Thursday 10 May 2012

मिसाइल रक्षा कवच


मिसाइल डिफेंस शील्ड
अ ग्नि-5 कांटिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल के सफल परीक्षण के बाद भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों की सूची में शामिल हो गया, जिसके पास 5,000 किलोमीटर से अधिक दूरी तक मार करने वाली मिसाइल है. इस सफलता के बाद अब वैज्ञानिकों ने ऐसा सुरक्षा कवच तैयार किया है, जिससे दो हजार किमी तक की मारक क्षमता वाली हमलावर बैलिस्टिक मिसाइल को आसमान में ही ध्वस्त किया जा सकता है. भारतीय रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) ने मिसाइल रक्षा कवच (मिसाइल डिफेंस शील्ड) विकसित कर इसका सफलतापूर्वक परीक्षण भी कर लिया है. रक्षा कवच से फिलहाल देश दो शहरों की रक्षा की जा सकती है. इस रक्षा प्रणाली को वर्ष 2016 तक पांच हजार किमी मारक क्षमता वाली मिसाइलों से बचाने की क्षमता वाला बनाने की योजना है. डीआरडीओ प्रमुख वीके सारस्वत के मुताबिक, बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा कवच अब परिपक्व है और इसका पहला चरण पूरी तरह तैयार है. इसकी खासियत है कि इसे बहुत कम समय में तैनात किया जा सकता हैं. पहले चरण के तहत यह कवच देश में दो जगहों पर तैनात किया जा सकता है, जहां आधारभूत ढांचा उपलब्ध हो. 

दो स्तरों पर प्रक्षेपण 

डीआरडीओ ने भारतीय मिसाइल डिफेंस शील्ड के छह सफल प्रक्षेपण किये और दो हजार किमी के लक्ष्य के लिए क्षमता का परीक्षण किया. इसका प्रक्षेपण दो स्तरों पर किया गया. हालांकि, यह पहले चरण का नतीजा था, लेकिन अब दूसरे चरण में बैलिस्टिक मिसाइलों से निबटने की इस प्रणाली को पांच हजार किमी की मारक क्षमता तक बढ.ाने की योजना है. 

बहुत खास है उपलब्धि

भारत ने नवंबर 2006 में इस प्रणाली का पहली बार परीक्षण किया था. अब यह प्रणाली हासिल करने के बाद भारत एंटी बैलिस्टिक मिसाइल प्रणाली सफलतापूर्वक विकसित करने वाले चुनिंदा देशों में शुमार हो गया है. यह क्षमता फिलहाल अमेरिका, रूस और इजराइल जैसे देशों के पास ही है. 

कैसे करता है काम

एंटी मिसाइल सिस्टम में संवेदनशील राडार की सबसे ज्यादा अहमियत है. ऐसे राडार बहुत पहले ही वायुमंडल में आये बदलाव को भांप कर आ रही मिसाइलों की पोजिशन ट्रेस कर लेते हैं. पोजिशन लोकेट होते ही गाइडेंस सिस्टम एक्टिव हो जाता है और आ रही मिसाइल की तरफ इंटरसेप्टिव मिसाइल दाग दी जाती है. इस मिसाइल का काम दुश्मन की मिसाइल को सुरक्षित ऊंचाई पर ही हवा में नष्ट करना होता है. इसे ट्रेस कर, पलटवार करने की प्रक्रिया में महज कुछ सेकेंड का ही अंतर होता है. 
2016 तक भारत की योजना 5,000 किलोमीटर मारक क्षमता वाली मिसाइल-रोधी रक्षा प्रणाली विकसित करने की है.
2006 के नवंबर महीने में भारत ने पहली बार एंटीबैलिस्टिक मिसाइल का परीक्षण किया था.
1957 में सोवियत संघ ने इंटरकांटीनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल को विकसित किया.

2016 तक भारत की योजना 5,000 किलोमीटर मारक क्षमता वाली मिसाइल-रोधी रक्षा
प्रणाली विकसित करने की है.2006 के नवंबर महीने में भारत ने पहली बार एंटीबैलिस्टिक मिसाइल का परीक्षण किया था.1957 में सोवियत संघ ने इंटरकांटीनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल को विकसित किया.

कई तरह के होते हैं एंटीमिसाइल सिस्टम

एंटी मिसाइल सिस्टम को इस स्तर तक विकसित कर लिया गया है कि दुश्मन देशों की मिसाइल को कई तरह से नष्ट किया जा सकता है. 

- अपग्रेडेड अर्ली-वार्मिंग राडार (यूइडब्ल्यूआर) : यह बैलिस्टिक मिसाइल को ट्रेस और ट्रैक कर सकता है.

- एक्स-बैंड/ग्राउंड-बेस्ड राडार (एक्सबीआर) : यह परमाणु बम से लैस मिसाइल का पता लगा सकता है.

- स्पेस-बेस्ड इंफ्रारेड सिस्टम (एसबीआइआरएस) : इसे विकसित करने में अमेरिका को दस साल का वक्त लगा था. यह उपग्रह की मदद से मिसाइल का पता लगता सकता है और उसे नष्ट कर सकता है. इसके अलावा ग्राउंड-बेस्ट इंटरसेप्टर्स (जीबीआइ) राडार का भी इस प्रणाली में इस्तेमाल किया जाता है.

स्टार वार्स की संतान

मिसाइल कवच के बारे में पहली बार अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के समय में अधिक जिक्र हुआ. रीगन ने शीतयुद्ध के समय में स्ट्रेटेजिक डिफेंस इनिशियेटिव (एसडीआइ) प्रस्तावित किया. यह एक अंतरिक्ष आधारित हथियार प्रणाली थी, जिसके सहारे इंटरकांटीनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल (आइसीबीएम) को अंतरिक्ष में मार गिराने की बात की गयी थी. लेजर लाइट से लैस इस हथियार को मीडिया ने स्टार वार का नाम दिया था.

पहला एंटीबैलेस्टिक मिसाइल सिस्टम

एंटी बैलिस्टिक मिसाइल सिस्टम (एबीएम) का पहला वास्तविक और सफल परीक्षण 1 मार्च 1961 को सोवियत संघ ने किया. पहला आइसीबीएम-एबीएम सिस्टम सोवियत ए-35 था. इसे शीतयुद्ध के दौरान अमेरिका से बढ.ते तनाव के कारण मॉस्को की रक्षा करने के मकसद से विकसित किया गया था. फिर बाद में, 1980 के दशक में इसे अपग्रेड किया गया. 

मौजूदा आइसीबीएम रक्षा-कवच

आज दुनिया के छह देशों के पास इंटर कांटीनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल है. लेकिन, इसे इंटरसेप्ट करने यानी रोकने की तकनीक सिर्फ दो देश- अमेरिका और रूस के पास ही है. हालांकि, आइसीबीएम के अलावा अन्य मिसाइलों को भेदने के लिए एंटी बैलिस्टिक मिसाइल (एबीएम) हैं, लेकिन ये एबीएम आइसीबीएम को नहीं भेद सकता है. आइसीबीएम को भेदने की तकनीक रूस और अमेरिका को छोड़कर किसी देश के पास नहीं है. 

रूस ने सोवियत संघ के जमाने में 1971 में अपनी तकनीक विकसित की थी, जबकि अमेरिका के पास इसके लिए ग्राउंड-बेस्ड मिड कोर्स डिफेंस है. इसे पहले नेशनल मिसाइल डिफेंस के नाम से जाना जाता था. 

भारत के लिए यह कवच है जरूरी

पड़ोसी देशों- चीन और पाकिस्तान की सैन्य शक्ति से निपटना भारत की चिंताओं में शुरू से शामिल रहा है. चीन से 1962 के युद्ध में हम हार का स्वाद चख चुके हैं और पाकिस्तान से तो दो बार सीधी जंग हो चुकी है. लेकिन, अब यदि जंग की आशंका बनती है तो युद्ध पहले की अपेक्षा बिल्कुल दूसरे ढंग से लड़ा जायेगा. इसमें परमाणु बमों से लैस मिसाइलों का भी इस्तेमाल किया जा सकता है. जिस तरह आजकल परमाणु हथियारों और मिसाइलों के आतंकवादियों के हाथों में पड़ने की आशंका जतायी जा रही है, उससे भी चिंतित होना स्वाभाविक है. अमेरिका, रूस, इस्राइल जैसे देशों के पास ये तकनीक हैं. लेकिन यदि भारत पर इस तरह के हमले होते हैं तो ऐसी स्थिति में हमारे पास बचने का उपाय नहीं रहेगा. नतीजतन, इन सभी पहलुओं को देखते हुए भी भारत का एंटी मिसाइल सिस्टम से लैस होना बहुत जरूरी है. आज महानगरों की घनी आबादी को देखते हुए इस तरह का एंटी मिसाइल सिस्टम हमारी सख्त जरूरत बन चुका है. इस मिसाइल कवच के विकसित होने से हमारे ऊर्जा स्रोतों मसलन, तेल के कुएं और न्यूक्लियर प्रतिष्ठानों की सुरक्षा सुनिश्‍चित की जा सकेगी.1957 में सोवियत संघ ने इंटरकांटीनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल को विकसित किया.एंटीबैलिस्टिक मिसाइल का इतिहास 

कोई मिसाइल या रॉकेट अपने लक्ष्य को निशाना बनाये, उसके पहले ही उसे मार गिराने का विचार सबसे पहले द्वितीय विश्‍वयुद्ध के दौरान आया. र्जमन वी-1 और र्जमन वी-2 प्रोग्राम इसी तरह के थे. हालांकि, ब्रिटिश सैनिकों के पास भी यह क्षमता थी और द्वितीय विश्‍वयुद्ध के दौरान उन्होंने दुश्मन देशों के कई ऐसे मिशन को नाकाम किया. बैलिस्टिक मिसाइल के इतिहास में र्जमन वी-2 को पहला वास्तविक बैलिस्टिक मिसाइल माना जाता है. इसे एयरक्राफ्ट या अन्य किसी युद्धक सामग्री से नष्ट करना असंभव था. इसे देखकर द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद अमेरिकी सेना ने र्जमन तकनीक की मदद से एंटी मिसाइल तकनीक पर काम करना शुरू किया. लेकिन, पहली बार अमेरिका व्यापक सफलता 1957 में सोवियत संघ द्वारा इंटर कांटीनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल विकसित करने के बाद ही मिली.चुनिंदा देशों के पास ही है यह सिस्टम

दुनिया के कई देशों द्वारा मिसाइल परीक्षण करने के कारण इनसे बचाव की जरूरत सभी को महसूस होने लगी है. यही कारण है कि विकसित देशअब मिसाइल सुरक्षा कवच विकसित करने पर अधिक ध्यान दे रहे हैं. अभी फिलहाल यह सिस्टम दुनिया के चुनिंदा देशों के पास ही है. एंटी बैलिस्टिक मिसाइल सिस्टम फिलहाल अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस, यूनाइटेड किंगडम, जापान और इजराइल के पास ही है. अब भारत भी इन देशों की श्रेणी में आ गया है, जिसके पास एंटी बैलिस्टिक मिसाइल सिस्टम है. हालांकि, हर देशके पास इससे संबंधित अलग-अलग तकनीक हैं. मसलन, अमेरिका और रूस के पास इंटर कांटीनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल को भी मार गिराने की तकनीक है, जबकि अन्य देशों के पास यह तकनीक नहीं है.
एंटीबैलिस्टिक मिसाइल का इतिहास 
कोई मिसाइल या रॉकेट अपने लक्ष्य को निशाना बनाये, उसके पहले ही उसे मार गिराने का विचार सबसे पहले द्वितीय विश्‍वयुद्ध के दौरान आया. र्जमन वी-1 और र्जमन वी-2 प्रोग्राम इसी तरह के थे. हालांकि, ब्रिटिश सैनिकों के पास भी यह क्षमता थी और द्वितीय विश्‍वयुद्ध के दौरान उन्होंने दुश्मन देशों के कई ऐसे मिशन को नाकाम किया. बैलिस्टिक मिसाइल के इतिहास में र्जमन वी-2 को पहला वास्तविक बैलिस्टिक मिसाइल माना जाता है. इसे एयरक्राफ्ट या अन्य किसी युद्धक सामग्री से नष्ट करना असंभव था. इसे देखकर द्वितीय विश्‍वयुद्ध के बाद अमेरिकी सेना ने र्जमन तकनीक की मदद से एंटी मिसाइल तकनीक पर काम करना शुरू किया. लेकिन, पहली बार अमेरिका व्यापक सफलता 1957 में सोवियत संघ द्वारा इंटर कांटीनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल विकसित करने के बाद ही मिली.चुनिंदा देशों के पास ही है यह सिस्टम
दुनिया के कई देशों द्वारा मिसाइल परीक्षण करने के कारण इनसे बचाव की जरूरत सभी को महसूस होने लगी है. यही कारण है कि विकसित देशअब मिसाइल सुरक्षा कवच विकसित करने पर अधिक ध्यान दे रहे हैं. अभी फिलहाल यह सिस्टम दुनिया के चुनिंदा देशों के पास ही है. एंटी बैलिस्टिक मिसाइल सिस्टम फिलहाल अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस, यूनाइटेड किंगडम, जापान और इजराइल के पास ही है. अब भारत भी इन देशों की श्रेणी में आ गया है, जिसके पास एंटी बैलिस्टिक मिसाइल सिस्टम है. हालांकि, हर देशके पास इससे संबंधित अलग-अलग तकनीक हैं. मसलन, अमेरिका और रूस के पास इंटर कांटीनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल को भी मार गिराने की तकनीक है, जबकि अन्य देशों के पास यह तकनीक नहीं है.

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