की पढ़ाई के लिए जा रहे हैं लेकिन बाकी कोर्स में उनकी रुचि घट गई है। कठोरनियमों के चलते वहां पढ़कर नौकरी पा लेना भी मुश्किल है।

हमसे ज्यादा उनका नुकसान

ऑस्ट्रेलिया एक समय भारतीय स्टूडेंट्स का प्रिय डेस्टिनेशन हो गया था और वहां वे बड़ी तादाद में वे जा रहे थेलेकिन रेसिज्म और हिंसा ने उन्हें वहां से दूर कर दिया। फिर ऑस्ट्रेलियन डॉलर भी काफी महंगा हो गया।भारतीयों की भीड़ के कारण वीजा नियम भी कड़े बना दिए गए जिससे उनकी दिलचस्पी घट गई। सबसे बड़ीबात यह थी कि पार्ट टाइम जॉब करके पढ़ाई करना संभव नहीं था। हालत यह है कि अभी हर साल दस हजारस्टूडेंट्स भी ऑस्ट्रेलिया पढ़ने नहीं जाते। भारतीय स्टूडेंट्स के इन देशों में कम जाने का खामियाजा इन देशों कोभी भुगतना पड़ रहा है। हायर एजुकेशन इनकी कमाई का बड़ा जरिया है और इसमें बहुत कमी आई है। अकेलेऑस्ट्रेलिया को लगभग एक अरब डॉलर का सालाना नुकसान उठाना पड़ रहा है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में हायरएजुकेशन का बड़ा योगदान है और उससे उसे हर साल 22 अरब डॉलर की प्राप्ति होती है। इसमें अब कम आनेलगी है। 

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