प्रो. जय कौशल
यूजीसी नेट परीक्षा पर विशेष प्रस्तुति
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एक
प्राध्यापक, जिसका पेशा ही लिखना और समझाना है,
अगर बिना विश्लेषणात्मक लेखकीय जांच पूरी किए सिर्फ रटकर अध्यापन के
पेशे में आ जाएगा तो वह अपने छात्रों को कैसा लेखन और पठन-पाठन सिखाएगा, इसका अनुमान लगाया जा सकता है कहीं ऐसा तो नहीं कि यूजीसी द्वारा नेट परीक्षा
का जल्दी परिणाम घोषित न कर पाने की समस्या से निजात पाना असली एजेंडा न हो,
बल्कि ‘अपने’ कुछ लोगों
को किसी तरह सिस्टम में प्रविष्ट कराना मूल मंतव्य हो
यूजीसी द्वारा इस बार जून माह में
राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट) बहुविकल्पीय प्रश्नों के बदले हुए पैटर्न पर
आयोजित की गई। अब तक इसके प्रथम और द्वितीय पत्र में ही बहुविकल्पीय (मल्टीपल
च्वाइस) प्रश्न पूछे जाते थे। पहला पेपर जहां अभ्यर्थी के सामान्य ज्ञान की जांच
करता था, वहीं दूसरे में उम्मीदवार द्वारा चुने गए विषय के
बहुविकल्पीय और तीसरे में वर्णनात्मक (डिस्क्रिप्टिव ) प्रश्न होते थे। गौरतलब है
कि बदले पैटर्न में प्रश्नपत्रों की संख्या और समय नहीं बदला गया है। पहले पेपर
में जनरल नेचर, टीचिंग/रिसर्च एप्टीट्यूड, रीजनिंग एबिलिटी, कॉम्प्रिहेंशन व जनरल अवेयरनेस पर
आधारित साठ प्रश्न पूछे जाने हैं, जिनमें से पचास करने होते
हैं; जबकि दूसरा प्रश्नपत्र उम्मीदवार द्वारा चुने गए विषय
से संबंधित होता है। इसमें कुल पचास प्रश्न होते हैं और सभी को हल करना आवश्यक है।
उक्त दोनों पत्रों के लिए सवा घंटे का समय निर्धारित है। अंतिम पेपर ढाई घंटे का
होता है, जिसके वर्णनात्मक पैटर्न को हटाकर इस बार से उसे भी
बहुविकल्पीय बना दिया गया है। इसमें पचहत्तर बहुविकल्पीय प्रश्न होते है। सभी
प्रश्न अनिवार्य हैं। बस, ‘नेगेटिव मार्किंग’ नहीं रखी गई है। यूजीसी की 22 दिसम्बर, 2011 को हुई बैठक में नेट मॉडरेशन कमेटी द्वारा नेट के तीसरे प्रश्नपत्र में भी
विस्तृत के स्थान पर वैकल्पिक प्रश्नों की व्यवस्था की सिफारिश की गई थी। समिति का
तर्क था कि तीसरे प्रश्नपत्र के मूल्यांकन की मौजूदा व्यवस्था में लगने वाले समय
के कारण परिणाम लगातार विलम्ब से जारी हो रहा है। ऐसे में बेहतर होगा कि इस पेपर
को भी ऑब्जेक्टिव किया जाए। इससे परीक्षा में पारदर्शिता के साथ ही परिणाम शीघ्र
जारी किए जाने का रास्ता खुलेगा। इस हेतु तृतीय पत्र का एक प्रारूप भी यूजीसी को
अपनी वेबसाइट पर उपलब्ध कराना था, जो अंत तक नहीं आया। सबके
मुंह पर एक ही सवाल था कि जब दूसरे और तीसरे दोनों ही पेपर में विषय के
बहुविकल्पीय प्रश्न पूछे जाने हैं, तो यह तीसरा पेपर दूसरे
से किस रूप में भिन्न रहेगा! पेपर देखने और परीक्षार्थियों से पूछने पर पता भी चला
कि दूसरे और तीसरे प्रश्नपत्रों के पैटर्न में कोई अंतर नहीं था। कुछ का तो कहना
था कि कुछ प्रश्न दोनों पत्रों में रिपीट तक हो गए हैं। माना कि दोनों पत्रों के
पाठ्यक्रम छोटे- बड़े हैं, किंतु विषय तो एक ही है। क्या
सवालों की संख्या कम-ज्यादा रख देने से कोई भिन्नता आ सकती है? जब विषय के दूसरे और तीसरे पेपरों में एक जैसे सवाल पूछने थे, तो तीसरा पेपर लेने का औचित्य क्या है? हालत यह रही
कि बहुत सारे छात्रों ने तीसरे पत्र को एक से डेढ़ घंटे में ही निपटा लिया था। इस
कदम का सर्वाधिक फायदा गाइड बनाने वालों को हुआ, प्रकाशकों
ने अपनी-अपनी गाइडों को नए पैटर्न के आधार पर तैयार बताकर तत्काल तीसरे पेपर का
संस्करण निकाल दिया और जमकर चांदी काटी। यूजीसी ने शायद बहुविकल्पीय प्रश्नों का
यह पैटर्न वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की देखा-देखी लिया है,
जो मुख्यत: विज्ञान से संबंधित विषयों में नेट परीक्षा का आयोजन
करती है। पर न तो यूजीसी ने सीएसआईआर के विषयवार अंक-विभाजन को ध्यान में रखा और न
ही उसकी नेगेटिव मार्किंग को। सीएसआईआर-नेट में तीन घंटे का एक ही पेपर होता है,
अलबत्ता उसके तीन भाग (पार्ट) कर दिए गए हैं। बीस प्रश्नों का ‘पार्ट ए’
कॉमन रखा गया है, जिसमें
पंद्रह प्रश्न करने अनिवार्य होते हैं। हरेक प्रश्न दो अंकों का है। ‘पार्ट बी’ और ‘सी’ विषयवार अलग-अलग हैं। साथ ही बहुविकल्पीय प्रश्नों के बावजूद सीएसआईआर ने
अपने हर विषय की प्रश्न- संख्या, उसका अंक-विभाजन और
नकारात्मक अंकन पण्राली अलग-अलग रखी है। किंतु, यूजीसी ने यह
पैटर्न अपनाते समय विषयों का तकनीकी पक्ष बिल्कुल भुला दिया है। चूंकि, सीएसआईआर-नेट द्वारा आयोजित सारे विषय विशुद्ध विज्ञान के हैं, इसलिए बहु विकल्पीय पैटर्न होने पर भी वहां रटने की गुंजाइश नहीं है। हर
सवाल का हल पूरी कैलकुलेशन और बौद्धिक कसरत के बाद निकलता है। इसलिए चाहे पैटर्न
वर्णनात्मक रहे अथवा बहुविकल्पीय, अभ्यर्थी को उतनी ही मेहनत
करनी है। किंतु, यूजीसी के अधिकतर विषय या तो मानिवकी के हैं
या समाज विज्ञान के। कुल 94 में 37 विषय
तो सिर्फ भाषा और साहित्य के हैं। आठ-दस विज्ञान और प्रबंधन से जुड़े विषयों के
अतिरिक्त बाकी सारे विषय समाज-विज्ञान के हैं, जहां मुद्दों
की गंभीर समझ ज्यादा जरूरी है, न कि कैलकुलेशन और प्रेक्टिस
की। ऐसे में, यूजीसी द्वारा अपनाया गया यह पैटर्न कितना
कारगर है, स्वत: स्पष्ट है। क्या यूजीसी इसे अपनाकर मानिवकी
और समाज विज्ञान की दुनिया में रट्टू तोतों की फौज तैयार नहीं कर रही है, जो आगे चलकर उच्च शिक्षा के एक बड़े हिस्से का भविष्य तय करने वाले हैं!
एक तो हमारी शिक्षा-पण्राली ही ऐसी है, जो छात्रों को पाठ्य-
पुस्तकें पढ़ने के लिए ज्यादा प्रेरित करती नजर नहीं आती। स्कू ल और कॉलेज स्तर तक
तो रटकर आराम से काम चल जाता है। हर जगह ऐसी गाइडों का बोलबाला है, जो परीक्षा से एक-दो सप्ताह पूर्व बाजार में आती हैं। उनमें अध्यापकों आदि
से संपर्क कर और पिछले प्रश्न-पत्रों को देखकर कुछ ऐसे प्रश्नोत्तर दिए होते हैं
कि परीक्षा में उससे दो-तीन प्रश्न फंस ही जाते हैं। जाहिर है, जब कम पढ़ने से भी उत्तीर्णाक लाए जा सकते हैं तो कोई पाठ्य- पुस्तकों से
माथापच्ची क्यों करे? यह तो रही ‘शॉर्टकट’
अपनाकर पास होने वालों की असलियत। इसके अलावा जिन्हें बहुत अच्छे
अंकों से पास होना है और पैसे वाले भी हैं, वे ट्यूशन और
कैप्सूल कोर्स कराने वालों के पास पहुंच जाते हैं। वहां भी छात्रों को संभावित
प्रश्नों को लिखवा-रटवा दिया जाता है। बहुत अच्छे अंक लाने वाले, यहां तक कि मेरिट में आने वालों का भी यह एक पक्ष है, पाठ्य-पुस्तकों की दुर्गति का तो है ही। पाठ्य- पुस्तकों से नोट्स बनाकर
तैयारी करने वालों का प्रतिशत बहुत कम है। ऐसे में यूजीसी-नेट परीक्षा का यह नया
पैटर्न हमारी रट्टू संस्कारों वाली पीढ़ी को ही आगे बढ़ाने में सहायक सिद्ध होगा।
दरअसल, राष्ट्रीय स्तर की यह परीक्षा कॉलेज और विविद्यालयों
में प्राध्यापकनि युक्ति की जरूरी सीढ़ी है। किसी भी अध्यापक का मुख्य काम लिखना
और बोलना ही होता है। लेकिन यूजीसी के इस कदम से अभ्यर्थियों की विश्लेषण क्षमता
की परीक्षा नहीं हो सकेगी। इसका प्रारूप केट, गेट, पीएमटी, पीईटी आदि प्रतियोगी-परीक्षाओं जैसा हो गया
है, जो यूजीसीनेट/ जेआरएफ जैसी परीक्षा के कतई अनुकूल नहीं
लगता। कहना यह है कि एक प्राध्यापक, जिसका पेशा ही लिखना और
समझाना है, अगर बिना विश्लेषणात्मक लेखकीय जांच पूरी किए
सिर्फ रटकर अध्यापन के पेशे में आ जाएगा तो वह अपने छात्रों को कैसा लेखन और पठन-
पाठन सिखाएगा, इसका अनुमान लगाया जा सकता है! पूछा तो यह भी
जा सकता है कि जो उक्त मानक पूरा करके आए हैं, वे ही कितने
योग्य हैं। इसलिए समस्या का हल कम से कम पूरे पैटर्न को ऑब्जेक्टिव कर देना कतई
नहीं है। कहीं ऐसा तो नहीं कि जल्दी परिणाम न घोषित कर पाने की समस्या से निजात
पाना असली एजेंडा ही न हो, बल्कि ‘अपने’
कुछ लोगों को किसी तरह सिस्टम में प्रविष्ट कराना मूल मंतव्य हो!
क्योंकि जल्दी रिजल्ट तो सीबीएससी की तरह यूजीसी नेट-ब्यूरो को देश के विभिन्न
जोनों (क्षेत्रों) में विकेंद्रीकृत कर भी लाया जा सकता है। जब 94 विषयों के लिए होने वाली यह परीक्षा देश के 74 सेंटरों
पर आयोजित की जा सकती है तो क्या चार या उससे अधिक जोनों में बांटकर उसकी जांच
नहीं हो सकती?
(लेखक त्रिपुरा विविद्यालय में सहायक
प्रोफेसर हैं)
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