Sunday 14 July 2013
Monday 8 July 2013
डीएनए में सूचना संकलन
सूचना संग्रहण की नई तकनीक
डीएनए अथवा डिआक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड में हमारे जीवन का ब्लूप्रिंट होता है। पृथ्वी पर ज्ञात समस्त जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों के लिए आनुवंशिक निर्देश इसी रसायन में दर्ज होते हैं। इस रसायन में सूचनाओं को संभाल कर रखने की अनोखी क्षमता है और वैज्ञानिक पिछले काफी समय से यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या हम डेटा संकलन के लिए इस क्षमता का उपयोग कर सकते हैं। अब ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि डिजिटल डेटा को डीएनए में संभाल कर रखा जा सकता है। कैम्बि्रज के निकट यूरोपियन बायो इंफोर्मेटिक्स इंस्टीटयूट के वैज्ञानिकों ने कृत्रिम रूप से तैयार किए गए जीवन के मॉलिक्यूल के हिस्सों में शेक्सपीयर की कविताएं, मार्टिन लूथर के मशहूर भाषण के अंश, एक वैज्ञानिक पेपर और एक फोटो को संग्रहीत किया। उन्होंने संकलित सूचना को 100 प्रतिशत की शुद्धता के साथ सफलतापूर्वक पढ़ कर भी दिखा दिया। वैज्ञानिकों का दावा है कि डीएनए में बड़ी मात्रा में संकलित जानकारी को हजारों वर्ष तक सुरक्षित रखा जा सकता है। फिलहाल सूचना भंडारण के लिए कृत्रिम रूप से डीएनए का मॉलिक्यूल तैयार करना बहुत महंगा है। मसलन एक मेगाबाइट सूचना के भंडारण का खर्च अभी 12,400 डॉलर है और इस सूचना को दोबारा पढ़ने पर 220 डॉलर और खर्च करने पड़ेंगे। लेकिन वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि आने वाले दशकों में कृत्रिम डीएनए की लागत कम हो जाएगी और चुंबकीय टेपों की तुलना में डेटा संकेतबद्ध करना ज्यादा किफायती होगा। सरकारी और ऐतिहासिक रिकॉर्ड लंबे समय तक डीएनए के गुच्छे में संग्रहीत किए जा सकते हैं। ब्रिटिश टीम के प्रोजेक्ट लीडर निक गोल्डमैन का कहना है कि डीएनए लंबे समय तक स्थिर रहता है। हजारों वर्ष पुराने नमूनों में डीएनए ठीकठाक हालत में पाया गया है। यदि ये नमूने बर्फ में जमे हुए हैं तो वे और ज्यादा समय तक सही सलामत रहेंगे। मसलन मैमथ (लुप्त ऊनी हाथी) के नमूने हजारों वर्ष बीत जाने के बावजूद सुरक्षित हैं। डीएनए का सबसे बड़ा गुण यह है कि इसमें बहुत बड़े पैमाने पर डेटा का संकलन किया जा सकता है और भंडारण के लिए बिजली की जरूरत भी नहीं पड़ती। डीएनए का भंडारण घनत्व करीब 2.2 प्रतिशत पेटाबाइट्स प्रति ग्राम है। एक पेटाबाइट में 1048576 गीगाबाइट्स होते हैं। डीएनए की भंडारण क्षमता इस वक्त इस्तेमाल में आ रहे समस्त भंडारण माध्यमों से कई हजार गुना अधिक है। सैद्धांतिक तौर पर हाई डेफिनेशन वीडियो के 10 करोड़ घंटों को डीएनए से भरे एक कप में स्टोर किया जा सकता है। बहुत सी जानकारियां ऐसी होती हैं, जिनकी हर रोज जरूरत नहीं पड़ती, लेकिन फिर भी उन्हें संभाल कर रखना पड़ता है। ऐसे काम के लिए डीएनए भंडारण एक आदर्श विकल्प हो सकता है। हार्ड डिस्क-ड्राइव और चुंबकीय टैप जैसे मौजूदा भंडारण डिवाइसों की लगातार रखरखाव की जरूरत पड़ती है लेकिन डीएनए लाइब्रेरी के लिए ऐसी कोई कसरत नहीं करनी पड़ेगी। रिसर्चरों ने डेटा को डीएनए में संकेतबद्ध करने के लिए आनुवंश्हिक कोड के पांच अक्षरों ए, सी, जी और टी का इस्तेमाल शून्य और एक के रूप में किया है, जो डिजिटल सूचना के बाइट्स होते हैं। रिसर्चरों की इस तकनीक का ब्यौरा नेचर पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के आनुवांशिक वैज्ञानिक, प्रोफेसर जार्ज चर्च के नेतृत्व में वैज्ञानिकों की टीम ने पिछले साल डीएनए की अद्भुत भंडारण क्षमता को प्रदर्शित करने के लिए एक पूरी पुस्तक ही डीएनए में संग्रहीत कर दी थी। इस पुस्तक में 11 तस्वीरों और एक कंप्यूटर प्रोग्राम सहित 53,000 शब्द हैं।
मानव क्लोनिंग अचानक करीब..
मुकुल व्यास॥
वैज्ञानिकों
ने त्वचा की
स्टेम कोशिकाओं को
प्रारंभिक भ्रूणों में बदल
कर मानव क्लोनिंग
में एक बहुत
बड़ी सफलता प्राप्त
की है। स्टेम
कोशिकाएं वे कोशिकाएं
होती हैं, जो
विभाजित होने के
बाद शरीर की
किसी भी विशिष्ट
कोशिका के रूप
में विकसित हो
सकती हैं। नई
तकनीक से उत्पन्न
भ्रूणों का इस्तेमाल
प्रत्यारोपण ऑपरेशनों के लिए
विशिष्ट मानव टिशू
उत्पन्न करने में
किया गया है।
क्लोनिंग तकनीक में यह
सफलता डॉली नामक
भेड़ के जन्म
के 17 के बाद
हासिल हुई है
और इससे हृदय
रोग और पार्किंसन
जैसे बीमारियों के
बेहतर इलाज की
उम्मीदें जग गई
हैं। लेकिन इस
सफलता से कुछ
नए विवाद खड़े
हो सकते हैं।
कुछ लोग मेडिकल
उद्देश्यों के लिए
मानव भ्रूण उत्पन्न
करने पर नैतिक
सवाल उठाएंगे। सबसे
बड़ा खतरा यह
है कि शिशु
क्लोन चाहने वाले
दंपतियों के लिए
इसी तकनीक से
परखनली भ्रूण उत्पन्न किए
जा सकते हैं।
बहरहाल, नई तकनीक
विकसित करने वाले
वैज्ञानिकों का दावा
है कि उनकी
रिसर्च का मुख्य
उद्देश्य मरीज की
अपनी स्टेम कोशिकाओं
से ऐसे विशिष्ट
टिशू उत्पन्न करने
का है, जिन्हें
प्रत्यारोपण के लिए
इस्तेमाल किया जा
सके। उनका यह
भी कहना है
कि इस तकनीक
का प्रजनन से
कोई लेना-देना
नहीं है। लेकिन
दूसरे वैज्ञानिकों का
मानना है कि
इस उपलब्धि से
हम शिशु क्लोन
की दिशा में
एक कदम और
आगे बढ़ गए
हैं।
मरीज की स्टेम कोशिकाओं से समुचित मात्रा में भ्रूणीय स्टेम कोशिकाएं उत्पन्न करना चिकित्सा विज्ञान के लिए एक बड़ी चुनौती थी। अमेरिका में पोर्टलैंड स्थित ओरेगन हेल्थ एंड साइंस यूनिवर्सिटी के प्रमुख रिसर्चर शोहरत मितालिपोव ने बताया कि उन्होंने बहुत कम मात्रा में मानव अंडाणुओं से भ्रूणीय स्टेम कोशिकाएं उत्पन्न करने के लिए सेल के कल्चर में कैफीन मिलाई थी। पहले यह सोचा गया था कि ऐसा करने के लिए हजारों मानव अंडाणुओं की जरूरत पड़ेगी। लेकिन मितालिपोव की टीम ने सिर्फ दो मानव अंडाणुओं से एक भ्रूण स्टेम कोशिका उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त की। डॉ. मितालिपोव का कहना है कि यह तरीका मेडिकल इस्तेमाल के लिए ज्यादा कारगर और व्यावहारिक है। इस विधि से उन मरीजों के लिए स्टेम कोशिकाएं उत्पन्न की जा सकती हैं, जिनके अंग बेकार या अशक्त हो चुके हैं। इससे उन रोगों से छुटकारा पाने मदद मिलेगी, जो दुनिया में लाखों लोगों को प्रभावित करते हैं।
रिसर्चरों ने अपनी नई तकनीक में आनुवांशिक रोग वाले शिशु की स्किन कोशिकाएं निकाल कर उन्हें डोनेट किए गए मानव अंडाणुओं में प्रत्यारोपित कर दिया। इस विधि से उत्पन्न मानव भ्रूण आनुवंशिक दृष्टि से आठ महीने के भ्रूण से मिलते जुलते थे। भ्रूण से उत्पन्न कोशिकाओं में मरीज का ही डीएनए था, लिहाजा इन्हें बेहिचक मरीज के शरीर में प्रत्यारोपित किया जा सकता था। शरीर की प्रतिरोधी प्रणाली द्वारा उन्हें ठुकराने का कोई खतरा नहीं था। प्रयोगशाला में चूहों और बंदरों जैसे जानवरों में इस तकनीक से भ्रूण स्टेम कोशिकाएं उत्पन्न करने में सफलता मिल गई थी, लेकिन मनुष्यों में इसको दोहराने के प्रयास विफल हो रहे थे क्योंकि मानव अंडाणु कोशिकाएं बेहद नाजुक होती हैं।
सेल पत्रिका में प्रकाशित रिसर्च में वैज्ञानिकों ने अंडाणु के विकास में आने वाली समस्याओं से बचने के तरीके बताए और सिद्ध किया कि इस तकनीक से दिल, लिवर और स्नायु कोशिकाएं विकसित की जा सकती हैं। रिसर्चरों का विचार है कि पिछली क्लोनिंग तकनीकों की तुलना में नई विधि नैतिक दृष्टि से ज्यादा स्वीकार्य है क्योंकि इसमें निषेचित भ्रूणों का प्रयोग नहीं किया जाता। जापानी रिसर्चरों ने कुछ समय पहले मानव त्वचा से स्टेम सेल निकालने का तरीका विकसित किया था, लेकिन इसमें उन्होंने रसायनों का इस्तेमाल किया था। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि इस तरीके से जीनों में हानिकारक बदलाव हो सकते हैं।
मरीज की स्टेम कोशिकाओं से समुचित मात्रा में भ्रूणीय स्टेम कोशिकाएं उत्पन्न करना चिकित्सा विज्ञान के लिए एक बड़ी चुनौती थी। अमेरिका में पोर्टलैंड स्थित ओरेगन हेल्थ एंड साइंस यूनिवर्सिटी के प्रमुख रिसर्चर शोहरत मितालिपोव ने बताया कि उन्होंने बहुत कम मात्रा में मानव अंडाणुओं से भ्रूणीय स्टेम कोशिकाएं उत्पन्न करने के लिए सेल के कल्चर में कैफीन मिलाई थी। पहले यह सोचा गया था कि ऐसा करने के लिए हजारों मानव अंडाणुओं की जरूरत पड़ेगी। लेकिन मितालिपोव की टीम ने सिर्फ दो मानव अंडाणुओं से एक भ्रूण स्टेम कोशिका उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त की। डॉ. मितालिपोव का कहना है कि यह तरीका मेडिकल इस्तेमाल के लिए ज्यादा कारगर और व्यावहारिक है। इस विधि से उन मरीजों के लिए स्टेम कोशिकाएं उत्पन्न की जा सकती हैं, जिनके अंग बेकार या अशक्त हो चुके हैं। इससे उन रोगों से छुटकारा पाने मदद मिलेगी, जो दुनिया में लाखों लोगों को प्रभावित करते हैं।
रिसर्चरों ने अपनी नई तकनीक में आनुवांशिक रोग वाले शिशु की स्किन कोशिकाएं निकाल कर उन्हें डोनेट किए गए मानव अंडाणुओं में प्रत्यारोपित कर दिया। इस विधि से उत्पन्न मानव भ्रूण आनुवंशिक दृष्टि से आठ महीने के भ्रूण से मिलते जुलते थे। भ्रूण से उत्पन्न कोशिकाओं में मरीज का ही डीएनए था, लिहाजा इन्हें बेहिचक मरीज के शरीर में प्रत्यारोपित किया जा सकता था। शरीर की प्रतिरोधी प्रणाली द्वारा उन्हें ठुकराने का कोई खतरा नहीं था। प्रयोगशाला में चूहों और बंदरों जैसे जानवरों में इस तकनीक से भ्रूण स्टेम कोशिकाएं उत्पन्न करने में सफलता मिल गई थी, लेकिन मनुष्यों में इसको दोहराने के प्रयास विफल हो रहे थे क्योंकि मानव अंडाणु कोशिकाएं बेहद नाजुक होती हैं।
सेल पत्रिका में प्रकाशित रिसर्च में वैज्ञानिकों ने अंडाणु के विकास में आने वाली समस्याओं से बचने के तरीके बताए और सिद्ध किया कि इस तकनीक से दिल, लिवर और स्नायु कोशिकाएं विकसित की जा सकती हैं। रिसर्चरों का विचार है कि पिछली क्लोनिंग तकनीकों की तुलना में नई विधि नैतिक दृष्टि से ज्यादा स्वीकार्य है क्योंकि इसमें निषेचित भ्रूणों का प्रयोग नहीं किया जाता। जापानी रिसर्चरों ने कुछ समय पहले मानव त्वचा से स्टेम सेल निकालने का तरीका विकसित किया था, लेकिन इसमें उन्होंने रसायनों का इस्तेमाल किया था। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि इस तरीके से जीनों में हानिकारक बदलाव हो सकते हैं।
दक्षिण
कोरिया की सोल
नेशनल यूनिवर्सिटी के
वू सुक ह्वांग
के नेतृत्व में
कुछ वैज्ञानिकों ने
2004 में
क्लोनिंग से मानव भ्रूण
उत्पन्न करने का दावा
किया था। बाद
में उन्होंने इन
भ्रूणों से भ्रूण स्टेम
कोशिकाएं भी निकालने का
दावा किया था।
लेकिन अनैतिक आचरण
और धोखाधड़ी के
आरोपों के बाद
उन्हें रिसर्च के
नतीजों को वापस
लेना पड़ा। इस
प्रकरण से ह्वांग
की काफी बदनामी
भी हुई। कुछ
अन्य रिसर्चरों ने
भी क्लोनिंग से
मानव भ्रूण उत्पन्न करने
का दावा किया,
लेकिन इनमें कोई
भी यह साबित
नहीं कर सका
कि इन भ्रूणों से
समुचित मात्रा में
ऐसी भ्रूणीय कोशिकाएं उत्पन्न करना
संभव है, जिन्हें प्रयोगशाला में
विशिष्ट टिशू में बदला
जा सके। डॉ.
मितालिपोव की तकनीक की
खास बात यह
यह है कि
क्लोन किए गए
मानव भ्रूण 150 कोशिकाओं वाली
अवस्था तक जीवित
रह सकते हैं।
इस अवस्था को
ब्लास्टोसिस्ट
भी कहते हैं।
इस अवस्था से
भ्रूण स्टेम कोशिकाएं निकाली
जा सकती हैं,
जिन्हें बाद में स्नायु
कोशिकाओं, हृदय कोशिकाओं या
जिगर की कोशिकाओं के
रूप में विकसित
किया जा सकता
है। प्रत्यारोपण के
दौरान मरीज द्वारा
इन्हें खारिज किए
जाने की कोई
आशंका नहीं है
क्योंकि इन कोशिकाओं को
मरीज की अपनी
आनुवंशिक सामग्री से ही उत्पन्न किया
गया है।
इस क्लोनिंग तकनीक का दुरुपयोग संभव है। ह्यूमन जेनेटिक्स अलर्ट के निदेशक डेविड किंग का कहना है कि वैज्ञानिकों ने अंतत: वह रास्ता दिखा दिया है, जिसका मानव क्लोन बनाने में जुटे रिसर्चरों को बेसब्री से इंतजार था। उन्होंने कहा कि नई रिसर्च को प्रकाशित करना एक गैरजिम्मेदाराना कदम है। इस संबंध में और आगे रिसर्च शुरू होने से पहले ही हमें मानव क्लोनिंग पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लगाने पर शीघ्र विचार करना चाहिए। कमेंट ऑन रीप्रॉडक्शन एथिक्स की जोसेफीन क्विंटावाल ने इस रिसर्च के औचित्य पर ही सवाल उठाया है। उन्होंने कहा कि स्टेम कोशिका उत्पन्न करने के गैरविवादित तरीके पहले से उपलब्ध हैं। ऐसे में इस रिसर्च की जरूरत क्या थी।
हमें उम्मीद करनी चाहिए कि इस रिसर्च को प्रजनन क्लोनिंग की तरफ मोड़ने की कोशिश नहीं की जाएगी। डॉ. मितालिपोव का कहना है कि वह क्लोनिंग के जरिए बंदर शिशु उत्पन्न करने में असफल रहे हैं। अत: इस बात की संभावना बहुत कम है कि इस तकनीक का प्रयोग मनुष्य के क्लोन उत्पन्न करने के लिए किया जाएगा। ब्रिटेन की न्यू कैसल यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर मैरी हर्बर्ट का मानना है कि नई तकनीक शरीर को अशक्त बनाने वाली बीमारियों के इलाज के लिए मरीज की जरूरत के हिसाब से स्टेम कोशिकाएं उत्पन्न करने में मदद कर सकती है। एडिनबरा विश्वविद्यालय के डॉ. पॉल डि सूजा का मानना है कि महिलाओं के अंडाणुओं के बारे में हमारी बेहतर समझदारी से इनफर्टिलिटी के नए इलाज खोजे जा सकते हैं।
इस क्लोनिंग तकनीक का दुरुपयोग संभव है। ह्यूमन जेनेटिक्स अलर्ट के निदेशक डेविड किंग का कहना है कि वैज्ञानिकों ने अंतत: वह रास्ता दिखा दिया है, जिसका मानव क्लोन बनाने में जुटे रिसर्चरों को बेसब्री से इंतजार था। उन्होंने कहा कि नई रिसर्च को प्रकाशित करना एक गैरजिम्मेदाराना कदम है। इस संबंध में और आगे रिसर्च शुरू होने से पहले ही हमें मानव क्लोनिंग पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंध लगाने पर शीघ्र विचार करना चाहिए। कमेंट ऑन रीप्रॉडक्शन एथिक्स की जोसेफीन क्विंटावाल ने इस रिसर्च के औचित्य पर ही सवाल उठाया है। उन्होंने कहा कि स्टेम कोशिका उत्पन्न करने के गैरविवादित तरीके पहले से उपलब्ध हैं। ऐसे में इस रिसर्च की जरूरत क्या थी।
हमें उम्मीद करनी चाहिए कि इस रिसर्च को प्रजनन क्लोनिंग की तरफ मोड़ने की कोशिश नहीं की जाएगी। डॉ. मितालिपोव का कहना है कि वह क्लोनिंग के जरिए बंदर शिशु उत्पन्न करने में असफल रहे हैं। अत: इस बात की संभावना बहुत कम है कि इस तकनीक का प्रयोग मनुष्य के क्लोन उत्पन्न करने के लिए किया जाएगा। ब्रिटेन की न्यू कैसल यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर मैरी हर्बर्ट का मानना है कि नई तकनीक शरीर को अशक्त बनाने वाली बीमारियों के इलाज के लिए मरीज की जरूरत के हिसाब से स्टेम कोशिकाएं उत्पन्न करने में मदद कर सकती है। एडिनबरा विश्वविद्यालय के डॉ. पॉल डि सूजा का मानना है कि महिलाओं के अंडाणुओं के बारे में हमारी बेहतर समझदारी से इनफर्टिलिटी के नए इलाज खोजे जा सकते हैं।
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