आनंद कुमार, संस्थापक, सुपर-30
इंजीनियरिंग की सिंगल प्रवेश
परीक्षा का विरोध करते हुए आईआईटी,
कानपुर की सीनेट ने अलग परीक्षाएं आयोजित करने का ऐलान कर अत्यंत
व्यावहारिक और सटीक फैसला किया है। आईआईटी, दिल्ली समेत कुछ
अन्य शीर्ष संस्थाओं के तेवर से भी लगता है कि केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री
ने बिना व्यापक विमर्श के इतना बड़ा कदम उठा लिया। बेवजह पैदा किए गए इस विवाद से
देश भर में इंजीनियरिंग की तैयारियों में जुटे लाखों छात्रों व अभिभावकों को इन
दिनों मानसिक दबाव व यंत्रणा झेलने को मजबूर होना पड़ रहा है।
इंजीनियरिंग की सिंगल प्रवेश
परीक्षा की थ्योरी उन चंद लोगों के दिमाग की उपज है, जिन्हें सदियों से अपने देश में ग्रामीण-शहरी
शैक्षिक गैर-बराबरी और दोहरी शिक्षा के भेदभाव का कोई भान नहीं है। तर्क यह दिया
जा रहा है कि सिंगल प्रवेश परीक्षा का नया पैटर्न गरीब बच्चों के लिए मददगार साबित
होगा। साथ ही कोचिंग संस्थाओं पर उनकी निर्भरता कम होगी। लेकिन क्या निर्धन बच्चों
को इस कदम से सचमुच कोई मदद मिल सकेगी? मौजूदा जमीनी हालात
को देखकर तो नहीं लगता कि आईआईटी प्रवेश परीक्षा की कोचिंग इंस्टीट्यूट्स पर
निर्भरता को इतनी आसानी से कम किया जा सकेगा। कोचिंग संस्थान तो पहले से ही इस
अवसर के लिए खुद को तैयार कर चुके हैं। उन्होंने छात्र-छात्रओं के लिए मुफीद पैकेज
भी तैयार कर लिए हैं।
केंद्रीय मानव संसाधन विकास
मंत्रलय की मानें, तो उसका
मुख्य उद्देश्य है कि बच्चों कोचिंग संस्थाओं की डगर पकड़ने की बजाय स्कूली पढ़ाई
पर ध्यान दें। कोचिंग की होड़ में शामिल होने की उन्हें जरूरत ही न पड़े। इसलिए
केंद्र सरकार की योजना छात्रों की बारहवीं की परीक्षा के अंकों को सबसे ज्यादा
महत्व देने की है। इसके अलावा एक एप्टिट्यूट टेस्ट यानी योग्यता परीक्षा और विषय
से संबंधित एक परीक्षा होगी। लेकिन ऐसा लगता है कि इससे छात्र कोचिंग संस्थानों के
जंजाल में और गहरे फसेंगे। उन्हें कोचिंग का सहारा लेकर तीन परीक्षाएं पास करनी
होंगी- एक 12वीं की, दूसरी मेन टेस्ट
की और तीसरी एड्वांस्ड टेस्ट की। इससे तो कोचिंग इंस्टीट्यूट्स को आप आईआईटी-जेईई
का सपना संजोने वाले बच्चों को सब्जबाग दिखाने के एक नहीं, तीन-तीन
कोचिंग पाने की अनिवार्यता मुफ्त में बांट रहे हैं। जाहिर-सी बात है, छात्रों को एप्टीट्यूड टेस्ट की तैयारी भी करनी होगी। जब आईआईएम की
परीक्षाओं के लिए सिर्फ एक ही टेस्ट है, तो फिर आईआईटी के
लिए झमेले करने की क्या जरूरत आन पड़ी?
शायद इसके पीछे सरकार की यह
सोच है कि छात्रों को कोचिंग इंस्टीट्यूट्स के हाथों शोषण से बचाने के लिए स्कूली
शिक्षा पर पूरा जोर लगाया जाए। यही कारण है कि 12वीं के अंकों को अधिक महत्व देने की बात की गई
है। ऊपर से सुनने में यह बहुत ही सटीक तर्क लगता है। लेकिन भारत जैसे मुल्क में,
जहां 36 राज्य शिक्षा बोर्ड हैं, क्या उनमें शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर एक समान है? क्या
जमीनी स्तर पर यह मुमकिन है कि सभी 36 राज्य शैक्षिक बोर्डो
के लिए समान नीति बनाई जाए? महाराष्ट्र तथा गोवा के स्कूल
बोर्ड में बच्चों100 प्रतिशत तक अंक ले आते हैं, वहीं बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में वे 70
से 80 प्रतिशत भी मुश्किल से ला पाते हैं।
इससे तो विभिन्न प्रदेशों के बीच सामान्य अंक पाने के अनुपात की पूरी प्रक्रिया ही
पेचीदा हो जाएगी।
यह हर शिक्षाविद् और
विशेषज्ञ बखूबी समझता है कि सभी स्कूलों में शिक्षा का स्तर एक समान नहीं है।
गरीबों और वंचितों को वही शिक्षा नहीं मिल पाती, जो बड़े स्कूलों के बच्चों को उपलब्ध होती है।
पढ़ाई के स्तर की बात तो छोड़िए, इन स्कूलों में बुनियादी
सहूलियतें तक छात्रों को मयस्सर नहीं हैं। ऐसी स्थिति में राज्य बोर्ड स्कूलों को
एलीट स्कूलों के समकक्ष कैसे रखा जा सकता है? यह तो निश्चय
ही वंचितों के पक्ष में नहीं है। आज कम से कम यह तो मुमकिन है कि वंचित छात्र किसी
तरह से एलीट स्कूलों से निकलने वाले अमीरों के बच्चों के साथ राष्ट्रीय स्पर्धा का
प्रयास कर रहे हैं। यह नई प्रणाली तो उन्हें स्पर्धा से बाहर ही कर देगी।
भारतीय आईआईटी छात्रों को
अंतरराष्ट्रीय बाजार में बहुत आदर से देखा जाता है। विदेशों में भी उनकी मांग उतनी
ही है, जितनी भारत
में है। लेकिन यह स्थिति अब ज्यादा दिनों तक बनी नहीं रह सकेगी। आईआईटी प्रोफेसर
भी यह मानने लगे हैं कि छात्र महंगी से महंगी कोचिंग लेकर यहां पहुंच रहे हैं।
जाने-माने विशेषज्ञ नारायण मूर्ति ने भी हाल ही में आईआईटी ग्रेड्स पर प्रश्नचिन्ह
लगाया था। लेकिन प्रश्न यह है कि कोचिंग इंस्टीट्यूट्स पर निर्भरता इतनी क्यों बढ़
रही है? आईआईटी में क्यों ऐसे प्रश्न पूछे जाते हैं कि
छात्रों को कोचिंग इंस्टीट्यूट्स का दरवाजा खटखटाना पड़ता है? ऐसे सवालों का औचित्य ही क्या है? सच्चई तो यह है कि
आईआईटी-जेईई में ऐसे सवाल किए जाते हैं, जो प्लस टू स्तर के
न होकर उससे भी कहीं ऊपर के स्तर के होते हैं। ऐसे में व्याकुल अभिभावकों के लिए
अपने बच्चों को कोचिंग इंस्टीट्यूट्स भेजने के अलावा और कोई चारा नहीं बचता। उनकी
मजबूरी यह है कि जिन स्कूलों से वे पढ़कर निकले हैं, वहां उन
सवालों से जुड़े पाठ्यक्रम कोर्स में नहीं होते।
इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि
कोचिंग इंस्टीट्यूट्स के बढ़ते प्रभुत्व को कम नहीं किया जा सकता। इसके पहले पूरे
देश में स्कूली शिक्षा के स्तर में ग्रामीण-शहरी गैर-बराबरी को पूरी तरह से खत्म
करना होगा। गांव के छात्रों को वैसी ही सुविधाएं मिलें, जो शहरी भारत में मिल रही हैं। आईआईटी
अपने प्रश्न पत्रों को केवल कक्षा 11-12 के स्तर तक सीमित
रखे। निस्संदेह, आईआईटी प्रोफेसर विद्वान होते हैं, लेकिन वे कक्षा 11-12 के पाठ्यक्रम से उतने रूबरू
नहीं होते। वे उच्च दर्जे के प्रश्न पूछते हैं। बेहतर होगा कि वे प्रश्नपत्र बनाते
समय सीबीएसई विशेषज्ञों की सलाह लें, जिससे आईआईटी-जेईई में
पूछे जाने वाले सवाल कक्षा 11-12 के पाठ्यक्रम से मेल खाते
हों। इससे हरेक प्रांत या क्षेत्र के बच्चों को एक
समान मौका मिलेगा और उन्हें कोचिंग की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। वे स्कूल की पढ़ाई का
महत्व भी समझोंगे।
एक अन्य कदम यह उठाया जा
सकता है कि आईआईटी में नंबर ऑफ अटेंप्ट्स को भी बढ़ाकर तीन किया जाए, ताकि गरीब छात्र भी आईआईटी में प्रवेश
पा सकें। वर्तमान में छात्रों को केवल दो अवसर मिलते हैं। बड़े स्कूलों में
उत्तीर्ण होने वाले बच्चों के लिए तो यह काफी है, लेकिन
ग्रामीण और गरीब घरों के बच्चों के लिए नहीं, जिन्होंनेअभावों
के बीच अधकचरी शिक्षा प्राप्त की। जब शिक्षा के महत्व को हर व्यक्ति जानने-समझने
लगा है, तो ऐसे में क्यों न सभी के लिए बेहतरीन शिक्षा की
व्यवस्था की जाए?)(साभार -हिंदुस्तान )
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