Monday 21 May 2012

ईश्वर कण की खोज


'ईश्वर कण' की खोज का प्रयास 'लार्ज हेड्रान कोलाइडर' की मदद से हो रहा है जिसमें दस अरब डालर (विश्व का सर्वाधिक खर्चीला वैज्ञानिक प्रयोग) लग चुका है। 'ईश्वर कण' 'हिग्ग्ज़ कण' का ही लोकप्रिय नाम है। १९६४ में पीटर हिग्ग्ज़ ने इसकी परिकल्पना में कहा कि ब्रह्माण्ड में सब जगह हिग्ग्ज़ क्षेत्र और हिग्ग्ज़ कण व्याप्त हैं। और नोबेल सम्मानित वैज्ञानिक लेओन लेडरमैन ने इसके मह्त्व को देखते हुए इसे 'ईश्वर कण' की संज्ञा दी थी। इस 'ईश्वर कण' के दर्शन अभी तक नहीं हो सके हैं। कुछ वैज्ञानिक इसके होने में भी संदेह करते हैं। स्टीफ़ैन हाकिंग ने हिग्ग्ज़ से १०० डालर की शर्त लगा ली है कि यह नहीं दिखेगा।
यह प्रयोग भी अद्वितीय है और अद्भुत है क्योंकि इसे स्विस और फ़्रैन्च भूमि के १०० मीटर के नीचे २७ किलो मीटर गोल सुरंग में किया जा रहा है। इस सुरंग में प्रोटान और न्य़ूट्रान परमाण्विक कणों को लगभग प्रकाश के वेग पर पहुँचाकर उनमें टक्कर कराई जाती है, और फ़िर उनसे उत्पन्न नए कणों की 'आतिशबाजी' का सूक्ष्म अध्ययन किया जाता है। प्रोटान और न्य़ूट्रान जैसे भारी परमाण्विक कण 'हेड्रान' कहलाते हैं। इसीलिये इस भूमिगत 'महाचक्र' का नाम 'लार्ज हेड्रान कोलाइडर' ( विशाल हेड्रान संघट्टक) है। इससे सभी वैज्ञानिकों को बड़ी बड़ी आशाएं हैं, और अन्य बहुत मह्त्वपूर्ण खोजों में इससे सहायता मिलेगी।
इस समय इसका प्रमुख लक्ष्य है 'ईश्वर कण' की खोज।   क्या है यह ईश्वर कण ?
डा. हिग्ज़ की संकल्पना है कि समस्त दिक में, शून्य में भी, एक 'क्षेत्र' (फ़ील्ड) है, जो, उपयुक्त दशाओं में पदार्थों को द्रव्यमान देता है। जिस भी कण में द्रव्यमान है, उसे वह हिग्ग्ज़ क्षेत्र से प्रतिक्रिया करने पर प्राप्त हुआ है। अर्थात यदि हिग्ग्ज़ क्षेत्र नहीं होता तो हमें यह समझ में ही नहीं आता कि पदार्थों में द्रव्यमान कैसे आता है। हिग्ग्ज़ क्षेत्र में 'हिग्ग्ज़' कण होता है जिसे 'हिग्ग्ज़ बोसान' कहते हैं।
क्या है यह 'हिग्ग्ज़ बोसान'?
ब्रह्माण्ड में कुछ मूल कण हैं जैसे इलैक्ट्रान, क्वार्क, न्यूट्रिनो आदिऔर कुछ संयुक्त कण, जैसे प्रोटान, न्यूट्रान आदि, जो इन मूल कणों के संयोग से निर्मित होते हैं। सारे पदार्थ इऩ्ही मूल कणों तथा संयुक्त कणों से निर्मित हैं। हिग्ग्ज़ क्रिया विधि से पदार्थों में द्रव्यमान आता है जिससे उनमें गुरुत्व बल आता है। इसे सरलरूप में समझने के लिये मान लें कि हिग्ग्ज़ क्षेत्र 'शहद' से भरा है। अब जो भी कण इसके सम्पर्क में आएगा, उसमें उसकी क्षमता के अनुसार शहद चिपक जाएगी, और उसका द्रव्यमान बढ़ जाएगा। यह 'हिग्ग्ज़ बोसानमूलकण भौतिकी के अनेक प्रश्नों के सही उत्तर दे रहा है, और भौतिकी के विकास में यह मह्त्वपूर्ण स्थान रखता है, किन्तु इसे अभी तक देखा नहीं जा सका है। इसके नाम में हिग्ग्ज़ के साथ बोस का नाम क्यों जोड़ा गया ?
सत्येन्द्र नाथ बसु विश्व के प्रसिद्ध वैज्ञानिक हुए हैं। जिऩ्होंने एक प्रकार के मूल कणों के व्यवहार के सांख्यिकी सूत्र आइन्स्टाइन को लिख कर भेजे, क्योंकि उऩ्हें आशंका थी कि उनकी क्रान्तिकारी बात को अन्य वैज्ञानिक समुचित महत्व न दें। उस समय केवल 'फ़र्मियान' कण का ही व्यवहार समझा गया था, जो कि वे मूल कण हैं जो 'फ़र्मी - डिरैक' सूत्रों के अनुसार व्यवहार करते हैं। आइन्स्टाइन ने बसु के सूत्रों को संवर्धित कर प्रकाशित करवाया। उनके सूत्र इतने क्रान्तिकारी थे कि उन मूल कणों का नाम, जो उनके सूत्रों के अनुसार व्यवहार करते हैं,  'बोसान' रखा गया। अर्थात अब व्यवहार की दृष्टि से मूल कण दो प्रकार के माने जाने लगे - 'फ़र्मियान' तथा 'बोसान'। और 'ईश्वर कण' या 'हिग्ग्ज़ कण' जिसकी खोज चल रही है मूलत: बोसान कण है। अत: उसका नामकरण हुआ 'हिग्ग्ज़ बोसान' !
ब्रह्माण्ड में कुल चार प्रकार के ही बल मूल हैं, तीव्र बल, दुर्बल बल, विद्युत चुम्बकीय बल तथा गुरुत्व बल। जब चारों एकीकृत हो जाएंगे तब 'आइन्स्टाइन का 'एकीकृत क्षेत्र सिद्धान्त' का स्वप्न भी साकार हो जाएगा। हिग्ग्ज़ बोसान को समझने से गुरुत्वबल को समझने में और उसके अन्य तीन मूल बलों के साथ संबन्ध समझने में मदद मिलेगी।
दोनों आपेक्षिक सिद्धान्त ब्रह्माण्ड के विशाल रूप को ही समझा पाते हैं, और  क्वाण्टम भौतिकी केवल अणु के भीतर के सूक्ष्म जगत को। एक सौ वर्षों के बाद भी अभी तक इनमें सामन्जस्य पैदा नहीं कर पाए हैं। यह प्रयोग क्वाण्टम भौतिकी तथा व्यापक आपेक्षिक सिद्धान्त में भी बहुप्रतीक्षित सामंजस्य पैदा कर सकेगा।
ब्रह्माण्ड में हमें जितना भी पदार्थ दिख रहा है वह कुल का मात्र ४ % है, २३ % अदृश्य पदार्थ है और ७३ % अदृश्य ऊर्जा है। यह प्रयोग इस अदृश्य ऊर्जा तथा अदृश्य पदार्थ को समझने में भी मदद करेगा।
अत:  इसे 'ईश्वर कण' कह देना अवैज्ञानिक हो सकता है, अतिशयोक्ति तो नहीं हैक्योंकि यह नाम उसका विशेष मह्त्व दर्शाता है। यह तो स्पष्ट है कि यदि ईश्वर कण दिख भी गया, तब भी वैज्ञानिक ईश्वर में विश्वास करने नहीं लग जाएंगे ।
महान विस्फ़ोट के एक सैकैण्ड के एक अरबवें हिस्से में क्या हो रहा था इसकी एक झलक सूक्ष्म रूप में यह प्रयोग दिखला सकता है।  
महान विस्फ़ोट के एक सैकैण्ड के भीतर, जब तापक्रम बहुत ठंडा होकर लगभग १००० अरब सैल्सियस हुआ, तब जो ऊर्जा थी वह कणों में बदलने लगी थी। तब उस समय की प्रक्रिया को समझने के लिये हमें महान विस्फ़ोट पैदा करना होगा, वह तो ब्रह्माण्ड को भस्म कर देगा, किन्तु यह प्रयोग एक अति सूक्ष्म विस्फ़ोट पैदा करेगा ! इसके लिये सीसे के नाभिकों को निकट प्रकाश वेग पर यह 'महाचक्र' (विशाल हेग़्रान संघट्टक) टक्कर कराएगा। उस क्षण उन कणों में जो ऊर्जा रही होगी, वही ऊर्जा प्रकाश वेग निकट से चलने वाले हेड्रान कणों में होती है। इस तरह हेड्रान कणों को समझने से हमें यह समझ में आ सकेगा कि ब्रह्माण्ड का उद्भव और विकास किस प्रक्रिया से हुआ था, तब हम आज की बहुत सी वैज्ञानिक समस्याओं को समझ सकते हैं, प्रकृति के नियमों को बेहतर समझ सकते हैं। यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं है कि हम इस विशाल जगत को बेहतर समझ सकते हैं यदि हम सूक्ष्म जगत को समझ लें, और इसका विलोम भी सत्य है कि विशाल जगत को समझने से हम सूक्ष्म जगत बेहतर समझ सकते हैं। अर्थात दोनो में सामन्जस्य का होना बहुत आवश्यक है। यह सिद्धान्त आध्यात्मिक आयाम में भी सत्य है; यदि अमृतत्व प्राप्त करना है, तब विद्या भी आवश्यक है और अविद्या भी ।
महान विस्फ़ोट में जब ऊर्जा कणों में बदलने लगी तब कण तथा 'प्रतिकण', जैसे इलैक्ट्रान और पाज़ीट्रानबराबर मात्रा में उत्पन्न हुए थे; किन्तु अब तो प्रतिकण नज़र ही नहीं आते। कहां गए, क्या हुआ उनका, इसकी भी छानबीन यह 'महाचक्र' करेगा।
सर्न ( यूरोपीय नाभिकीय अनुसंधान केन्द्र)  स्थित इस महाचक्र यंत्र में अद्वितीय़ तथा अकल्पनीय प्रयोग हो रहे हैं, 'ईश्वर कणकी खोज हो रही है। इसमें ऊर्जा की अकल्पनीय मात्रा से लदे प्रोटानों की टक्कर की‌ जा रही है। इसमें कुछ वैज्ञानिक बड़े खतरे की संभावना की चेतावनी दे रहे हैं कि इस टक्कर से 'कृष्ण विवर'  (ब्लैक होल) उत्पन्न होंगे, जो पृथ्वी को ही लील जाएंगे। सर्न के वैज्ञानिक कहते हैं कि वे इस खतरे को समझते हैं और अधिक से अधिक वह कृष्ण विवर कुछ ही क्षणों में फ़ूट जाएगा और आसपास के कुछ कणों को ध्वस्त कर सकेगा। और न केवल इस प्रक्रिया के दर्शन से कृष्ण विवर के गुणों का भी अध्ययन हो सकेगा, वरन यह भी कि क्या दिक के तीन से भी अधिक आयाम हैं, और क्या गुरुत्व का कुछ प्रभाव उन आयामों में बँट जाता है !
३० मार्च १० के प्रयोग में 'महाचक्र' ने ३.५ TeV टेरा (३५ खरब इवो)  इलेक्ट्रान वोल्ट ऊर्जा के प्रति कणों की टक्कर कराने का एक विश्व कीर्तिमान स्थापित किया है। टेरा इवो को समझने के लिये एक उपमा सहायक होगी। जब एक प्रोटान की ऊर्जा १ टेरा इवो होती है तब उसका द्रव्यमान स्थिर दशा की अपेक्षा १००० गुना बढ़ जाता है ! अर्थात जब एक प्रोटान के वेग को इतना बढ़ाया जाए कि उसकी ऊर्जा ३.५ टेरा इवो हो जाए, तब उसका द्रव्यमान बढ़कर ३५०० गुना हो जाएगा ! किन्तु महत्वपूर्ण परिणाम देखने के लिये ७ टेरा इ. वो. (TeV)  प्रति कण की ऊर्जा चाहिये, जिसकी तैयारी‌ चल रही है। और सीसे के नाभिक की टक्कर के लिये तो ५७४ TeV प्रति नाभिक की ऊर्जा चाहिये होगी। सूक्ष्म विस्फ़ोट के लिये भी बहुत सम्हलकर चलना पड़ता है।
और यदि स्टीफ़ैन हाकिंग अपनी शर्त जीतते हैं, तब भी वैज्ञानिकों को बहुत निराशा नहीं होगी, क्योंकि विज्ञान के मह्त्वपूर्ण प्रयोगों में नकारात्मक परिणाम भी मह्त्व, शायद अधिक महत्व, रखते हैं। ऐसे में क्रान्तिकारी परिकल्पनाएं सामने आती‌ हैं, जैसे कि आइन्स्टाइन की विशेष आपेक्षिक सिद्धान्त की `१९०५' में आई थी जब १८८७ में माईकिल्सन मोर्ले ईथर के अस्तित्व को सिद्ध नहीं कर सके थे।
भगवान भला करें उस वैज्ञानिक का जिसने एक अज्ञात कण को 'ईश्वर कण' का नाम दिया। वरना ऐसे समाचार पत्र कम ही हैं जो विज्ञान के प्रयोगों के समाचार देते हैं।

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