Tuesday 1 October 2013

क्रायोजेनिक तकनीक में आत्मनिर्भरता जरूरी


राष्ट्रीय सहारा 
शशांक द्विवेदी 
हाल में ही भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने स्वदेश निर्मित क्रायोजनिक इंजन वाले जीएसएलवी डी 5 की प्रस्तावित लांचिंग एन मौके पर रोक दी । इसरो प्रमुख  के राधा कृष्णनन के अनुसार जीएसएलवी डी 5 में ईधन रिसाव होने के कारण प्रक्षेपण फिलहाल टाल दिया गया है। 49 मीटर लंबे और 414 टन वजनी जीएसएलवी प्रक्षेपण यान के तीसरे चरण यानी देश में ही विकसित क्रायोजेनिक अपर स्टेज में प्रणोदक भरने का काम चल रहा था तभी वैज्ञानिको को रॉकेट के दूसरे चरण में ईधन रिसाव के संकेत मिले। रिसाव का संकेत मिलने के बाद इसरो अधिकारियों ने उलटी गिनती रोकने का निर्णय किया। रिसाव की समस्या जिस वक्त सामने आई उस वक्त प्रक्षेपण में सिर्फ 74 मिनट का वक्त ही बचा था। जीएसएलवी डी 5 प्रक्षेपण यान के निर्माण पर लगभग 160 करोड़ रूपए तथा उपग्रह के निर्माण पर लगभग 45 करोड़ रूपए की लागत आई है।
अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में हम लगातार प्रगति कर रहे हैं, लेकिन अभी भी हम पूरी तरह से आत्मनिर्भर नहीं हो पाए हंै। क्रायोजेनिक तकनीकी के परिपे्रक्ष्य में पूर्ण सफलता नहीं मिलने के कारण भारत इस मामलें में आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है, जबकि प्रयोगशाला स्तर पर क्रायोजेनिक इंजन का सफलता पूर्वक परीक्षण किया जा चुका है। लेकिन स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन की सहायता से लाॅंच किए गए प्रक्षेपण यान ‘जीएसएलवी‘ की असफलता के बाद इस पर सवालिया निशान लगा हुआ है।  इससे पहले 2010 में भी भारत के दो महत्वाकांक्षी अभियान तकनीकी और संचालन संबंधी दिक्कतों के कारण असफल हो गए थे।
इसरो अध्यक्ष के अनुसार वैज्ञानिक रिसाव के कारणों का विश्लेषण करेंगे और इसके बाद ही नई तिथि की घोषणा की जाएगी। प्रक्षेपण स्थगित किए जाने के बाद रॉकेट को फिर से श्रीहरिकोटा स्थित असेम्बलिंग बिल्डिंग में ले जाया जाएगा। जहां वैज्ञानिक आंकड़ों का विश्लेषण का खामी का पता लगाकर समस्या को दूर करेंगे और दोबारा इसका इंटीग्रेशन होगा। रॉकेट को असेम्बलिंग बिल्डिंग में लाए जाने से पहले क्रायोजेनिक स्टेज, दूसरे चरण में चार एल 40 मोटर ऑन स्टांपस में भरा गया तरल प्रणोदक वापस निकाल लिया गया।  वास्तव में  अप्रैल 2010 की तरह विफलता का जोखिम लेने के बजाय बेहतर था कि प्रक्षेपण को टाल दिया जाए और खामी दूर करने के बाद नए समय पर  प्रक्षेपित किया जाए । इसरो ने तीन चरणों वाले जीएसएलवी को नए सिरे से बनाया है और इसमें लगे क्रायोजेनिक इंजन का विकास पूर्णत स्वदेशी तकनीक से किया गया है। 
भारत के लिए ये पहला मौका नहीं है कि क्रायोजेनिक इंजन से लैस जीएसएलवी के जरिए उपग्रह का प्रक्षेपण हो रहा है। इससे पहले  2010 में जीएसएलवी-एफ 06 से जीसैट-5 उपग्रह को लॉन्च किया गया था मगर वो हवा में फट गया और महज 62 सेकंड में 175 करोड़ का अभियान हवा में स्वाहा हो गया।बाद में यह बंगाल की खाड़ी की ओर गिर गया। इस अभियान में भी तकनीकी खराबी आई थी जिसकी वजह से प्रक्षेपण की तारीख बदली गई थी लेकिन यह बाद में भी यह अभियान पूर्ण रूप से विफल रह उस समय भी देश की उम्मीदों को गहरा झटका लगा था ।
इसके पीछे असली समस्या क्रायोजनिक इंजन तकनीक के मामले में भारत पूरी तरह आत्मनिर्भर न होना है । असल में जीएसएलवी में प्रयुक्त होने वाला  द्रव्य ईंधन इंजन में बहुत कम तापमान पर भरा जाता है, इसलिए ऐसे इंजन क्रायोजेनिक रॉकेट इंजन कहलाते हैं। इस तरह के रॉकेट इंजन में अत्यधिक ठंडी और द्रवीकृत गैसों को ईंधन और ऑक्सीकारक के रूप में प्रयोग किया जाता है। इस इंजन में हाइड्रोजन और ईंधन क्रमश ईंधन और ऑक्सीकारक का कार्य करते हैं। ठोस ईंधन की अपेक्षा यह कई गुना शक्तिशाली सिद्ध होते हैं और रॉकेट को बूस्ट देते हैं। विशेषकर लंबी दूरी और भारी रॉकेटों के लिए यह तकनीक आवश्यक होती है।
क्रायोजेनिक इंजन के थ्रस्ट में तापमान बहुत ऊंचा (2000 डिग्री सेल्सियस से अधिक) होता है। अत ऐसे में सर्वाधिक प्राथमिक कार्य अत्यंत विपरीत तापमानों पर इंजन व्यवस्था बनाए रखने की क्षमता अर्जित करना होता है। क्रायोजेनिक इंजनों में -253 डिग्री सेल्सियस से लेकर 2000 डिग्री सेल्सियस तक का उतार-चढ़ाव होता है, इसलिए थ्रस्ट चैंबरों, टर्बाइनों और ईंधन के सिलेंडरों के लिए कुछ विशेष प्रकार की मिश्र-धातु की आवश्यकता होती है।  फिलहाल भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने बहुत कम तापमान को आसानी से झेल सकने वाली मिश्रधातु विकसित कर ली है।
अन्य द्रव्य प्रणोदकों की तुलना में क्रायोजेनिक द्रव्य प्रणोदकों का प्रयोग कठिन होता है। इसकी मुख्य कठिनाई यह है कि ये बहुत जल्दी वाष्प बन जाते हैं। इन्हें अन्य द्रव प्रणोदकों की तरह रॉकेट खंडों में नहीं भरा जा सकता। क्रायोजेनिक इंजन के टरबाइन और पंप जो ईंधन और ऑक्सीकारक दोनों को दहन कक्ष में पहुंचाते हैं, को भी खास किस्म के मिश्रधातु से बनाया जाता है।, द्रव हाइड्रोजन और द्रव ऑक्सीजन को दहन कक्ष तक पहुंचाने में जरा सी भी गलती होने पर कई करोड़ रुपए की लागत से बना जीएसएलवी रॉकेट रास्ते में जल सकता है। इसके अलावा दहन के पूर्व गैसों (हाइड्रोजन और ऑक्सीजन) को सही अनुपात में मिश्रित करना, सही समय पर दहन प्रारंभ करना, उनके दबावों को नियंत्रित करना, पूरे तंत्र को गर्म होने से रोकना जरूरी है ।
जनसंदेश टाइम्स
जीएसएलवी ऐसा मल्टीस्टेज रॉकेट होता है जो दो टन से अधिक वजनी उपग्रह को पृथ्वी से 36000 किमी. की ऊंचाई पर भू स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है जो विषुवत वृत्त या भूमध्य रेखा के ऊपर होता है। ये अपना कार्य तीन चरण में पूरा करते हैं। इनके आखिरी यानी तीसरे चरण में सबसे अधिक बल की जरूरत पड़ती है। रॉकेट की यह जरूरत केवल क्रायोजेनिक इंजन ही पूरा कर सकते हैं। इसलिए बगैर क्रायोजेनिक इंजन के जीएसएलवी रॉकेट बनाया जा सकना मुश्किल होता है।  दो टन से अधिक वजनी उपग्रह ही हमारे लिए ज्यादा काम के होते हैं इसलिए दुनिया भर में छोड़े जाने वाले 50 प्रतिशत उपग्रह इसी वर्ग में आते हैं। जीएसएलवी रॉकेट इस भार वर्ग के दो तीन उपग्रहों को एक साथ अंतरिक्ष में ले जाकर 36000 किमी. की ऊंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है। यही जीएसएलवी रॉकेट की प्रमुख विशेषता है।
जीएसएलवी का प्रक्षेपण इसरो के लिए बेहद अहम है क्योंकि दूर संचार उपग्रहों, मानव युक्त अंतरिक्ष अभियानों या दूसरा चंद्र मिशन जीएसएलवी के विकास के बिना संभव नहीं है। इस प्रक्षेपण में सफलता इसरो के लिए संभावनाओं के नए द्वार खोलने वाली है लेकिन अब इसके लिए देश को थोड़ा और इंतजार करना पड़ेगा।
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