शशांक द्विवेदी
आज से ठीक 20 साल पहले वर्ष 1992 में पृथ्वी के अस्तित्व पर मंडरा रहे संकट और जीवों
के सतत् विकास की चिंताओं से निपटने के
लिए साझी रणनीति बनाने के उद्देश्य से
दुनियाभर के नेता ब्राजील के शहर रियो डि जेनेरियो में अर्थ समिट यानी पृथ्वी
सम्मेलन में एकत्र हुए थे.
इस सम्मलेन
में जमा हुए पूरी दुनिया के नेता पृथ्वी के अधिक सुरक्षित भविष्य के लिए एक
महत्वाकांक्षी योजना पर सहमत हुए थे। इस सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल
वार्मिंग जैसी समस्याओं को लेकर गहरी चिंता जतायी गयी थी और इनसे लड़ने के लिए
मिलकर प्रयास करने का संकल्प लिया गया था. इसमें वे जबर्दस्त आर्थिक विकास और
बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकताओं के साथ हमारी धरती के सबसे मूल्यवान संसाधनों जमीन, हवा और पानी के संरक्षण का संतुलन बनाना चाहते थे। इस बात को लेकर
सभी सहमत थे कि इसका एक ही रास्ता है -
पुराना आर्थिक मॉडल तोड़कर नया मॉडल खोजा जाए। उन्होंने इसे टिकाऊ विकास का नाम
दिया था। दो दशक बाद हम फिर भविष्य के मोड़ पर खड़े हैं। मानवता के सामने आज भी
वही चुनौतियां हैं, बस उनका आकार
बड़ा हो गया है। 172 देशों के प्रप्रतिनिधियों ने संयुक्त राष्ट्र द्वारा पर्यावरण
और विकास के मुद्दों पर आयोजित इस वैश्वि2क सम्मेलन में शिरकत की थी. बीस साल बाद
यह संकल्प पूरा होता नहीं दिखाई देता. एक बार फिर दुनिया के शीर्ष नेताओं ने रियो डि
जेनेरियो में पृथ्वी सम्मेलन में भाग लिया . 20 से 22 जून तक आयोजित
होने वाले इस सम्मेलने को ही रियो+20 का नाम दिया गया .
1992 के पृथ्वी सम्मेलन में दुनिया के नेता
हमारी पृथ्वी को भविष्य के लिए अधिक सुरक्षित बनाने के लिए एक महत्वाकांक्षी योजना
पर सहमत हुए थे. इस सम्मेलन में यूएनएफसीसीसी- यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क कंवेंशन ऑन
क्लाइमेटिक चेंज पर सहमति बनी. पर्यावरण को बचाने के लिए क्योटो प्रोटोकॉल भी इसी
सम्मेलन का परिणाम था.
प्रति व्यक्ति वैश्विक आर्थिक वृद्धि दुनिया की
जनसंख्या के साथ मिलकर पृथ्वी की नाजुक पारिस्थिति पर अभूतपूर्व दबाव डाल रही है।
हम यह मानने लगे हैं कि सब कुछ जलाकर और खपाकर हम संपन्नता के रास्ते पर नहीं
बढ़ते रह सकते। इसके बावजूद हमने उस सहज समाधान को अपनाया नहीं है। टिकाऊ विकास का
यह अकेला रास्ता आज भी उतना ही अपरिहार्य है, जितना 20 वर्ष
पहले था।
पहले रियो सम्मेलन के दो दशक पूरे हो चुके हैं, लेकिन आज भी दुनिया उन्हीं सवालों से जूझ रही है, जो उस वक्त हमारे सामने थे. बल्कि स्थितियां और गंभीर ही हुई हैं. इस
बीच दुनिया की आबादी बढ.कर सात अरब हो गयी है. ग्लोबल तापमान में वृद्धि का
सिलसिला जारी है. आबादी बढ.ने से प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ.ा है और प्राकृतिक
संसाधनों के स्रोत सीमित होने के कारण भविष्य को लेकर चिंताएं बढ.ी हैं. इसके
बावजूद हमने अंधाधुंध विकास की जगह वैकल्पिक समाधान को नहीं अपनाया है. टिकाऊ
विकास की चुनौती आज भी हमारे सामने बनी हुई है. इस चुनौती से निपटने के लिए साल के
शुरू में जीरो ड्राफ्ट की घोषणा की गयी.
"भविष्य जैसा हम चाहते हैं" के मसौदे
पर बहस
रियो+20 और यूएनसीएसडी (यूनाइटेड नेशंस
कांफ्रेंस ऑन सस्टेनेबल डेवलपमेंट) सम्मेलन के वार्ता मसौदे को जीरो ड्राफ्ट कहा
गया है. इसका शीर्षक है- भविष्य जो हम चाहते हैं. नवंबर 2011 में सदस्य देशों, संयुक्त राष्ट्र, अंतरराष्ट्रीय
एनजीओ और पर्यवेक्षक संगठनों की मदद से इस मसौदे को तैयार किया गया था. इसे 11
जनवरी 2012 को सार्वजनिक किया गया. अब अंतिम मसौदे को इस बैठक में अपनाया जायेगा.
इस ड्राफ्ट को पांच वर्गों में बांटा गया है- प्रस्तावनाएं, राजनीतिक प्रतिबद्धता का नवीकरण, सतत विकास के
संदर्भ में हरित अर्थव्यवस्था और गरीबी उन्मूलन, सतत विकास के
लिए संस्थागत ढांचा और पालन और कार्यवाही के लिए रूपरेखा.
लेकिन कुछ विशेषज्ञों के अनुसार इस मसौदे में
जिन विषयों को चुना गया है, वह संकट के सही
कारणों को नहीं बतलाते. नतीजतन, उन्हें दूर
करना काफी मुश्किल है. इसमें हरित अर्थव्यवस्था और गरीबी उन्मूलन पर स्पष्ट सोच
दिखाई नहीं पड़ती है.
जीरो ड्राफ्ट के सार को देखने से लगता है कि
प्रकृति और विकास के बीच सामंजस्य को केंद्र में रखते हुए यह दस्तावेज तैयार नहीं
किया गया है, बल्कि आर्थिक विकास ही हमारी प्राथमिकता बनी हुई
है. इस मसौदें में कार्बन उत्सर्जन और जंगलों के विनाश पर स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं
कहा गया है. जिससे कुछ देशों ने इसकी
आलोचना भी की है क्योंकि लेकिन ब्राजील
सरकार के अनुसार सभी 153 देशों ने मोटे
तौर पर मसौदे को सहमति दे दी है.
जी-77 देशों की मांग
जी-77 विकासशील देशों का एक समूह है. शुरू में
इसके 77 संस्थापक देश थे, लेकिन अब इसके
सदस्यों की संख्या 132 तक हो चुकी है. इन देशों का मानना है कि विकसित देशों
द्वारा पहले किये गये वादों और प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए दबाव डाला जाना
चाहिए, जबकि विकसित देश इसके प्रति उदासीन नजर आते हैं. जी-77 गरीबी उन्मूलन
व सामाजिक विकास के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संस्थागत ढांचों में मूलभूत
बदलाव भी चाहता है, ताकि विकासशील
देशों का मजबूत प्रप्रतिनिधित्व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो सके. विकसित देश व्यापक
स्तर पर नये सिरे से इस बदलाव के पक्ष में नहीं हैं.
रियो+20 में भारत की भूमिका
विश्वक स्तर पर होने वाले सबसे ब.डे सम्मेलन में
भारत का प्रप्रतिनिधित्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने किया .इस सम्मेलन का आधार 20 साल पहले का रियो घोषणा
पत्र है. उसी आधार पर जलवायु परिवर्तन आदि विषयों पर चर्चा होनी है, लेकिन अब विकसित देशउन सभी नियमों को हटाना चाहते हैं, जो उनके खिलाफ जाते हैं. भारत इस मुद्दे पर विकासशील देशों के समूह
जी-77 के साथ है.
असली बात यह है कि अमेरिका सहित कई विकसित देश
चाहते हैं कि विकासशील देश अपने उद्योग-धंधों की रफ्तार कम करें और कार्बन
उत्सर्जन के स्तर को तेजी से नीचे लेकर आएं। लेकिन विकसित देश न तो आर्थिक सहयोग
देने को तैयार हैं और न ही तकनीकी सहयोग। कहने का मतलब विकासशील देश कितना एकतरफा
सहयोग करें। जबकि यह विश्व समुदाय की जिम्मेदारी है कि वह इस ढांचे को इस प्रकार
व्यावहारिक रूप दे जिससे हर देश पर्यावरण
संरक्षण के साथ –साथ अपनी
राष्ट्रीय प्राथमिकताओं और परिस्थिति के अनुरूप प्रगति कर सके। वास्तव में वैश्विक
स्तर पर समस्याओं को सुलझाने के लिए जिम्मेदारी में समान रूप से बंटवारा होना
चाहिए। सम्मेलन के फाइनल मसौदा बयान से स्पष्ट होता है कि विकसित देश गरीब
अर्थव्यवस्थाओं के स्थायी विकास की खातिर वित्तपोषण के बारे में कोई आंकड़े तय
करने में नाकाम रहे हैं। जबकि हमें मौजूदा दौर में आने वाले खर्च तथा भविष्य की
पीढ़ियों को होने वाले फायदे के बीच संतुलन की कल्पना करनी होगी।
भारत ‘हरित
अर्थव्यवस्था’ ग्रीन इकोनॉमी का पक्षधर है, जो इस सम्मेलन का लक्ष्य भी है, लेकिन वह चाहता
है कि इसमें विकासशील और विकसित दोनों देशों की भूमिका अनुपातिक हो. इसके अलावा
भारत चाहता है कि पहले रियो सम्मेलन के दौरान तय किये गये सभी वादों को पूरा करने
की दिशा में भी ठोस कदम उठाये जायें. भारत सीबीडीआर यानी कॉमन, बट डिफरेंशिएटेड रेसपांसिबिलिटी का भी सर्मथन करता है. यह स्थायी
विकास का महत्वपूर्ण हिस्सा है, दो 1992 के
रियो पृथ्वी सम्मेलन के संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण कानून के तौर पर सामने
आया था.
रियो+20 से कितनी है उम्मीद
रियो 1992 के बाद से पर्यावरण को लेकर राष्ट्रीय
व क्षेत्रीय स्तर पर तो काम में प्रगति हुई है, किंतु जब ये
देश वैश्रि्वक स्तर पर विमर्श करते हैं तो अविश्वास उभर कर सामने आ जाता है। पर्यावरण
के मुद्दों पर इसलिए मतभिन्नता है, क्योंकि धनी
देश सबके लिए विकास की वचनबद्धता से मुकर गए हैं। अब वे नई व्यवस्था बनाने के लिए
फिर से नई पहल करना चाहते हैं, किंतु इन
हरकतों से हमारी पृथ्वी नहीं बचेगी। कटु सच्चाई यह है कि जब तक विश्व अपने गहरे
मतभेदों को नहीं सुलझा लेता तब तक वैश्रि्वक कार्रवाई कमजोर और बेमानी सिद्ध होगी।
विकसित देश खुद को पर्यावरण अभियान के मिशनरी
बताते हैं और अन्य सभी को विश्वासघाती। सवाल यह है कि वैश्रि्वक स्तर पर पर्यावरण
बचाने के लिए और क्या-क्या किया जा सकता है? असलियत यह है
कि वैश्रि्वक पर्यावरण से जुड़ी तमाम समस्याओं, जिनमें जलवायु
परिवर्तन से लेकर स्वास्थ्य के लिए हानिकारक कचरे का निपटारा तक शामिल है, को लेकर अलग-अलग संधिया लागू हैं। सहभागिता और सहयोग के अंतरराष्ट्रीय
नियमों पर समानातर प्रक्रियाओं और संस्थानों के स्तर पर गंभीर मंथन किया जाये और
उससे सार्थक परिणाम निकले तो वह सभी के लिए बेहतर होगा .
1992 के पृथ्वी शिखर सम्मेलन में ही भविष्य के
विकास के तरीके को लेकर तसवीर खींची गयी थी. उस सम्मेलन के लक्ष्य अभी भी अधूरे
हैं. आज आपसी विवादों के समाधान की जरूरत है.
क्योटो प्रोटोकॉल अपना लक्ष्य पूरा करने में
नाकाम रहा है और क्योटो से आगे का रास्ता धुंधला बना हुआ है. कोपेनहेगेन और डरबन
सम्मेलनों में भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सका. आगे की राह चुनौती भरी है.
दुनिया को ऐसे वक्त शक्तिशाली नेतृत्व की जरूरत है, जो फिलहाल
दिखाई नहीं देता.
वर्तमान परिवेश में आज जरुरत इस बात की है कि
हम भविष्य के लिए ऐसा नया रास्ता चुनें जो
संपन्नता के आर्थिक, सामाजिक और
पर्यावरणीय पहलुओं तथा मानव मात्र के कल्याण के बीच संतुलन रख सके। हमें यह बाद
हमेशा याद रखना होगा कि "पृथ्वी हर आदमी की जरूरत को पूरा कर सकती है लेकिन
किसी एक आदमी के लालच को नहीं."
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