इस समय विश्वविद्यालयों में शोध की बाढ़-सी आ गई है। पिछले कुछ महीने शोध
पर होने वाले सेमिनारों का जो कुछ अनुभव हासिल किया, उससे पता चलता है कि
इस समय छात्रों से ज्यादा शिक्षक शोध में जुटे हैं। विश्वविद्यालयों और
कॉलेजों में प्रोफेसर और लेक्चरर ज्यादा से ज्यादा शोधपत्र प्रकाशित करने
के जुगाड़ में लगे हैं। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सेमिनारों में शोधपत्र
पढ़े जाने की होड़ लगी है। यह सब कुछ एकबारगी यह सोचने पर मजबूर करता है कि
क्या वास्तव में भारत में लोग शोध को लेकर इतने जागरूक हो गए हैं या मामला
कुछ और है?
हमारे देश में अकादमिक शोध करने-कराने की एक बड़ी जिम्मेदारी विश्वविद्यालय
अनुदान आयोग यानी यूजीसी पर है। यूजीसी देश में उच्च शिक्षा के मापदंड तय
करने के साथ ही विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और अन्य संस्थाओं को शिक्षा और
शोध के लिए अनुदान भी उपलब्ध कराता है। यह शोध के नियमों को भी तय करता है
और शोध के लिए जरूरी सहायता भी देता है। इसलिए देश में इस समय जैसे भी शोध
हो रहे हैं, एक तरह से उसकी जिम्मेदारी यूजीसी की बनती है। पूरी बेबाकी से
कहा जा सकता है कि भारत के विश्वविद्यालयों और उच्च शैक्षणिक संस्थानों में
गंभीर शोध संस्कृति का पूरी तरह से अभाव है। भारत में वैसे भी उच्च शिक्षा
में आने वाले छात्रों की संख्या बहुत कम है।
यूजीसी की उच्च शिक्षा पर आधारित दिसंबर 2011 की रिपोर्ट के मुताबिक 86
प्रतिशत छात्र स्नातक की पढ़ाई करते हैं और इसमें से केवल 12 प्रतिशत
परास्नातक या पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी कर पाते हैं। शोध का हाल तो और
भी बुरा है। उच्च शिक्षा पाने वालों में से केवल एक प्रतिशत छात्र ही शोध
करते हैं। दिसंबर 2011 तक भारत में करीब 81 हजार छात्र और केवल 56 हजार
छात्राएं शोध से जुड़े हैं। बहरहाल किन विषयों पर शोध हो रहा है और समाज के
लिए उसकी क्या उपयोगिता है, इसका मूल्यांकन करने वाला कोई नहीं है। इसके
उलट यूजीसी के कई सारे ऐसे प्रावधान हैं, जो गंभीर शोधपरक संस्कृति के
विकास में रुकावट डालते हैं।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की दिसंबर 2011 की रिपोर्ट के मुताबिक देश भर
में करीब 634 विश्वविद्यालय और करीब 33,023 उच्च शैक्षणिक संस्थान चल रहे
हैं। 229 विश्वविद्यालय या तो डीम्ड हैं या निजी हैं। 297 विश्वविद्यालय
राज्य सरकारों के मातहत हैं। 43 केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं और करीब 63
सरकारी उच्च शैक्षणिक संस्थान हैं। यह बताना इसलिए भी जरूरी है कि इन सभी
विश्वविद्यालयों में शिक्षण और शोध पर यूजीसी हर वर्ष करोड़ों रुपये खर्च
करती है। वर्ष 2009-10 में उच्च शिक्षा पर कुल जीडीपी का 1.25 प्रतिशत खर्च
हुआ। यह रकम कमोबेश यूजीसी के मार्फत ही विश्वविद्यालयों तक पहुंचती है।
इस रकम का क्या और कैसे उपयोग हो रहा है इसका मूल्यांकन निश्चित तौर पर
किया जाना चाहिए। मूल्यांकन केवल इस आधार पर नहीं किया जा सकता है कि उच्च
शिक्षा की तरफ छात्रों का रुझान घट रहा है या बढ़ रहा है, बल्कि जरूरी यह
भी है कि जो उच्च शिक्षा दी जा रही है क्या वाकई में वह किसी काम के लायक
है।
यूजीसी ने असिस्टेंट प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर पर कार्यरत लोगों के लिए
पदोन्नति के कड़े मापदंड तय किए हैं। इसमें इन लोगों को पदोन्नति तभी दी
जाएगी जब उनके निश्चित किए गए कार्यकाल में कुछ शोधपत्र प्रकाशित हुए हों,
राष्ट्रीय-अंतरराश्ष्ट्रीय सेमिनारों में उन्होंने शोध पत्र पढ़े हों अथवा
कोई किताब लिखी हो। इन सबके लिए अलग-अलग नंबर निर्धारित है। असिस्टेंट
प्रोफेसर को एसोसिएट होने के लिए 300 नंबर जुटाने होते हैं। शोध संस्कृति
को बढ़ावा देने और शिक्षकों को उनके विषय से जोड़े रखने के लिए यह एक
प्रभावी कदम हो सकता था, लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है।
दरअसल, इस नियम के चलते इस वर्ष मार्च महीने में ढेर सारे सेमिनार आयोजित
हुए। कुछ कॉलेजों ने एक दो विदेशी लोगों को बुलाकर अंतरराष्ट्रीय सेमिनार
कर डाले। इन सेमिनारों में पहले शोध छात्र उत्साह से भाग लेते थे, लेकिन अब
ज्यादातर सेमिनारों में शिक्षक ही छाए रहते हैं। पहले जहां 20-25 शोध पत्र
आते थे, वहीं अब एक-एक सेमिनार में 200 से ज्यादा शोध पत्र आ रहे हैं। इसी
तरह से राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट) पास कर छात्र शोध करने की वैधता
तो हासिल कर लेते हैं, लेकिन उनसे क्या शोध कराया जा रहा है और क्यों कराया
जा रहा है यह सोचना जरूरी होगा।
विश्वविद्यालयों में शोध की एक परिपाटी चली आ रही है। शोध करने वाले और
कराने वाले एक से विषय के इर्द-गिर्द ही 60 सालों से घूम रहे हैं। मसलन
हिंदी में एक आम विषय होता है फलां कवि या कवयित्री की कविताओं में
सौंदर्यबोध। शोध करने वाले और कराने वालों के लिए यह कतई महत्वपूर्ण नहीं
होता कि उस शोध का समाज के लिए क्या महत्व है। एक शोध पूरा करके शिक्षक
बनना चाहता है तो दूसरा पदोन्नति पाना चाहता है। पहले से मौजूद ढेर सारी
किताबों में कुछ इधर-उधर से उठाकर नया शोध पत्र तैयार कर दिया जाता है।
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में पत्रकारिता व जनसंचार
विभाग के अध्यक्ष अनिल अंकित राय जैसे कई सारे प्रोफेसर चुराकर किताबें
लिखने के लिए बदनाम रहे हैं। ऐसे में गंभीर शोध संस्कृति की उम्मीद नहीं की
जा सकती।
किसी समाज के स्वतंत्र विकास में उसके अपने ज्ञान के भंडार का महत्व होता
है। स्वतंत्र समाज अपनी आवश्यकताओं के मुताबिक नई-नई खोजें करता है। समाज
में शोध की संस्कृति स्वाभाविक रूप से मौजूद होती है। उसे किसी तरह के
प्रमाण की जरूरत नहीं होती, लेकिन जब ज्ञान और शोध को किसी खास ढांचे में
बांध दिया जाता है तो वह स्वतंत्र नहीं रह जाता। ज्ञान का भंडार समाज के
अपने अनुभवों के बजाय थोपा हो तो वह वास्तव में ज्ञान नहीं रह जाता। जिस
समाज में ज्ञान और शोध की संस्कृति पिछलग्गू हो, वहां पूरी की पूरी एक
पिछलग्गू पीढ़ी ही तैयार होती है। इसमें सीधे तौर पर उस पीढ़ी का कोई दोष
नहीं है।
समाज की दशा और दिशा उसकी राजनीतिक चेतना से तय होती है। राजनीतिक चेतना के
अभाव में समाज को.. ..विजय प्रताप
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