भारत डोगरा
ओजोन परत के लुप्त होने या उसमें छेद होने से सूर्य की जीवनदायिनी किरणों में इतना बदलाव आ जाता है कि मनुष्यों में त्वचा कैंसर और मोतियाबिंद की संभावना काफी बढ़ सकती है। निश्चय ही अनेक अन्य जीवों पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है। अधिकांश महत्वपूर्ण फसलों (जिन पर प्रयोग किए गए) के बारे में यही पता चला है कि ओजोन परत के लुप्त होने का उन पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। यहां तक कि समुद्रों की वनस्पति भी बुरी तरह प्रभावित होगी, जिससे इन विशाल जल भंडारों का पूरा खाद्य चक्र और जीवन बुरी तरह प्रभावित हो सकता है।
प्राय: यह भ्रान्ति फैली हुई है कि मांट्रियल के समझौते और इसी कार्य को आगे बढ़ाने वाले अन्य अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों के फलस्वरूप यह समस्या सुलझ चुकी है। किन्तु हकीकत यह है कि सीएफसी व ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने वाले अन्य रसायनों का उत्पादन और अवैध तस्करी बड़ी मात्रा में समझौते के बाद भी होता था। अंटार्कटिक क्षेत्र के ऊपर 12000 वर्ग मील तक बड़ा छेद ओजोन परत में देखा गया। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यू.ने.ई.प.) के अनुसार ओजोन परत के कम होने के कारण प्रति वर्ष 3 लाख त्वचा कैंसर के अतिरिक्त केस और 15 लाख मोतियाबिंद के अतिरिक्त केस होने की संभावना है। आज से सत्तर वर्ष पहले सीएफसी के बारे में कोई नहीं जानता था। केवल सात दशकों में एक नए रसायन का इतनी तेजी से प्रसार हुआ व उसने इतनी तबाही मचाई कि सूर्य की किरणों को ही खतरनाक बनाने का विश्वव्यापी खतरा उत्पन्न कर दिया। इस अनुभव के बाद हमें कम से कम यह सवाल जरूर पूछना चाहिए कि जिन अन्य नए रसायनों को हम दुनिया में तेजी से फैलाते जा रहे हैं, क्या उनके स्वास्थ्य व पर्यावरण संबंधी असर के बारे में हम अपने को संतुष्ट कर चुके हैं? अनेक विशेषज्ञों ने साफ-साफ कहा है कि इनमें से अधिकांश रसायनों के बारे में हमारी जानकारी अधूरी है, व विशेषकर अपने मिश्रित रूप में दो या दो से अधिक रसायन कितना नुकसान कर सकते हैं, उसके बारे में तो हमारी जानकारी बहुत ही अपर्याप्त है। लिवरपूल विश्वविद्यालय से जुड़े विशेषज्ञ डॉ. वाईवन हावर्ड ने एक बहुचर्चित लेख में बताया है कि आज हमारे शरीर में 300 से 500 ऐसे रसायन मौजूद हैं जिनका आज से 50 वर्ष पहले अस्तित्व था ही नहीं या नहीं के बराबर था। खतरनाक रसायनों को जब मिश्रित किया जाता है, तो उनका खतरनाक असर 10 गुणा तक बढ़ सकता है जबकि वत्र्तमान जांच विभिन्न रसायनों की अलग-अलग ही की जाती है। अत: यदि सीएफसी वाली गलती नहीं दुहरानी है तो संकीर्ण आर्थिक स्वार्थों के ऊपर उठकर हमें विभिन्न रसायनों व उनके मिश्रणों के स्वास्थ्य व पर्यावरण असर का पता लगाना होगा व विश्व को खतरनाक रसायनों से बचाने के विशेष प्रयास करने होंगे। इस वर्ष 2015 में एक बहुत व्यापक अध्ययन के परिणाम सामने आए हैं जिससे विश्व के 28 देशों के 174 वैज्ञानिकों ने आपसी सहयोग से यह पता लगाने का प्रयास किया कि सामान्य उपयोग में आने वाले रसायनों का कैंसर से कितना संबंध है। जिन रसायनों का अध्ययन हुआ, उनमें 85 में से 50 रसायन ऐसे पाए गए जिनका कैंसर के कारणों पर ‘लो डोज’ असर पाया गया। 13 के संदर्भ में संपर्क एक सीमा के बाद कैंसर उत्पन्न करने वाले असर देखे गए। संभवत: सबसे अधिक खतरा खाद्य चक्र को प्रभावित करने वाले खतरनाक रसायनों व नई तकनीकों से है। लंदन फूड कमीशन ने बताया था ब्रिटेन में 92 ऐसे कीटनाशकों/जंतुनाशकों को स्वीकृत मिली हुई है जिनके बारे में पशुओं पर होने वाले अध्ययनों से पता चला था कि इनसे कैंसर व जन्म के समय की विकृत्तियां होने की संभावना है। संयुक्त राज्य अमेरिका की नेशनल एकेडमी ऑफ साईंसिस ने एक रिपोर्ट में कहा कि पेस्टीसाईड के कारण एक पीढ़ी में लगभग 10 लाख कैंसर के अतिरिक्त कैंसर उत्पन्न होने की संभावना है। इसके अतिरिक्त विकिरण के खतरे के प्रति विशेष तौर पर सचेत रहना जरूरी है। परमाणु ऊर्जा के उत्पादन के पूरे चक्रमें विकिरण के खतरे के प्रति वर्तमान से अधिक सजगता की जरूरत है।
प्लूटोनियम 238 एक विशेष तरह का प्लूटोनियम है जो अणुबमों में उपयोग होने वाले प्लूटोनियम से 280 गुणा अधिक रेडियोधर्मी है। डॉ. हेलन केल्डीकाट नामक एक विशेषज्ञ के अनुसार केवल एक पांऊड प्लूटोनियम 238 को यदि पूरे विश्व में बराबर बिखेर दिया जाए तो इससे सभी लोगों में फेफड़े के कैंसर का खतरा उत्पन्न हो सकता है। वर्ष 1964 में एक उपग्रह में 2 पांऊड प्लूटोनियम-238 रखा गया था। वायुमंडल में दुबारा प्रवेश करते समय यह उपग्रह दुर्घटनाग्रस्त हो गया व इसमें बचा प्लूटोनियम वाष्पीकृत हो गया। इस समय तक हमारे पर्यावरण में इस प्लूटोनिमय के अवशेष हैं जो कैंसर बढ़ा रहे हैं। वर्ष 1970 में अपोलो-13 अंतरिक्ष यान का 8.3 पांऊड प्लूटोनियम-238 प्रशान्त महासागर में गिर गया, और इसने महासागर की गहराईयों में पहुंचकर वहां कितना विनाश किया, यह आज तक पता नहीं है। वर्ष 1989 में गेलीलियो अंतरिक्ष यान को बृहस्पति ग्रह की ओर भेजा गया, व इसकी बिजली के लिए इसमें 50 पांऊड प्लूटोनियम 238 रखा गया। जिस तकनीक से इसे बृहस्पति की ओर भेजा गया, उसमें इस यान के पृथ्वी के वायुमंडल में पुन: प्रवेश करने और दुर्घटनाग्रस्त होने का काफी खतरा था। कुछ समय पहले प्रकाशित समाचारों के अनुसार कुछ देशों में इस बात की स्वीकृति मिल गई है कि अणु नाभिकीय विद्युत संयंत्रों के आसपास एकत्र हो रहे रेडियोधर्मिता युक्त अवशेषों का उपयोग अनेक उपभोक्ता वस्तुओं के निर्माण में किया जाए। संयुक्त राज्य अमेरिका से तो ऐसे समाचार भी मिले हैं कि रेडियोधर्मिता युक्त अवशेषों का प्रयोग खाद के रूप में किया जाए या इसे खाद में मिला दिया जाए। विकिरण के असर पर एक विख्यात अनुसंधनकत्र्ता डॉ. क्रिस बुसबी ने यह मत व्यक्त किया है कि कैंसर की दर में वृद्धि का एक प्रमुख कारण वायुमंडल में किए गए नाभिकीय परीक्षण है। उन्होंने बताया कि चूंकि यह दुष्परिणाम खुले रूप में कुछ वर्षों के बाद सामने आता है, अत: कारण और परिणाम के बीच संबंध स्थापित करना कठिन होता है। उनके अनुसंधान से पता चला कि यह खतरा अधिक वर्षा के इलाकों में अधिक है। इस अनुसंधान का सबसे दर्दनाक पक्ष यह है कि महिलाओं के स्तनों पर भी विकिरण का दुष्परिणाम पड़ा जिसके कारण वायुमंडलीय नाभिकीय विस्फोटों के आसपास रहने वाली महिलाओं में स्तन का कैंसर हुआ और उनका दूध पीने वाले बच्चों का स्वास्थ्य बिगड़ा और कुछ बच्चों की मौत हुई। इसके अतिरिक्त मोबाईल फोनों के अत्यधिक व असावधानी से किए गए उपयोगों व इसके लिए जरूरी टावरों के तेज प्रसार से भी गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं जो भविष्य में और विकट हो सकती हैं। इस तरह जब किसी नई तकनीक या उत्पाद का बहुत तेज प्रसार होता है, तो उसमें यह संभावना बनी रहती है कि इस नए उत्पाद या तकनीक ये जुड़े खतरे भी उतनी ही तेजी से फैल जाएं। यदि किसी नए उत्पाद का उपयोग धीरे-धीरे बढ़े तो यह संभावना बढ़ जाती है कि उसके किसी खतरों के बारे में अधिकांश उपभोक्ताओं को समय पर पता चल जाएगा। पर जिस तेजी से मोबाईल फोन जैसे नए उत्पाद फैलते हैं उसमें समय पर चेतावनी मिलने की संभावना कम हो जाती है। मान लीजिए कि कुछ खतरे दस वर्ष तक उपयोग के बाद ही सामने आने की संभावना है। तो इससे पहले कि इन खतरों का आभास हो करोड़ों लोग मोबाईल फोन का भरपूर उपयोग वर्षों तक कर चुके होंगे व इनमें से अनेक को तो इस फोन के अधिक उपयोग की इतनी आदत बन चुकी होगी कि वे खतरे पता चलने पर भी इसका उपयोग ज्यादा कम नहीं कर पाएंगे। अत: नई तकनीकों या उत्पादों का बहुत तेज प्रसार भी कई खतरों से भरा है। मोबाईल फोन के तेज प्रसार को प्रगति के द्योतक के रूप में प्रचारित किया गया है। यह सबसे तेज औद्योगिक प्रसार का क्षेत्र रहा है। इसमें सर्वाधिक प्रतिस्पर्धा व होड़ देखी गई है। विज्ञापन व प्रचार-प्रसार भी सबसे अधिक इस उत्पाद का हुआ है। भ्रष्टाचार भी सबसे अधिक इसी क्षेत्र में पनपा है। जब किसी उत्पाद के साथ इतने बड़े आर्थिक हित जुड़े हैं तो जरूरी बात है कि इस उत्पाद के खतरों या दुष्परिणामों को छिपाने या कम दर्शाने के काफी प्रयास भी किए जाते हैं। इस कारण प्राय: महत्वपूर्ण जानकारी उपभोक्ताओं तक समय पर नहीं पहुंचती है। एक ओर तो लोगों ने अपने रुझान व जरूरतों के अनुसार सेल फोन को बहुत तेजी से अपनाया है। दूसरी ओर प्रचार-प्रसार द्वारा भी लोगों को मोबाईल फोन का अधिक उपयोग करने या नए बेहतर मोबाईल खरीदने के लिए बहुत प्रेरित किया गया है। बेहतर जीवन-शैली को बेहतर मोबाईल से जोड़ कर बार-बार प्रचारित किया गया है। निश्चय ही लोगों को मोबाईल फोन में बहुत से लाभ नजर आए होंगे तभी उन्होंने इतनी तेजी से मोबाईल फोन को अपने जीवन का जरूरी हिस्सा बनाया। पर सवाल यह है कि यदि उन्हें मोबाईल फोन से जुड़े सभी खतरों की पूरी जानकारी होती तब उनकी क्या प्रतिक्रिया होती? अब देर से ही सही, पर मोबाईल फोन से जुड़े विभिन्न खतरों के बारे में प्रमाणिक जानकारी उपलब्ध होने लगी है। भारतीय सरकार के संचार व सूचना तकनीक मंत्रालय ने हाल ही में मोबाईल फोन से जुड़े खतरों के अध्ययन के लिए एक आठ सदस्यों की अन्तर्मंत्रालय समिति का गठन किया। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि मोबाईल फोन व इनके लिए बनाए गए टावर से निकलने वाले रेडियेशन या विकिरण से स्वास्थ्य संबंधी कई खतरे जुड़े हैं जैसे याद्दाश्त कमजोर होना, ध्यान केंद्रित न कर पाना, पाचन तंत्र में गड़बड़ी होना व नींद में कठिनाई होना, सिरदर्द, थकान, हृदय स्पंदन प्रतिक्रिया में देरी आदि। अन्य जीव-जंतुओं पर असर के बारे में इस समिति ने बताया कि चिडिय़ा-गौरेया, मधुमक्खी, तितली, अन्य कीटों की संख्या में बड़ी कमी आने के लिए मोबाईल टावर से होने वाले रेडियेशन भी जिम्मेदार हैं। इससे पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रो. जितेंद्र बेहारी का इस विषय पर अनुसंधान भी सुर्खियों में आया था। इस शोध को इंडियन कांऊसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च व कांऊसिल फॉर साईंटिफिक एंड इंडस्ट्रीयल रिसर्च ने प्रयोजित किया था। इस अनुसंधान का निष्कर्ष यह है कि मोबाईल का अधिक समय तक इस्तेमाल करना खतरनाक तो अवश्य है पर यह कितना खतरनाक सिद्ध होगा यह कई बातों पर निर्भर होगा जैसे कि मोबाईल फोन का उपयोग करने वाले व्यक्ति की उम्र कितनी है, उसे पहले से कौन सी बीमारी या स्वास्थ्य समस्या है, वह कितने समय फोन उपयोग करता है व उसके फोन की क्वालिटी कैसी है। विशेष परिस्थितियों में मोबाईल फोन का उपयोग हृदय रोग, कैंसर (विशेषकर दिमाग का कैंसर), आर्थराईटिस, अल्जाईमर, नपुसंकता (स्पर्म की कमी) व जल्द बुढ़ापा आने की संभावना बढ़ा सकता है। मोबाईल के अधिक उपयोग से रेडिएशन शरीर का पानी सोख लेता है व इस कारण कई बीमारियां उत्पन्न होती है। उम्र के हिसाब से देखें तो मोबाईल फोन व टावर का सबसे अधिक खतरा छोटे बच्चों के लिए है। अत: छोटे बच्चों को मोबाईल व टावर से बचा कर रखना सबसे जरूरी है। मोबाईल फोन गिर जाने से दरार पड़ जाए, कुछ टूटन आ जाए तो रेडियशन का खतरा बहुत बढ़ जाता है अत: ऐसे टूटे या दरार वाले मोबाईल फोन का उपयोग कभी नहीं करना चाहिए। इस खतरे को कम करने के लिए कुछ सावधानियां बरती जा सकती हैं। जहां तक संभव हो लैंड लाईन फोन का उपयोग करना चाहिए व जब बहुत जरूरत हो तब मोबाईल फोन का उपयोग केवल बेहद जरूरी बात के लिए करना चाहिए। विशेषकर लंबी बात मोबाईल फोन पर नहीं करनी चाहिए। सिगनल कमजोर हो, तो भी मोबाईल फोन का उपयोग न करें क्योंकि इस स्थिति में रेडिएशन ज्यादा निकलती है। फोन को पास रख कर न सोएं, विशेष तौर पर सिर व तकिए से फोन दूर रखें। हो सके तो रात को मोबाईल को स्विच ऑफ कर दें। मोबाईल को वाईब्रेशन मोड में न रखें क्योंकि इस स्थिति में रेडिएशन ज्यादा निकलतीे है। बच्चों को मोबाईल इस्तेमाल न करने दें। मोबाईल टावर के पास न रहें। यदि पास में मोबाईल टावर बन रहा है तो उसे रिहायशी स्थान से हटाने के लिए कार्यवाही करें। ध्यान रखें कि बच्चों के स्कूल के पास टावर नहीं हों। इसके साथ ही सरकार को बड़ा नीतिगत फैसला लेना होगा कि यदि मोबाईल फोन का प्रचार-प्रसार किया जाए तो साथ ही इनके खतरों व इससे जुड़ी सावधानियों के बारे में भी जानकारी देनी होगी। सरकार को स्वयं भी इन खतरों व सावधानियों का प्रचार-प्रसार करना चाहिए। टावर संबंधी स्पष्ट व सख्त नीतियां अपनाई जानी चाहिए ताकि इनके रेडिएशन की चपेट में आकर किसी का स्वास्थ्य तबाह न हो। धनी मोबाईल उपभोक्ताओं के लिए बेहतर क्वालिटी व बचाव साधनों से लैस मोबाईल फोन खरीदकर खतरे कम करना संभव है, पर यह गरीब उपभोक्ताओं के लिए ऐसा बचाव कठिन है। विश्व के विकसित देशों की अपेक्षा भारत में खतरों से बचाव के लिए सरकारी नीति और भी महत्वपूर्ण है। इसके साथ ही अन्य तरह के इलैक्ट्रोमेगनैटिक प्रदूषण को कम करने के प्रयास भी जरूरी हैं।
गर्म जलवायु व शरीर की कमजोरी के कारण भी भारत में यह खतरे पश्चिमी विकसित देशों से अधिक हैं। यह खतरे भविष्य में इस कारण तेजी से बढ़ेंगे क्योंकि अब बचपन से ही मोबाईल फोनों का उपयोग हो रहा है व काफी असावधानी से हो रहा है। कई बार सोते समय रात को ऑन मोबाइल बच्चों के बहुत पास रख दिया जाता है जो बहुत अनुचित है, विशेषकर यदि फोन दिमाग के पास ही पड़ा हो। इन खतरों के प्रति सचेत रहना, उनके बारे में जरूरी जानकारी समय पर उपलब्ध करवाना व समय रहते अधिक खतरनाक उत्पादों से परहेज करना बहुत जरूरी है।
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