Tuesday 8 May 2012

ऊर्जा क्षेत्र का नया विकल्प कितना सार्थक


ऊर्जा के विकल्प के रूप में अक्षय ऊर्जा स्रेतों को केवल बढ़ाना पर्याप्त नहीं अपितु इस बारे में भी इस पर भी गंभीरता से सोचना जरूरी है कि उन्हें किस तरह बढ़ाया जाए। कारण, अक्षय ऊर्जा स्रेतों को आगे बढ़ाने के गलत-सही दोनों तरह के तरीके मौजूद है ग्रामीण क्षे त्रों को पूरी प्रतिबद्धता से अक्षय ऊर्जा स्रेतों की ओर बढ़ना चाहिए और ग्रामीण ऊर्जा नीति को इस नई राह पर ले जाने के लिए सरकार को यथासंभव सहायता उपलब्ध करवानी चाहिए
जहां एक ओर भारत जैसे अनेक विकासशील देश तेल व गैस की अपर्याप्त उपलब्धि से उत्पन्न अनेक कठिनाइयों से जूझ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर ऊर्जा क्षेत्र में कई नई उम्मीदें भी बन रही हैं जिनका उचित उपयोग किया जाए तो कठिन दौर में भी ऊर्जा संकट से काफी हद तक निबटा जा सकता है। भारत में तेल और गैस की सीमित उपलब्धि के कारण आयात पर अधिक निर्भरता रही है और विदेशी भुगतान के लिए तेल का आयात एक बड़ा बोझ बना रहा है। दूसरी ओर विदेश नीति व रणनीतिक कारणों का प्रतिकूल असर भी तेल व गैस आयात पर पड़ सकता है। उदाहरण के लिए ईरान से पाकिस्तान की राह भारत आने वाला पाइप लाइन प्रोजेक्ट आगे नहीं बढ़ सका और भविष्य में ईरान से तेल आयात में कुछ नई समस्याएं भी उत्पन्न हो सकती हैं। वैसे यह समस्याएं न भी हों, तो ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की जिम्मेदारियों को निभाने के लिए भी अब तेल, गैस व कोयले की खपत को सीमित करना जरूरी होता जा रहा है। यह अलग मुद्दा है कि ग्रीन हाउस गैसों को कम करने की अधिक जिम्मेदारी विकसित देशों की है पर यह तो अब दुनिया भर में माना जा रहा है कि जलवायु बदलाव का संकट खतरनाक हद तक आगे बढ़ गया है व इस कारण आज नहीं तो कल सभी को तेल व कोयले के उपयोग को सीमित करने के प्रयास विभिन्न स्तरों पर करने ही होंगे। ऊर्जा क्षेत्र की इस चिंताजनक स्थिति में उम्मीद तो अक्षय ऊर्जा स्रेतों की ओर से ही नजर आ रही है। एक समय था जब परमाणु ऊर्जा को विकल्प के रूप में काफी महत्त्व दिया गया था। पर समय बीतने के साथ इसके बहुत से खतरे स्पष्ट होते गये। इन सब जोखिमों को दूर करने की जरूरत जैसे-जैसे स्पष्ट हुई, वैसे-वैसे इसका खर्च भी बढ़ता गया। अब तो परमाणु ऊर्जा को काफी खर्चीला माना जा रहा है साथ ही बेहद खतरनाक भी। यही कारण है कि भविष्य में अधिक उम्मीद अब अक्षय ऊर्जा स्रेतों से ही की जा रही है। अक्षय ऊर्जा स्रेतों से की जा रही यह उम्मीद उचित तो है पर साथ में कुछ सावधानियों की ओर ध्यान दिलाना भी जरूरी है। अभी अक्षय ऊर्जा भारत जैसे देश में अपने आरंभिक चरण में ही है। यदि अभी से इसके प्रसार में जरूरी सावधानियां अपना ली गईं, तो हमें बहुत अच्छे परिणाम मिल सकते हैं पर यदि इन सावधानियों की उपेक्षा की गई तो यह बहुत महंगा सौदा भी साबित हो सकता है। अक्षय ऊर्जा स्रेतों में हाल के वर्षो में सर्वाधिक चर्चा सौर ऊर्जा की रही है। यह सही है कि सौर ऊर्जा से बहुत उम्मीदें हैं और इसका भविष्य उज्ज्वल है पर साथ ही यह बताना भी जरूरी है कि बड़े स्तर के सौर बिजली उत्पादन में भी विस्थापन व अन्य खतरों की संभावनाएं हैं। जहां कुछ तरह के सौर ऊर्जा उपयोग- जैसे सोलर कुकर से पर्यावरण को कोई क्षति नहीं है, वहीं कुछ अन्य तरह के उपयोगों में खतरनाक अवशेष भी रह जाते हैं। जब तक यह कार्य छोटे स्तर पर थोड़ी सी जगहों पर हो रहा है, तब तक तो यह समस्याएं गंभीर रूप से सामने नहीं आती हैं पर यदि आप बहुत बड़े पैमाने के उत्पादन के बारे में सोचते हैं तो आपको इन प्रतिकूल परिणामों की आशंका के बारे में भी सचेत रहना पड़ेगा। सौर ऊर्जा के समर्थकों को भी इन समस्याओं को छिपाना नहीं चाहिए क्योंकि जब इन समस्याओं की चर्चा होगी, तभी इन्हें कम करने या दूर करने की संभावनाओं को बल मिलेगा। सौर ऊर्जा की तकनीक में भी कई सुधार की संभावनाएं हमारे सामने हैं। पर इस तरह के जरूरी सुधारों पर ध्यान केंद्रित करने और अक्षय ऊर्जा स्रेतों की तकनीक को भारतीय जरूरतों के अनुसार ढालने के स्थान पर हाल के समय में कई प्रतिकूल समाचार मिलते रहे हैं। कुछ बड़ी कंपनियां इन अपेक्षाकृत नए ऊर्जा स्रेतों पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए अनुचित तरीके अपना रही हैं। अभी आरंभिक दौर है तो भी सौर ऊर्जा से जुड़े कुछ घपलों के समाचार भी मिलने लगे हैं। यदि इस तरह की प्रवृत्तियां हावी हो गई तो अक्षय ऊर्जा स्रेतों का विकास भी देश में सही ढंग से नहीं हो सकेगा। पर्वतीय क्षेत्रों में पन-बिजली के विकास में भी प्राय: सरकारी स्तर पर जो गलतियां हुईं, उसके कारण सूक्ष्म पन-बिजली परियोजनाओं या माईक्रो हाईडल का जो योगदान ऊर्जा विकास में हो सकता था, वह प्राप्त नहीं हो पाया व उसके स्थान पर कई तरह-तरह के विवाद खड़े हो गए। पर्वतीय गांव बहुत पहले से पनचक्की या घराट का उपयोग करते रहे हैं और इस तकनीक को थोड़ा सा आगे बढ़ा कर कुछ बिजली उत्पादन भी हो सकता है। यह तकनीक ऐसी है, जिसे ग्रामीण पूरी आसानी से सीख सकते हैं व इस पर आधारित कुटीर उद्योग भी चला सकते हैं। इस तरह की प्रत्येक यूनिट में तो अपेक्षाकृत कम बिजली उत्पादन होगा पर चूंकि इससे विस्थापन नहीं होता है व पर्यावरण की क्षति नहीं होती है तो गांववासी अपनी आवश्यकता के अनुसार कई यूनिट लगा सकते हैं। कुल मिलाकर क्षेत्र की आवश्यकताओं को काफी हद तक वे इस तरह पूरा कर सकते हैं। यह कार्य पूरी तरह गांव समुदायों से मिलकर होना चाहिए व इसमें पंचायत राज को जोड़ा जाना चाहिए। पर प्राय: पर्वतीय राज्यों की सरकारों ने यह नीति नहीं अपनाई व जल्दबाजी में कपंनियों को ठेके दे दिए गए जिन्हें न तो ग्रामीण स्थितियों की सही जानकारी थी और न उन्हें गांवों को होने वाली क्षति की परवाह थी। वे तो बस सरकारी सुविधाओं का लाभ उठाकर जल्दबाजी में बिजली उत्पादन कर अपने थोड़े से निवेश पर अधिक मुनाफा बटोर लेना चाहती थीं। अत: उन्होंने गांवों व पर्यावरण को होने वाली क्षति की अनदेखी की व इस तरह जगह-जगह टकराव की स्थिति उत्पन्न हुई। इस उदाहरण से यह सबक मिलता है कि अक्षय ऊर्जा स्रेतों को केवल बढ़ाना पर्याप्त नहीं है अपितु इस बारे में भी बहुत कुछ सोचना जरूरी है कि उन्हें किस तरह बढ़ाया जाए। अक्षय ऊर्जा स्रेतों को आगे बढ़ाने के गलत-सही दोनों तरह के तरीके मौजूद हैं। अभी हम अक्षय ऊर्जा स्रेतों के विकास की आरंभिक स्थिति में ही है। अभी हमें इस बारे में काफी चिंतन-मनन करना है और अपनी उचित सोच बनानी है कि कौन सी राह सही है और कौन सी गलत है। ग्रामीण क्षेत्रों के लिए अक्षय ऊर्जा स्रेत विशेष तौर पर उपयुक्त हैं। पंचायतों को विकेंद्रित अक्षय ऊर्जा विकास में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका दी जा सकती है। हालांकि इसके लिए पहले काफी तैयारी करनी होगी व सावधानियां अपनानी पड़ेंगी। विशेषकर जिन गांवों में अभी बिजली की आपूत्तर्ि बहुत कम है व जो समस्याग्रस्त हैं, उनके लिए तो अक्षय ऊर्जा स्रेत ही संकट से बाहर निकालने का सबसे बढ़िया विकल्प है। इस संदर्भ में ग्रीनपीस जैसी संस्थाओं के अध्ययनों से पता चलता है कि ऐसी स्थिति में अक्षय ऊर्जा की उपयोगिता कुछ स्थानों पर प्रमाणित भी हो चुकी है और भविष्य के लिए भी काफी उम्मीदें हैं। इन ग्रामीण क्षेत्रों को पूरी प्रतिबद्धता से अक्षय ऊर्जा स्रेतों की ओर बढ़ना चाहिए। इस नई राह पर ग्रामीण ऊर्जा नीति को ले जाने के लिए सरकार को यथासंभव सहायता उपलब्ध करवानी चाहिए। इस नई राह पर हमारे गांव चल सकें, इसके लिए स्वैच्छिक संगठनों विशेषकर विज्ञान व तकनीकी संगठनों व पर्यावरण संगठनों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। पर इन स्वैच्छिक संगठनों को बड़ी कंपनियों की पैरवी की भूमिका में नहीं आना चाहिए। बहुत सा कार्य ऐसा है जो गांववासी अपनी क्षमता से भी कुछ सरकारी सहायता प्राप्त करके कर सकते हैं। जबकि बड़ी कंपनियां अपनी विशेष तरह की तकनीक व योजनाएं लेकर ही आती हैं। यह ऐसा नया क्षेत्र है जिससे गांववासियों की रचनात्मकता को उभरने का भरपूर अवसर मिलना चाहिए, जैसा बेयरफुट कालेज (राजस्थान) के महत्त्वपूर्ण कार्य से पहले ही स्पष्ट हो चुका है। इस क्षेत्र में गांववासियों व विशेषकर महिलाओं को उचित प्रशिक्षण देकर अवसर दिए गये तो उन्होंने उल्लेखनीय उपलब्धियां प्राप्त कीं। अत: जैसे सरकार को इस संदर्भ में बहुत रचनात्मक और संवेदनशील नीति अपनानी चाहिए, वैसे स्वैच्छिक संस्थाओं को भी अपनी भूमिका बहुत सावधानी से तलाशनी चाहिए। उनका हित किसी बड़े बिजनेस के हित से नहीं जुड़ना चाहिए। उन्हें तो पूरी तरह गांववासियों के हितों के लिए व पर्यावरण की रक्षा के लिए समर्पित रहना चाहिए। लेखक –भारत डोगरा


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