नवभारत टाइम्स | Jan 18, 2014
शशांक द्विवेदी
पिछले दिनों
चुनाव आयोग ने वोटर रजिस्ट्रेशन के लिए गूगल के साथ एक करार किया था, जिसके तहत गूगल को आगामी लोकसभा चुनाव से
पहले वोटरों का ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन करने, मतदाताओं के सवालों
पर चुनाव आयोग की वेबसाइट मैनेज करने, मैप के जरिये पोल बूथ
ढूंढने और अन्य सुविधाएं मुहैया कराने की जिम्मेदारी दी जानी थी। साइबर सुरक्षा
विशेषज्ञों और प्रमुख राजनीतिक दलों ने इस करार पर गंभीर सवाल उठाये थे। हाल ही
में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के पूर्व कर्मचारी एडवर्ड स्नोडेन के खुलासों की
रोशनी में इस करार को सुरक्षा के लिहाज से घातक बताया गया था।
इस विवाद के
बाद चुनाव आयोग ने अपने फैसले की समीक्षा करते हुए करार रद्द कर दिया। लेकिन, सवाल यह है कि आखिर ऐसा करार किया ही क्यों
गया था? दुनिया भर में भारत सॉफ्टवेयर सुपर पावर के तौर पर
जाना जाता है और यहां चुनाव आयोग द्वारा किसी भारतीय कंपनी की जगह गूगल जैसी
विदेशी कंपनी को चुनना हैरान करने वाला था। इस करार के बाद गूगल के पास रजिस्टर्ड
भारतीय वोटर्स का पूरा डेटाबेस होता, जबकि दुनिया भर के
लोगों की जासूसी के लिए अमेरिकी खुफिया एजेंसी एनएसए के साथ गूगल की साठ-गांठ की
बात सामने आ चुकी है।
दुनिया में
इंटरनेट प्रणाली पर काफी हद तक अभी भी अमेरिका का नियंत्रण है और अधिकांश बड़ी
इंटरनेट कंपनियां अमेरिकी हैं। सभी के सर्वर वहीं हैं और वे वहां के कानूनों से
संचालित होती हैं। इसलिए सबसे बड़ा सवाल भारत सहित दूसरे देशों के सामने यह है कि
वे साइबर दुनिया में अपनी निजता को कैसे बचाते हैं। यह सवाल निजता और साइबर
सुरक्षा के साथ-साथ राष्ट्रीय सुरक्षा से भी जुड़ा है।इन्हीं चिंताओं को
ध्यान में रखते हुए बीते साल भारत सरकार ने राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा नीति-2013 जारी की थी। इसका मुख्य मकसद देश में
ऐसा साइबर सिक्यॉरिटी सिस्टम तैयार करना है जो साइबर हमलों को रोकने में सक्षम हो।
अब इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए केंद्र सरकार नई ई-मेल नीति भी बना रही है। यह
ई-मेल पॉलिसी पब्लिक रेकॉर्ड ऐक्ट के तहत बनाई जा रही है। इससे सरकारी डेटा भारत
से बाहर के किसी सर्वर पर नहीं जा पाएगा।
इसके तहत वह सरकारी विभागों में जीमेल और याहू जैसी ईमेल सेवाओं के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा सकती है। सरकार अपने सभी विभागों में ईमेल संवाद के लिए आधिकारिक वेबसाइट एनआइसी का इस्तेमाल करने की सोच रही है। यह नीति लगभग तैयार हो चुकी है और विभाग इसके क्रियान्वयन के लिए अन्य मंत्रालयों से बातचीत कर रहा है। इस नीति के बाद बड़ी संख्या में सरकार के संवेदनशील आंकड़ों को सुरक्षित रखा जा सकेगा। भारत सहित कई एशियाई देशों का सारा कामकाज गूगल, याहू जैसी वेबसाइट्स के जरिए होता है। इसलिए यहां की सरकारें संकट में घिर गई हैं। भारत चाहता है कि याहू, गूगल जैसी अमेरिकी कंपनियां भारत के साथ अहम जानकारियों को साझा करें। भारत में फोन और इंटरनेट की केंद्रीय मॉनिटरिंग की प्रणाली हाल में ही शुरू हुई है।
इसके तहत वह सरकारी विभागों में जीमेल और याहू जैसी ईमेल सेवाओं के इस्तेमाल पर पाबंदी लगा सकती है। सरकार अपने सभी विभागों में ईमेल संवाद के लिए आधिकारिक वेबसाइट एनआइसी का इस्तेमाल करने की सोच रही है। यह नीति लगभग तैयार हो चुकी है और विभाग इसके क्रियान्वयन के लिए अन्य मंत्रालयों से बातचीत कर रहा है। इस नीति के बाद बड़ी संख्या में सरकार के संवेदनशील आंकड़ों को सुरक्षित रखा जा सकेगा। भारत सहित कई एशियाई देशों का सारा कामकाज गूगल, याहू जैसी वेबसाइट्स के जरिए होता है। इसलिए यहां की सरकारें संकट में घिर गई हैं। भारत चाहता है कि याहू, गूगल जैसी अमेरिकी कंपनियां भारत के साथ अहम जानकारियों को साझा करें। भारत में फोन और इंटरनेट की केंद्रीय मॉनिटरिंग की प्रणाली हाल में ही शुरू हुई है।
सुरक्षा मामलों
की मंत्रिमंडलीय समिति से मंजूरी के जरिए खुफिया एजेंसियों को फोन टैपिंग, ई मेल स्नूपिंग, वेब
सर्च और सोशल नेटवर्क पर सीधी नजर रखने के अधिकार मिले हैं। मगर, इस पर अमल में दिक्कत है। गूगल, फेसबुक, माइक्रोसॉफ्ट आदि को नई मॉनिटरिंग नीति के तहत लाना और उनके सर्वर में दखल
देना भारतीय एजेंसियों के लिए काफी मुश्किल साबित हो रहा है। ये कंपनियां अपने
सर्वर देश से बाहर होने और विदेशी कानूनों के तहत संचालित होने का तर्क देती हैं।
ऐसे में सरकारी डेटा बाहर भेजा जा सकता है, जो पब्लिक
रेकॉर्ड ऐक्ट का उल्लंघन है।
देश के रक्षा
और विज्ञान शोध संस्थानों तथा दूतावासों पर साइबर जासूसी का आतंक मंडरा रहा है।
दुनिया के सबसे बड़े साइबर जासूसी रैकेट के खतरे से जूझ रहे इन संस्थानों को बेहद
संवेदनशील जानकारियों और आंकड़ों के चोरी होने का डर है। साइबर संसार में जासूसी
करने के लिए अमेरिका ने पूरे विश्व में लगभग 150 जगहों पर 700 सर्वर्स लगा रखे हैं। ब्रिटिश अखबार
गार्जियन के मुताबिक इन सर्वर्स में से एक भारत में भी लगाया गया है। दिल्ली के
नजदीक किसी स्थान पर इसके लगे होने की आशंका जताई गई है।
देश में साइबर सुरक्षा में मैन पावर की बहुत कमी है। साइबर सुरक्षा के आंकड़ों के अनुसार चीन में साइबर सुरक्षा के काम में सवा लाख विशेषज्ञ तैनात हैं। अमेरिका में यह संख्या 91 हजार से ऊपर है। रूस में भी लगभग साढ़े सात हजार माहिर लोग इस काम में लगे हुए हैं। अपने यहां यह संख्या सिर्फ 5560 है। फिलहाल स्थिति चिंताजनक है और तत्काल ऐक्शन की जरूरत है। इसमें दो राय नहीं कि सरकार की नई ई- मेल नीति सही दिशा में उठाया गया कदम है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या यह काफी है? वक्त का तकाजा है कि सरकार इस संवेदनशील मसले पर गंभीरता से गौर करे। सभी सवालों और चुनौतियों के जवाब उसी गंभीरता से निकलेंगे।
(लेखक विज्ञानपीडिया.कॉम के संपादक हैं)
देश में साइबर सुरक्षा में मैन पावर की बहुत कमी है। साइबर सुरक्षा के आंकड़ों के अनुसार चीन में साइबर सुरक्षा के काम में सवा लाख विशेषज्ञ तैनात हैं। अमेरिका में यह संख्या 91 हजार से ऊपर है। रूस में भी लगभग साढ़े सात हजार माहिर लोग इस काम में लगे हुए हैं। अपने यहां यह संख्या सिर्फ 5560 है। फिलहाल स्थिति चिंताजनक है और तत्काल ऐक्शन की जरूरत है। इसमें दो राय नहीं कि सरकार की नई ई- मेल नीति सही दिशा में उठाया गया कदम है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या यह काफी है? वक्त का तकाजा है कि सरकार इस संवेदनशील मसले पर गंभीरता से गौर करे। सभी सवालों और चुनौतियों के जवाब उसी गंभीरता से निकलेंगे।
(लेखक विज्ञानपीडिया.कॉम के संपादक हैं)
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