पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूएनएड्स की ताजा
रिपोर्ट के मुताबिक हमारे देश में पिछले एक दशक में एचआईवी संक्रमण के नए मामलों
में 56 प्रतिशत की कमी आई है। जिस तरह
से एड्स के आंकड़ों के मामले में पिछले कुछ वर्षों में कुछ गैरसरकारी संगठनों ने
विदेशी फंडिंग हासिल करने के लिए एड्स संक्रमित लोगों के आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर पेश
किए, उसे देखते हुए किसी भी आंकड़े
पर सहज विश्वास करना मुश्किल लगता है। लेकिन चूंकि यह आंकड़ा संयुक्त राष्ट्र की
संस्था द्वारा जारी किया गया है, इसलिए इस पर
विश्वास किया जा सकता है। हमारे जैसे पारंपरिक समाज में अगर पिछले एक दशक में बढ़ी
जागरूकता के कारण संक्रमण में इतनी तेजी से गिरावट आई है, तो यह निश्चय ही एक बड़ी उपलब्धि है। मगर इस रिपोर्ट में एक
और खुलासा किया गया है कि जहां सेक्स वर्करों में नए संक्रमण में गिरावट दर्ज की
गई है, वहीं समलैंगिक पुरुषों में नए
संक्रमण के मामले बढ़े हैं। बेशक पिछले वर्ष एक स्वयंसेवी संगठन की याचिका पर
सुनवाई करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से
मुक्त कर दिया, लेकिन अब भी व्यापक समाज में
ऐसे संबंधों को मंजूरी नहीं मिली है। ऐसे संबध बनाने वाले को न केवल हेय नजर से
देखा जाता है, बल्कि उसे उसका एक तरह से
सामाजिक बहिष्कार तक कर दिया जाता है। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि समलैंगिक संबंध
बनाने वाले लोगों की एक बड़ी आबादी समाज में छिपकर रहती है, जिसके पास एचआईवी संक्रमण से
जुड़ी जानकारियां नहीं पहुंच पाती हैं। जानकारी के अभाव में ऐसे लोग संक्रमण से
बचने के लिए जरूरी उपाय को नहीं अपना पाते हैं। इसके अलावा एचआईवी संक्रमित लोगों
के प्रति भी हमें संवेदनशील होना पड़ेगा। एड्स से जुड़ी कई तरह की भ्रांतियां समाज
में आज भी मौजूद हैं, जिन्हें दूर किए
जाने की जरूरत है। हमें समझना होगा कि एचआईवी का संक्रमण केवल असुरक्षित यौन संबंध
से ही नहीं, बल्कि संक्रमित खून व सूई के
उपयोग से भी होता है। अगर हमें इस बीमारी से समाज को मुक्त रखना है, तो जागरूकता फैलाने के साथ-साथ
चिकित्सीय कचरे के निपटारे की मुकम्मल व्यवस्था करनी होगी, तभी यह खुशी स्थायी रह पाएगी।
अगर हमें इस बीमारी से अपने समाज को मुक्त रखना है, तो जागरूकता फैलाने के साथ-साथ
चिकित्सीय कचरे के निपटारे की भी मुकम्मल व्यवस्था करनी होगी।
अच्छी खबर यह है कि एचआईवी एड्स के प्रकोप में इस
वर्ष भारी कमी आई है। पिछली शताब्दी के अंतिम वर्षों में एड्स का प्रकोप सबसे
भयावह था। पिछले दशक में हर वर्ष लगभग 22 लाख लोग एड्स से मर रहे थे, अब यह तादाद 18 लाख हो गई है। 1997 की तुलना में एड्स के नए मरीजों की तादाद भी 21 प्रतिशत कम हुई है। अगर इसी गति से एड्स नियंत्रण का
काम चलता रहा, तो दुनिया को एड्स मुक्त बनाना दूर की कौड़ी नहीं
होगी। एड्स के नियंत्रण में कई चीजों की भूमिका है। लोगों को शिक्षित व जागरुक
करना, सुरक्षित यौन व्यवहार के प्रचार के साथ एड्स की दवाओं
ने भी उसका हौवा काफी कम किया है। मध्य और दक्षिण अफ्रीकी देश एड्स से सबसे ज्यादा
प्रभावित हैं। हालांकि सभी एड्स के मरीज अब भी इलाज नहीं पा रहे हैं, लेकिन गरीब देशों में भी अब आधे से ज्यादा मरीजों को
दवाएं मिल रही हैं। इससे हर साल तकरीबन 25 लाख लोगों को मौत के मुंह से बचाया जा सका है। लेकिन यह सफलता जरा नाजुक वक्त
पर आई है। दुनिया के तमाम अमीर देश मंदी से जूझ रहे हैं और एड्स से लड़ने के लिए
धन में काफी कटौती होती दिख रही है। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि एड्स के लिए
तकरीबन 2,200 करोड़ डॉलर की जरूरत है, लेकिन अब तक 1,600 करोड़ डॉलर का ही इंतजाम हो पाया है। अगर धन की कमी
से इस कार्यक्रम में बाधा आई, तो सफलता की यह कहानी संदिग्ध हो जाएगी। लेकिन नए
आंकड़ों से उत्साहित होकर हो सकता है कि दानदाता अपनी थैलियों का मुंह जरा ज्यादा
खोल लें। आखिर कौन चाहेगा कि लगभग नियंत्रण में आती दिख रही ऐसी खतरनाक बीमारी फिर
से अनियंत्रित हो जाए।
एड्स तो लगभग तीस वर्ष पहले पाई गई बीमारी है, लेकिन मलेरिया और टीबी जैसी हजारों साल पुरानी
बीमारियां हैं, जो नियंत्रण के बाहर हैं। लंबे
वक्त से इन बीमारियों के नियंत्रण के तरीके भी मालूम हैं और इनका प्रभावशाली इलाज
भी उपलब्ध है। इसके बावजूद ये बीमारियां लाखों लोगों की जिंदगी को दूभर किए हुए
हैं। एड्स को लेकर विश्वव्यापी अभियान की प्रमुख वजह यह भी थी कि यह बीमारी सबसे
पहले अमेरिका में देखी गई थी और पश्चिमी देशों को यह डर था कि अगर इस पर काबू नहीं
पाया गया, तो यह बीमारी उनके समाज के लिए
मुसीबत बन जाएगी। शुरुआत में यह भी मान लिया गया था कि यह बीमारी अफ्रीका में पैदा
हुई और फिर पश्चिम पहुंची। यह भी सच है कि अनेक वजहों से एड्स की भयावहता के
आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया। मसलन, 1990 के आसपास कई विशेषज्ञ यह दावा कर रहे थे कि 15-20 साल में कई अफ्रीकी देशों की
आबादी पूरी तरह तबाह हो जाएगी। ऐसा कुछ नहीं हुआ, लेकिन अब दूसरा खतरा यह है कि एड्स विरोधी कार्यक्रम
की सहायता में धनी दानदाता शायद लापरवाही बरतें। एड्स नियंत्रण कार्यक्रम के कुछ
दूसरे अच्छे नतीजे भी दिखे। एड्स के साथ-साथ टीबी और मलेरिया जैसी बीमारियों से
जूझने के लिए भी साधन मिल पाए। बिल और मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन का शुरुआती जोर एड्स
पर ही था, लेकिन फिलहाल अफ्रीका में
मलेरिया से जूझने में यह फाउंडेशन बड़ी भूमिका निभा रहा है, साथ ही टीबी के नियंत्रण के लिए
भी ऐसे संगठन कोशिश कर रहे हैं। अगर इस सबसे सीख लेनी है, तो भारत जैसे देशों को लेनी चाहिए, जहां साधनों का नहीं, इच्छाशक्ति का अभाव ज्यादा है।
अगर एड्स को नियंत्रित किया जा सकता है, तो क्या हम अपने देश के बच्चों को उन आम संक्रमण का
शिकार होने से नहीं बचा सकते, जिसमें बहुत ज्यादा संसाधनों की जरूरत नहीं है।
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