Thursday 13 August 2015

उच्च शिक्षा की भाषा

प्रेमपाल शर्मा
उच्च शिक्षण संस्थानों में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई के कारण ग्रामीण पृष्ठभूमि के छात्र पिछड़ रहे हैं 
हमारे संस्थानों को तुरंत अंग्रेजी के इस माहौल को बदलने की जरूरत है वरना देश की सबसे सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं का गला घोंटने में देर नहीं लगेगी
भला हो इस देश के अखबारों का जिन्होंने यह खबर मुख्य पृष्ठ पर छापी कि देश के एक प्रमुख शिक्षण संस्थान आइआइटी रुड़की में पहले वर्ष में 72 छात्र फेल हो गए हैं। कोर्ट-कचहरी में मुकदमेबाजी के बाद संस्थान ने एक और मौका देने का तो फैसला कर लिया है, लेकिन कुछ प्रश्नों का जवाब पूरी शिक्षा व्यवस्था और राजनीति नहीं दे पा रही। अखबारों से छनकर जो तथ्य आ रहे हैं उनसे साफ जाहिर है कि पढ़ाई का अंग्रेजी माहौल इनकी असफलता का सबसे प्रमुख कारण है। इस खबर पर अंग्रेजी मीडिया विशेषकर क्यों चुप रहा? फिर जब संसद चल रही हो तो वहां इस पर बहस क्यों नहीं उठी? कहां गए उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे हंिदूी भाषा राज्यों की आवाजें? हंिदूी को सबसे ज्यादा धोखा दे रहे हैं तो हंिदूी प्रांत। रुड़की आज भले ही उत्तराखंड में हो, कल तक उत्तर प्रदेश में ही था। क्या इस घटना पर इन राज्यों की विधानसभाओं में बात उठेगी? भाषा के मुद्दे पर तो कतई नहीं उठेगी। बहिष्कार होगा तो फेल हुए छात्रों की जाति के मुद्दे पर जो पूरे विमर्श को ही न केवल पटरी से उतार देगा, बल्कि उसे विरूपित भी कर देगा। दिल्ली के एम्स के मामले में भी यही हुआ था। पांच बरस पहले डॉक्टरी पढ़ रहे अनिल मीणा ने आत्महत्या के साथ यह पत्र छोड़ा था कि मुङो अंग्रेजी न आने की वजह से कुछ भी समझ में नहीं आता। यहां का पूरा माहौल अंग्रेजीदॉ है। मैं आखिर क्या करूं? भारतीय राजनीति ने शिक्षा के इतने संवेदनशील मुद्दे को भी जाति की भेंट चढ़ा दिया।
शायद ही दुनिया के किसी देश में ऐसी मेधावी पीढ़ी ऐसे मसलों पर मजबूर होकर आत्महत्या की तरफ बढ़ती हो। तीन साल पहले लखनऊ की एक छात्र ने भी अंग्रेजी न जानने के कारण ऐसा ही कदम उठाया था। फेल हुए ये अधिकांश छात्र ग्रामीण पृष्ठभूमि से हैं। बारहवीं तक विज्ञान, गणित, सभी उस कुछ हंिदूी माध्यम में पढ़ा जो उनके लिए संभव थी। मेहनत और प्रतिभा के बूते आइआइटी में चुने गए। वे सब एक स्वर से कह रहे हैं कि आइआइटी में हमारी सबसे बड़ी समस्या सिर्फ अंग्रेजी है। प्रोफेसर अंग्रेजी में पढ़ाते हैं, किताबें अमेरिकी लेखकों की। हमारे आसपास के ज्यादातर बच्चे सिर्फ अंग्रेजी में प्रश्न करते और बोलते हैं। ऐसे माहौल में हम प्रश्न पूछने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाते। धीरे-धीरे क्लास में आने का भी मन नहीं करता। नतीजा यह हुआ कि पिछड़ते चले गए। रुड़की का संस्थान बाकी देश के अन्य संस्थाओं की तरह कितने भी तर्क दे कि इनकी मदद से लिए विशेष प्रयास किए जा रहे हैं, सीनियर छात्रों में से कुछ मेंटर के रूप में मदद करते हैं या कि अंग्रेजी सिखाने के विशेष इंतजाम किए गए हैं, लेकिन ये ज्यादातर बातें थोथी और कागजी हैं। सिर्फ भाषा की ही बात की जाए तो जो बच्चे सीमित सुविधाओं में अपनी भाषा में पढ़कर यहां तक पहुंचे हैं उनसे रातों-रात आप ऐसी फर्राटेदार अंग्रेजी की उम्मीद कैसे पाल सकते हैं और क्यों? क्या कोई भी दो-चार महीनों में अंग्रेजी सीख सकता है? हमारे संस्थानों को तुरंत अंग्रेजी के इस माहौल को बदलने की जरूरत है वरना देश की सबसे सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं का गला घोंटने में देर नहीं लगेगी।
कुछ कदम तुरंत उठाने की जरूरत है और यहां हम दक्षिण के तमिलनाडु कर्नाटक जैसे राज्यों से भी सीख सकते हैं। पहले वर्ष में ऐसी सभी संस्थानों में अंग्रेजी और प्रांतीय भाषा पर विशेष ध्यान दिया जाए। भाषा ज्ञान सिर्फ साहित्य पढ़ने के लिए आवश्यक नहीं होता। गणित, भौतिकी, इंजीनियरिंग जैसे विषयों को भी तो किसी न किसी भाषा के माध्यम से ही पढ़ना, समझना होता है। इसलिए दोनों भाषाओं की समझ से इन छात्रों की रचनात्मकता बेहतर निखर कर आएगी। दुर्भाग्य से देश के सभी संस्थानों में भाषा शिक्षण को दूसरे-तीसरे दर्जे का भी महत्व नहीं मिल रहा और इसीलिए यह हमारी शिक्षा व्यवस्था का सबसे कमजोर पक्ष बन रहा है। सारी रचनात्मकता, अन्वेषण समझ को चौपट करता हुआ। पिछले दिनों लगातार इस बात को रेखांकित किया जाता रहा है कि हमारे इन उच्च संस्थानों के छात्र देश, समाज और उनकी समस्याओं से कटे हुए हैं। कौन जिम्मेदार हैं? आपके कॉलेज, स्कूल की भाषा ही उसे धीरे-धीरे दूर कर देती है। केवल देश की भाषा की इन प्रतिभाओं को उन समस्याओं और उनके समाधान से जोड़ेगी जिनके लिए ये करोड़ों के संस्थान बनाए गए हैं। कम से कम विदेशों की तरफ भागने और इनकी अंग्रेजी के लिए तो भारत की गरीब जनता टैक्स नहीं दे रही। शिक्षा, भाषा की उपेक्षा से ये प्रश्न इतना जटिल रूप ले चुके हैं कि संस्थान अंग्रेजी पढ़ाए या इंजीनियरिंग? हमारे शिक्षण संस्थानों के सामने भी कम चुनौतियां नहीं हैं। एक तरफ क्लास में क्षमता से अधिक संख्या, प्रयोगशालाओं की कमी, लगभग सभी प्रमुख संस्थानों में पचास प्रतिशत फैकल्टी की कमी और ऊपर से रोज-रोज बढ़ते राजनीतिक दबाव। क्या यह अचानक है कि संस्थानों को सक्षम प्रोफेसर नहीं मिल रहे। क्यों वह नई पीढ़ी जो आइआइटी में पढ़ने, दाखिले को तो जमीन-आसमान एक कर देती है, वहां उसे शिक्षक बनना मंजूर नहीं है। प्रोफेसरों की तनख्वाह इतनी कम भी नहीं है। कौन इन्हें देश से भाग जाने के पंख लगा रहा है?
भाषा के मसले पर केंद्र की नई सरकार ने उम्मीद जगाई है। देश की सर्वोच्च नौकरियों में जाने के लिए सिविल सेवा परीक्षा में जिस अंग्रेजी ने 2011 में भारतीय भाषाओं के देश के गरीबों को लगभग बाहर कर दिया था 2014 के परिणाम भारतीय भाषाओं के पक्ष में गए हैं। हंिदूी लेखकों, प्राध्यापकों नौकरशाहों की चुप्पी के बावजूद छात्रों का पिछले वर्ष का आंदोलन बेकार नहीं गया, लेकिन अभी उसे कई मंजिलें पार करनी हैं। शिक्षण संस्थानों में अपनी भाषा में पढ़ाई की शुरुआत इसमें सबसे लंबी छलांग होगी।


1 comment:

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